मौसम और उस दिन के सामाजिक कार्यक्रमों के अनुसार उपस्थित सदस्यों की संख्या बदलती रहती थी, कभी चार भी रह जाती और कभी चौदह तक पहुँच जाती। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं पहुँचा तो पाया हो कि आज मैं अकेला हूँ। मुझे छोड़कर सभी उस ग्रुप से पुराने जुड़े हुए थे क्योंकि वे स्थानीय थे, अधिकाँश नौकरी और व्यापार से रिटायर्ड थे।
यात्रापथ के इस छोर से उस छोर तक प्रतिदिन
हँसी-मजाक, आपसी छेड़छाड़, राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक चर्चा चलती रहती। मैं प्रायः श्रोता ही बना रहता, सम्भवतः इसलिए भी उन सबमें सबसे कम अनुभव, परिचय, ज्ञान के उपरांत भी सबका स्नेहभाजन बना रहता था।
एक दिन देखा तो समूह में एक नया चेहरा दिखा। पहले मुझे लगा कि मेरे ही जैसे कोई नया रंगरूट है किन्तु वो तो मेरे अतिरिक्त सब सदस्यों को अच्छे से जानता था। उस दिन सब कुछ सामान्य नहीं दिखा। लोग उसकी बातों पर उत्तर भी कठिनता से देते, स्पष्ट दिख रहा था कि सब उसे टाल रहे हैं जबकि वो लगभग जबरदस्ती सबसे हँसी-मजाक करके ग्रुप में अपना स्थान बनाना चाह रहा है।
अगले दो-तीन दिन यही स्थिति बनी रही। सदस्यों की कम संख्या पर तो मैंने अधिक गौर नहीं किया क्योंकि यह वैसे भी घटती-बढ़ती रहती थी लेकिन उपस्थित लोगों में वो पहले सी सहज उन्मुक्तता नहीं दिखती थी।
उस दिन लौटते समय मैंने मेरे उस साथी से जिसने मुझे यहाँ introduce किया था, इस परिवर्तन का कारण पूछा। कुछ ना-नुकर के बाद वो मान गया कि यह व्यक्ति इस परिवर्तन का मूल हो सकता है। बताते समय मेरे इस मित्र की बातों में भी उसके प्रति एक नकारात्मक भाव झलक रहा था। पता चला कि पहले वह भी यहाँ नियमित आने वालों में था, कोई चोर या बलात्कारी न होकर हम जैसे सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से ही था। कुछ वर्ष पहले इनके संयुक्त परिवार की लड़की और पड़ौस में रहने वाले एक लड़के की हुई हत्या के कारण यह और इसके भाई जेल में थे। यह अब छूटकर आया है और चाह रहा है कि सब इसे पहले जैसे स्वीकार कर लें।
उस मित्र से विशेष चर्चा नहीं हुई परन्तु अन्य सदस्यों का स्टैण्ड मुझे समझ भी नहीं आया, अनुकूल भी नहीं लगा।
संयोग ऐसे बने कि उन्हीं दिनों वो शहर भी मुझसे छूट गया। आने के पहले दिन मैं नियत समय पर walk पर गया तो पाया कि वहाँ कोई और सदस्य उपस्थित नहीं है। ग्रुप के बाकी सदस्यों से मेरी इस विषय पर विस्तृत चर्चा नहीं हो सकी पर मुझे विश्वास है कि इस ग्रुप में मैं अकेला व्यक्ति रहता जो उसे खुले मन से मित्र स्वीकार करता। हम टीवी चैनल्स, समाचार पत्रों, प्रसिद्ध, चमकते-दमकते लोगों की कही बातों को अंतिम सच मान लेने वाले लोगों का समाज बनकर रह गए हैं।
शायद मैं भी ऐसा ही करती..
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