एक कम्पनी है जिसे एक अन्य कम्पनी ने टेकओवर किया था। कार्य-संस्कृति और अन्य घटकों में परिवर्तन आया तो अधिकाँश कर्मचारी नई कम्पनी छोड़कर अन्य नौकरियों में चले गए। कुछ दिन पहले पता चला कि बचे हुए पुराने कर्मचारियों में एक ऐसा है जो यूँ तो well paid है पर दिनभर फेसबुक, चैटिंग, गेम्स में लगा रहता है। कम्पनी सरकारी नहीं है और उस कर्मचारी की दिनचर्या पूरी तरह से नई कम्पनी के कर्ताधर्ताओं की जानकारी में है फिर भी यह चल रहा है इसलिए यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ। कुछ कुरेदने पर पता चला कि पुरानी कम्पनी के आउटस्टैंडिंग बिल्स और उन्हें उगाहने की जटिलताएं उसी कर्मचारी की जानकारी में है। वो हर मास दस-पन्द्रह लाख का बिल क्लियर करवा देता है। दोनों पक्ष जान रहे हैं कि पुराने बिल क्लियर होते ही पिंक स्लिप जारी हो जानी है और यदि यह स्लिप पहले जारी हो गई तो बचे हुए सब बिल डूब जाने हैं। और इस प्रकार ढील के पेंच हैं कि लड़े जा रहे हैं, लड़े जा रहे हैं। कारण एक ही है, दोनों के हित परस्पर फँसे हुए हैं।
यह कोई कपोल कल्पित कथा नहीं अपितु आँखों देखी एक स्थिति है।
देश में भी यही चल रहा था। समस्याओं को पाला जाता था, पोसा जाता था। निर्णय लंबित किए जाते थे जिससे परस्पर हित साधे जाते रह सकें। ऐसे में कोई नेतृत्व ऐसा मिला जो निर्णय लेने का साहस दिखाए तो कष्ट उभरने लगते हैं।
एक रैंक एक पेंशन, आधार मैपिंग, नोटबन्दी, जीएसटी, तीन तलाक पर रोक, ३७० हटाना, जन्मभूमि पर निर्णय के लिए अनुकूल वातावरण बनाना, नागरिकता संशोधन बिल आदि आदि - इन सब पर बुद्धिजीवी एक बात अवश्य कहते हैं कि मोदी ने जल्दबाजी की है, सम्बन्धित पक्षों को विश्वास में नहीं लिया। तुमने विश्वास में ले लिया था तभी सम्भवतः गरीबी भगा दी, अशिक्षा भगा दी, आतंकवाद समाप्त कर दिया था। है न?
(अभक्त)लोग कहेंगे - आप भी!:)
जवाब देंहटाएंजी सर, कहेंगे तो सुनेंगे ,,😊
हटाएंघोर साम्प्रदायिक सोचता था मैं, घनघोर निकले आप तो!
जवाब देंहटाएं😊
जवाब देंहटाएंsahi baat.....
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