तत्कालिक संकटों का समाधान भी तत्कालिक होता है, नाक पर मक्खी बैठी और उसे तुरंत उड़ा दिया। ऐसी स्थिति बार-बार समक्ष आती हो तो उसका समाधान आपको स्थिर होकर सोचना होगा। आप देखेंगे तो पाएंगे कि हम लोग लगभग हर समस्या के तत्कालिक समाधान पर ही ध्यान केंद्रित करके रह जाते हैं। हम इस तथ्य की उपेक्षा कर जाते हैं कि युद्ध की तैयारी शान्तिकाल में होती है। बलात्कार, रेल या सड़क दुर्घटनाओं के उदाहरण ध्यान कीजिए, हुआ तो हम उद्वेलित हुए और कुछ ही देर में फिर रूटीन दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं।
कल दिल्ली की सघन आबादी में लगी एक आग में पचास के लगभग लोग जल मरे, हम ये सरकार वो सरकार, इस विभाग उस विभाग को कोसेंगे और दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी क्योंकि हम व्यवस्था का भाग मात्र लाभ उठाने के लिए बनने की मानसिकता से ग्रस्त हैं।
चार मंजिला ईमारत में प्लास्टिक का सामान बनाने का कारखाना और गोदाम था, तीन भाइयों का ऐसा ही सेटअप है।
कारखाना चलाने का लाइसेंस नहीं था।
फायर सर्विस वालों का एनओसी नहीं था।
बिजली कनेक्शन नहीं था, बिजली के खम्भे से कटिया डालकर कनेक्शन जोड़ रखा था।
इन कारणों से ईमारत के मुख्य दरवाजे पर ताला लगा था (काम नहीं रुका हुआ था)। मुँह अंधेरे आग लगी तो फँसे हुए लोग इन कारणों से भाग भी नहीं सके।
अभी तक इस आगजनी में हलाक हुए तिरालीस लोगों को विभिन्न सरकारों द्वारा चौदह लाख फ़ी हलाक की दर से मुआवजा घोषित हो चुका है। पीड़ितों को मुआवजे का मैं भी विरोध नहीं करता पर मुआवजा राशि कहाँ से आए, इस पर भी हमें सोचना चाहिए।
अख़बार लिख रहा है - 'देते हैं करोड़ों का टैक्स पर सुविधाएँ कुछ नहीं मिलती'.....
पर्दे पर चचा द्वारा खोज निकाला भारत यानि Discovery of India चल रहा है। पर्दे के पीछे दमदार आवाज गूँज रही है, 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:॥'
नेताओं, पत्रकारों की इस 'प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्' प्रियता के चलते यद्यपि मेरा मन भी हमदर्दी के समन्दर में गोते लगा रहा है लेकिन मैं यह भी सोच रहा हूँ कि क्या अनाजमण्डी में ऐसी एक या तीन इमारतें ही हैं? क्या दिल्ली में अनाजमण्डी जैसी एक ही जगह है? क्या भारत में दिल्ली जैसा एक ही नगर है? जो बिजली का बिल नहीं भरते, लाइसेंस फीस नहीं भरते, वो आयकर, जीएसटी आदि अन्य टैक्स भरते हैं? PF /ESI के नियमों का पालन करते हैं? न्यूनतम वेतन / minimum wages का पालन करते हैं(करुणा से ओतप्रोत होते हुए एक अखबार ने बताया है कि काम करने वाले डेढ़ सौ रुपया प्रतिदिन पाते थे)? बाल श्रमिकों की सेवाएं तो नहीं ली जा रही थीं? मन्दी पर छाती पीटते विद्वान नहीं बताएंगे कि इनके आंकड़े GDP में गिने जाते हैं या नहीं क्योंकि उन्हें इसका उत्तर पता है। उन्हें यह भी पता है कि क्या, कब और कितना बोलना है। इंसानियत का परचम फहराना आसान नहीं, बहुत मन मसोस कर रहना पड़ता है।
हम और आप यह तो कर ही सकते हैं कि
नित्य के जीवन में अनुशासन का पालन करना आरम्भ कर दें। हो सकता है लाईफ कुछ बोरिंग हो जाए किन्तु विश्वास रखिए, अपना और अगली पीढ़ियों के लिए दुनिया को सुरक्षित करने में आपका योगदान होगा।
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