बुधवार, सितंबर 19, 2012

मुरारी लाल ...?

कश्मीरी गेट स्टेशन पर हमेशा की तरह भीड़ थी| इंटरचेंजिंग  स्टेशन होने के नाते पीक ऑवर्स में भीड़ का न होना अस्वाभाविक लगता है, भीड़-भाड़ देखकर  ही  नार्मल्सी का अहसास होता है| बहुधा अपना नंबर दूसरी ट्रेन में ही आता है, यानी कि हमारे लाईन में लगने के बाद आने वाली दूसरी मेट्रो में| धक्का मुक्की करने की आदत कभी रही नहीं और वैसे भी 'लीक छोड़ तीनों चलें' में से अपन वन-टू-थ्री कुछ भी नहीं| कैस्ट्रोल की विज्ञापन फिल्म अपने को आईडियल लगती  है, चाहे पाखाने की लाईन में लगे हों,  कोई ज्यादा जल्दी वाला आ जाए तो उसे   'पहले आप' कह ही देते हैं| अपना नंबर आते आते पहली मेट्रो भर चुकी होती है, कुछ देर के लिए नंबर वन का अहसास हम भी ले लेते हैं| हमेशा की तरह दूसरी मेट्रो आई तो अपन लाईन में सबसे आगे थे|  फिर  भी   गेट  खुलते खुलते चढ़ने वाले कई वीर बहादुर लोग अपने से पहले ही आरोहण कर चुके थे| जल्दी वाले भागकर सीट पर कब्जा करते हैं, अपन एंट्री मारकर अपना कोना पकड़ लेते हैं| लॉजिक ये है कि उधर वाला दरवाजा केन्द्रीय सचिवालय स्टेशन पर ही खुलता है तो उतरने में  ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती|

गेट के एक कोने पर राड पकड़कर  मैं खडा था और उसी गेट के दूसरे किनारे पर नजर गई तो अपने से एक दो इंच ऊंचा एक छः  फुटा जवान बन्दा भी बिलकुल उसी मुद्रा में अपने हिस्से की राड पकडे खडा था|  संयोग से हमारे बीच जो  चार पांच लोग खड़े थे, सब औसत या फिर औसत से कम कद के थे| खाली दिमाग तो आप सब जानते ही हैं, शैतान का घर होता है| अमर चित्रकथा में कभी देखा भगवान के द्वारपाल जय-विजय का चित्र ध्यान आ गया|  दोनों ऐसे खड़े थे जैसे सच में किसी राजमहल के द्वारपाल हों|  दिमागी खुराफात बढ़ने लगी, मैं अपने सह द्वारपाल के चेहरे का जायजा लेने लगा| कद में तो मुझसे ऊंचा था ही, सेहत में भी मुझसे इक्कीस| उम्र मुझसे चार पांच साल कम रही होगी, कसरती बदन, टीशर्ट में एकदम किसी हीरो के माफिक लग रहा था|  सुदर्शन व्यक्तित्व बार बार ध्यान खींच रहा था और मैं द्वारपालों वाली कल्पना से भी अब तक छुटकारा नहीं पा पाया  था|  

बन्दे ने बहुत करीने से मूंछें बढ़ा रखी थी, अभी तक हमारी तरह सफेदी झलकनी शुरू हुई नहीं थी| मूंछों के भी तो  कितने स्टाईल हैं आजकल| इस बन्दे ने मूछों को नीचे की तरफ विस्तार दे रखा था, एकदम होंठों से नीचे तक जा रही थीं| एक हमारी मूंछ है, दो महीने में सिर्फ एक बार सही सेट होती है जब सैलून  में हजामत-शेव  बनवाते हैं वरना तो कभी ऊंची-नीची और कभी एकदम से बेतरतीब| मेट्रो चल रही थी, साथ साथ मेरे विचार भी| बार बार उसकी तरफ देखता था और ये  पाया कि वो भी शायद कुछ समझ रहा है क्योंकि जब भी देखा, उसे भी इधर ही देखते पाया| फिर मैं दूसरी तरफ देखकर सोचने लगा कि  टाईम बहुत बदल गया है, ऐसा न हो कि वो कुछ उल्टा सीधा समझ ले| बहुत हो गयी कल्पना, कहीं अगले बन्दे ने मुझे  दोस्ताना टाईप वाला  समझ लिया तो जवाब देते न बनेगा| इससे अच्छा तो चंचल को थोड़ा मोडीफाई  करके याद कर लेते हैं -  मैं नहीं देखना, मैं नहीं देखना| 

मन ने कहा, देखना नहीं है तो सोचने में क्या हर्जा है? सोच तो सकते ही हैं| बन्दे ने मूंछें ऐसी क्यों रखी होंगी? इन्हें थोड़ा ऊपर की तरफ उमेठ लेता तो एकदम 'मेरा गाँव मेरा देश' वाले  विनोद खन्ना जैसा लगता|  धीरे से नजर उठाकर देखा तो जाए कि अगर मूछें ऊपर की तरफ हों तो कैसा लगे?  येस्स, परफेक्ट एकदम विनोद खन्ना| लेकिन यार, अब तुम क्यों इधर देख रहे हो? भाई मेरे, मेरी नीयत बिलकुल ठीक  है| ले यार, मैं ही फिर से नजर दूसरी तरफ कर लेता हूँ| बड़ा खराब टाईम आ गया है| 

अच्छा ये जो पुलिस कई बार पोस्टर चिपका देती है कि अपने आसपास देखिये, कहीं कोई आतंकवादी तो नहीं? अलग अलग भेष में एक ही चेहरे, इतना फर्क पड़ जाता है दाढी मूंछों को इधर उधर या ऊपर नीचे करने से? इसी बन्दे ने अगर दाढी भी बढ़ा रखी होती तो कैसा लगता? देखूं  ज़रा| हाँ, सच में चेहरा मोहरा बदल तो जाता है| अबे यार, दो मिनट उधर  नहीं देखता रह सकता क्या? चल मान ले कि बार बार मैं देख ही रहा हूँ तुम्हें तो कुछ ले लिया क्या? बाईगोड लोग बहुत असहिष्णु हो गए हैं, आदमी भी सेल्फ कान्शियस होने लगे हैं | जा यार, अब सच में नहीं झांकना तेरी तरफ| होगा मिस्टर इंडिया, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| 

ये मेट्रो  वाले भी जान बूझकर ऐसी अनाऊँसमेंट  लगाते हैं, 'माइंड द गैप'| अबे सालों,  गैप में माइंड लगा दिया तो बाकी कामों में तुम्हारे फूफाजी आयेंगे माईंड लगाने? गाडी में चार डिब्बे फालतू लगा नहीं सकते, चले हैं हमें सिखाने| खुद को कुछ आता जाता नहीं है पैसा कमाने के सिवा और बात करते हैं| नहीं देखना यार तेरी तरफ अब, वैसे भी हमारा स्टेशन आने वाला है| फिर से  वही धक्कापरेड करनी है, एक और मेट्रो|  घर से दफ्तर तक सीधी एक मेट्रो होती तो मजा आ जाता| एक जगह से बनकर चलती और दूसरी जगह टर्मीनेट होती चाहे डिसमिस होती| ठाठ से हम भी  सीट पर बैठकर आते, न गेट पर खडा होना पड़ता और न ऐसे  द्वारपाल बनना पड़ता|

एक बात तो है, बन्दे की पर्सनेल्टी है जबरदस्त| मूंछे नीची रखने का मतलब है कि समझदार भी है| कुछ समय पहले तक घर में घुसते समय लोग मूंछें नीची कर लेते थे, आजकल बाहर भी नीची रखने में ही समझदारी है| या तो रखो ही नहीं, या फिर इसकी तरह रखो| वापिसी में कहीं नीची करनी भूल गए तो पता चला कि लेने के देने पड़ गए|  खैर, जो भी हो, हमारा बन्दा है एकदम मॉडल या हीरो के जैसा| लगता है ये  भी इसी स्टेशन पर उतरेगा| एक काम करता हूँ, उतरकर इसको बता देता हूँ कि मैं बार बार इसलिय देख रहा था कि अगर  मूछें ऊपर की तरफ उठाकर रखे तो इसकी शक्ल और पर्सनैल्टी एकदम विनोद खन्ना से मिलती है और अब भी  ट्राई  करे तो किसी फिल्म या सीरियल में हीरो का रोल मिल सकता है|   हो सकता है इसके मन में कोई मेरे बारे में कोई गलतफहमी आ रही हो, दूर हो जायेगी| जितनी  बार मैंने उसकी तरफ देखा, वो भी  बार बार मेरी तरफ देखता था| वैसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन गलतफहमी ख़त्म ही हो जाए तो अच्छा है|

'अगला स्टेशन केन्द्रीय सचिवालय है| यहाँ से वायलेट लाईन के लिए बदलें|'  क्यों भाई, कोई जबरदस्ती है? हमें सूट  न करती होती तो बिलकुल न बदलते| कभी वायलेट लाईन के लिए बदलो, कभी पीली रेखा से पीछे रहें|    ***या समझा है हमें?  पीली रेखा को समझा ले  न  कि आगे रहे हमसे, सारे उपदेश हमारे लिए ही हैं| एक दिन  तुम्हारी भी क्लास लेनी है| हिन्दी अंगरेजी की ऐसी तैसी करके रख दी है तुमने| 

' हाँजी सर, धक्का मत दो| उतरना है यहीं पर,  वरना मुझे शौक थोड़े ही है दरबानी करने का जो  पंद्रह मिनट से गेटकीपर बनके खडा हूँ|  ओ पहलवान, उतरने देगा हमें, तभी तो चढ़ पायेगा| ऐसे जोर लगाने से कोई फायदा नहीं| पता नहीं कब कामनसेंस आयेगी लोगों को| घर से पता  नहीं  क्या खाकर आते हैं, चढ़ना है तब धक्के मारेंगे और उतरना है तब धक्का मारेंगे| अभी यमदूत आ जाएँ न तो फिर बैकसाईड  से  धक्के लगाने लगोगे, न जी हमें नहीं जाना, हमें जल्दी नहीं है| जाहिल लोग कहीं के|'

उतरकर बैग,पाकेट रोज  चैक करने पड़ते हैं जी, पता चले कि इतनी भीड़ में मोबाईल या वैलेट निकाल लिया किसी हाथ के जादूगर ने| जेबकतरे भी हाई प्रोफाईल हो गए हैं आजकल, मेट्रो में सफ़र करते हैं| हाँ, सब ठीक है| अरे वो कहाँ गया मेरा यार विनोद खन्ना, जालिम सफाई तो देने देता| अब यहाँ तो छह फुटे और पांच फुटे  सब बराबर हैं, सामने अपनी मेट्रो खड़ी  है, उसे देखूं या अपने उस हमसफ़र को? मिल जाता तो उसे बता देता कि क्यों बार बार उसे देख रहा था| वो पता नहीं क्या क्या समझ रहा होगा क्योंकि वो भी बार बार घूर रहा था, समझ नहीं आया|  ये भीड़ भी न एकदम निकम्मी  है, खो गया न बन्दा| चलो यार संजय कुमार, जाने दो उसे,  गलत समझेगा तो हमारा क्या लेगा? वो भी तो घूर रहा था| 

'क़ुतुब मीनार को जाने वाली मेट्रो....'      मैं अभी उसी प्लेटफार्म पर ही था, चलने को हुआ कि  कंधे पर हाथ रखकर किसी ने मेरा ध्यान खींचा, देखा तो थोड़ा हटकर वही खड़ा था| 

मुझसे कहने लगा, 'बॉस, एक बात बोलूँ?'   

बोलने की तो मैं सोच रहा था, समझ गया कि उसे एक आदमी द्वारा बार  घूरना और बार बार देखना खला होगा| तुम बोल लो यार, मैं फिर अपना पक्ष रख लूंगा| 'हाँ भाई, बोलो?' मेरे मुंह से फिलहाल इतना ही निकला|

'आप अगर अपनी मूंछ  को थोड़ा सा ..'  मेट्रो के गेट खुल चुके थे और उतरने वाली भीड़ धक्के मारती हुई हम दोनों को अलग अलग दिशा में ले गयी| जाहिल लोगों ने पूरी बात भी नहीं सुनने दी और न मुझे कुछ कहने दिया|  समझ नहीं पाया कि क्या कहना चाह  रहा था वो...|
                                                                     

रविवार, सितंबर 09, 2012

होता है. होता है...

ट्रेन में डेली पैसेंजरी का जिक्र कई बार कर चुका हूँ, ऐसे ही एक सफ़र की बात है - कोई त्यौहार का दिन था| उस दिन सभी स्कूल, सभी कार्यालय बंद थे लेकिन बैंक खुले थे| लौटते में हमारे ग्रुप में सिर्फ दो मेंबर थे, एक मैं और एक शेर सिंह जी|  एक सहकारी बैंक में मुलाजिम थे और रिटायरमेंट के नजदीक थे, प्यार-दुलार में सब उन्हें 'बड़े मियाँ' बुलाते थे|  हम तो हैं बगुला भगत टाईप के, आसपास कुछ न हो तो आँख बंद करके भगतई का ड्रामा कर लेते हैं जो आगे पीछे काम आ जाता है लेकिन 'बड़े मियाँ'  बिना ताश खेले  जल बिन मछला  हुआ जाते  थे| कोच में बैठे एक एक  बन्दे  से पूछते थे 'सीप खेलनी आती है?' एक पार्टनर मिल गया, एक और की दरकार थी| अगला स्टेशन आया, फिर वही  कवायद    हुई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ| 

इसी तरह दो तीन स्टेशन गुजर गए आखिरकार उनकी तलाश पूरी हुई  और बाजी जम गई|  ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही  थी, इतनी तो  वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने  पर  गठबंधन सरकार के मुख्य  घटक दल को भी शायद न मिलती हो| 

बार बार मुझसे कहते थे, 'देखा,  कोशिश की तो मिल गया न खिलाड़ी? नहीं तो सारा रास्ता बोर होते जाते|'  
मैंने कहा, 'ये  तो है| वैसे आधा रास्ता तो कट ही गया था, बाकी आधा भी कट ही जाता|' 
बड़े मियाँ ने अकर्मण्य, सुस्त, कामचोर, निरुत्साही, जाहिल  आदि आदि ढेरों सर्टिफिकेट जारी कर दिए| बहुत प्यार करते थे न हमसे| 


खैर, पत्ते बाँट दिए गए और खेल शुरू हो गया और जिसको वो इतनी शिद्दत से ढूंढकर लाये थे, उस भले आदमी ने इतनी देर में  पत्ते पलट कर रख दिए, "मेरा तो स्टेशन आ गया जी, मैं तो अब उतरूंगा|" 

बड़े मियाँ के चेहरे की ट्यूबलाईट बुझ गयी, पोपले मुंह से अपनी जनाना सी आवाज में बोले, 'धत मेरे यार, अभी तो खेल का मजा आना शुरू हुआ था और तू उतर भी रहा है|'  आसपास जितने बैठे थे और उनकी व्यग्रता का आनंद ले रहे थे, खूब हँसे| 

जुलाई २०११ के लास्ट में पंजाब से ट्रांसफर होकर आया था| एकदम नया माहौल, नयी तरह के ग्राहक, यूं कहिये सब कुछ एकदम नया नया सा, अपरिचित सा था| हमें तो आदत थी गाँव-कस्बों की ब्रांचों की, यहाँ पर आकर  हर चीज को या तो टुकुर टुकुर देखते रहता  था या फिर वही आँख बंद कर लेते थे| अब जाकर धीरे धीरे कुछ पंजे जमने शुरू हुए थे कि अचानक बड़े मियाँ वाला किस्सा याद आ गया, याद दिला दिया गया|  To Cut A Long Story Short , हिस्टरी ने फिर से खुद को रिपीटा|

सफ़र बढ़ गया है जी, दो घंटा रोज| हो सकता है पोस्ट लिखने  की और टिप्पणियों की नियमितता कुछ  प्रभावित हो लेकिन अभी पीछा नहीं छूटेगा आपका,  क्योंकि 'यही कहेंगे हम सदा कि  दिल अभी भरा नहीं|'| 

हाजिर होते रहेंगे नए पुराने किस्सों के साथ, तब तक जय राम जी की|

गुरुवार, अगस्त 23, 2012

विचार-विमर्श


                                                                          
                                                              (चित्र गूगल से साभार)

अचानक ही अमृतसर जाने का प्रोग्राम बन गया था, रिज़र्वेशन  करवाने   का समय  भी  नहीं था और तब ओनलाईन रिज़र्वेशन होते भी नहीं थे| यानी कि  यानी कि  समझ गए न?   फिर वही  कोई पुरानी बात!!   

1991, बैंक का इंटरव्यू दिया ही था,  उसके फ़ौरन बाद की बात है| अमेरिका ने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि ये संजय कुमार बेरोजगार रह जाए वरना क्या जरूरी था उसे हमारे इंटरव्यू से एक दिन पहले ही ईराक पर हमला करने की? एक तो वैसे ही बंधी बंधाई पढाई  करने में हमारा दिमाग दिक्कत मानता था, फिर जो तैयारी की थी तो उस हमले के बाद एक बार तो लगा कि गया भैसा पानी में, बस तबसे ही हमें अमेरिका नापसंद हो गया| आप भी कहोगे  अजीब आदमी है ये, अमृतसर जाने की बात करके ईराक और अमेरिका की सुना रहा है  लेकिन मित्रों बैकग्राऊंड मजबूत हो तो अच्छा रहता है|  

Anyway, let us come to the point,  बिना आरक्षण के जाना पड़ रहा था, गनीमत ये थी कि साथ में कोई औरत या बुजुर्ग नहीं थे| एक मैं और एक मेरा प्यारा सा हमउम्र सा चाचाजानी|  सुबह सुबह   घर से परौंठे खाके और लस्सी पीके नई दिल्ली से शान-ए-पंजाब पकड़ने चल दिए| वो हमें और हम उन्हें दिलासा दे रहे थे कि दो जनों को एक भी सीट मिल गई तो कल्लेंगे  फिफ्टी -फिफ्टी| पहुंचे तो देखा कि खूब भीड़ थी, सीट का नो-चांस| अब दिलासे का प्रकार बदल गया, कोई बात नहीं यार जवान बन्दे हैगे, रास्ते में सीट मिल गई तो ठीक न मिली तो भी ठीक| बैठने की जगह तो दूर थी, खड़े होने की जगह के भी लाले पड़ गए| जगह मिली कोच के गेट के पास| 

गाडी चल दी तो धीरे धीरे सब सामान्य सा होने लगा|  समय बिताने का सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ शगल ये है कि किसी भी और हर किसी मुद्दे पर बहस छेड़ दी जाए, वही हुआ| तुसी कित्थे जाना है? से शुरू होकर  गाड़ियों में बढ़ती भीड़ से  होकर बात वहीं आ पहुँची जहां उसे आना था, यानी ईराक पर अमेरिका का हमला| सारी सवारियां दो हिस्सों में बाँट गयी और शुरू हो गए दुनिया के मसले सुलझाने| हर जगह की तरह वहां भी दो गुट बन  गए अमेरिका समर्थक और ईराक समर्थक|  पानीपत आते आते मुद्दा व्यक्तिगत हो गया, बुश Vs सद्दाम|  अम्बाला तक आते आते रह गया सद्दाम हुसैन,  हममें से आधे वार्ताकार सद्दाम हुसैन की तारीफ़ कर रहे थे और आधे  उसका विरोध| सब  पूरी सक्रियता से अपने अपने तर्क पेश कर रहे थे, वहीं भीड़ में खड़े थे एक सरदारजी| छः फुटा कद, पर्सनल्टी नहीं पूरा पर्सनैलटा  था उनका| रात में शायद नींद पूरी नहीं हुई थी, सो खड़े खड़े ही श्रीमानजी अपनी नींद पूरी कर रहे थे| जब गाडी को कभी जोर से झटका लगे तब या जब इधर बहस गरम हो जाती थी तब, धीरे से आँख खोलते और जायजा लेकर धीरे से वाहेगुरू वाहेगुरू बुदबुदाते और फिर से आँखें बंद| 

बहसते बहसते लुधियाना और जालंधर भी पीछे छोड़ दिए, जैसे मोमबत्ती बुझने से पहले जोर से भभकती है हम लोगों की बहस भी जोरों से भड़क गयी|   गाडी अमृतसर के आऊटर सिग्नल पर पहुंचकर झटके से रुक गयी| सरदारजी की आँख खुली, बाहर झांककर देखा और अबकी बार  उन्होंने  आँखें दोबारा बंद नहीं  की | बहस की तरफ ध्यान देने लगे, हम लोगों को भी जैसे एक निष्पक्ष निर्णायक की प्रतीक्षा थी, असली बात ये थी कि स्टेशन पास आ चुका था|  

एक बोला, 'सद्दाम की हिम्मत तो माननी पड़ेगी कि ये जानते हुए भी कि अमेरिका से जीत नहीं सकता, उसने हार नहीं मानी|'  
दूसरी पार्टी में से एक प्रखर वक्ता बोला, 'यही बात है तो सद्दाम की क्या हिम्मत है? हिम्मत तो उसके सिपाहियों की है जो मैदान में लड़ रहे थे|'  इस पार्टी वाले  निरुत्तर, एकदम से इस तर्क का जवाब नहीं सूझा| 
अपने सरदार जी बोले, 'वीरे, तेरी गल्ल सई  है लेकिन इसी गल्ल नूं  अग्गे वधाईये ते असली हिम्मत तां बम्बां दी हैगी जेड़े लड़ाई दे मैदान विच फट रये सी|(भाई, तेरी बात सही है लेकिन तेरी सही बात को ही आगे बढायें तो असली हिम्मत तो बमों की है जो मैदान में फट रहे थे)| चलो भाई, आ गयी गुरू  दी   नगरी, जो बोले सो निहाल,  सत श्री अकाल| ' तर्क में तुक  थी या नहीं थी, लेकिन तेली के सर में कोल्हू वाली बात करके सरदारजी ने हम  सबको अमृतसर पहुंचा दिया|  

थ्योरी में तो  हमारे पिताजी भी कई बार समझा चुके कि बेटा बहस में कोई न कोई जीतेगा ही, ये जरूरी नहीं लेकिन कोई न कोई हारता जरूर है और कभी कभी दोनों भी हार जाते हैं|  कभी हमें भी बहुत शौक चढ़ा था अपना ज्ञान झाड़ने का फिर अपने साथ एक दो वाकये ऐसे हुए कि हम बहस करना भूल गए| समझ गए कि हम बहस करने के लिए नहीं बने, ईश्वर सबको सब गुण नहीं देता| इसका ये मतलब भी नहीं कि बहस विमर्श करते लोगों को  किसी तरह से कमतर समझ   
लिया जाए, इन लोगों में बदलाव की इच्छा तो है| कम से कम इन्होने दुष्यंत जी को पढ़ा तो है 'आग जला तो रखी है' that is great. 


साड्डी दिल्ली के उस्ताद ज़ौक साहब के कलाम की पंक्ति अपने को बहुत पसंद है -
अए ज़ौक  किसको चश्म-ए-हिकारत से देखिये,
सब हमसे हैं ज़ियादा,   कोई हमसे कम नहीं|

विमर्श देखने पढने का आनंद मैं भी भरपूर लेता हूँ|   ब्लॉग पर भी जरूरी-जरूरी बहसें चलती रहती हैं| एक सुझाव या अनुरोध करना चाहता हूँ कि बहस के समापन पर निष्कर्ष  क्या निकला, ये जानकारी जरूर दी जाए|

रविवार, अगस्त 19, 2012

किस्सा\किस्से

ऑफिस से स्वतंत्रता दिवस के बाद दो दिन का अवकाश ले रखा था, कुछ जरूरी काम थे|  ये ऐंवे ही  आपको बता रहा हूँ, कहीं इसे प्रार्थी का निवेदन   न समझ लीजियेगा :-)          हुआ ये कि गैस एजेंसी का एक स्टाफ कुछ दिन पहले  KYC compliance    (Know Your Customer कम्प्लायेंस )  का  एक  फ़ार्म दे गया था मय एक मीठी  सी  चेतावनी,  कि इसके  जमा न करने पर कंपनी की तरफ से गैस सप्लाई बंद करने के आदेश हैं| अब हम ठहरे महासुस्त आदमी, ये सोचा कि अगली सप्लाई न देंगे इस डर से अपनी  इस मानव  देह जिसे पाने के लिय देवता भी वोटिंग लिस्ट में रहते हैं, को क्यों परेशान किया जाए?  जो सिलेंडर इस्तेमाल में है, उसे थोड़े ही न उखाड कर ले जायेंगे कंपनी वाले? तो उस फ़ार्म को  'रेफर टू  ड्राअर' करके सुस्ताते रहे|  यूं भी बैंकर होने के नाते KYC अपनी जानी पहचानी चीज थी  और जानियों पह्चानियों चीजों  को हम हल्के-फुल्के तरीके से नहीं लेते, हैंडल विद केयर करने की कोशिश करते हैं|    इस तरह के दो तीन काम इकट्ठे हो गए तो फिर पाला बदलकर सोचने लगे कि कंपनी ने सचमुच सप्लाई रोक दी तो रोटी के लाले इस मानव देह को ही पड़ने हैं, देवताओं का कुछ आना जाना नहीं है| हमने अवकाश लेकर गैस एजेंसी जाने का निर्णय कर  लिया|

कागज़ पत्तर इकट्ठे करके जब जाने लगा तो देखा माताश्री अन्य सब्जियों  के साथ साथ करेलों का भी  कलेजा काटने को तत्पर हैं| अब करेला उन चुनिन्दा कड़वी चीजों में से एक हैं, जिन्हें देखकर हमारे मुंह में पानी  आ जाता है और मेरे घर में सिर्फ मैं ही हूँ जो करेला बड़े शौक से खाता हूँ|  समझ गया कि हमारी छुट्टी को स्पेशल बनाने का यह  माताश्री की तरफ से प्रयास है| कहने लगीं, "देख ज़रा, कितना वजन होगा इनका अंदाजे से?"   मैंने पूछा, " क्या हुआ?"   कहने लगीं, "दस रुपये के ढाई सौ ग्राम  बता रहा था, लेकिन वजन कम लग रहा है| उस समय तो सारी सब्जियां  उसने एक ही थैली में डाल दीं,  ये ढाई सौ  ग्राम तो नहीं लगते|" अपन तो फुर्सत में थे ही, दुकान से वजन करवाया, निकले 180 ग्राम| माताजी सब्जीवाले को लक्ष्य करके बार बार यही कह रही हैं, "पन्द्रह रुपये के ढाई सौ ग्राम देता, लेकिन तौल तो सही रखना चाहिए था|" सब्जीवाला तो कब का जा चुका था, मैं सुन रहा था बल्कि मैं भी कहाँ सुन रहा था? मैं तो हिसाब लगा रहा था -
a. 28% की हेराफेरी 
b. वजन के हिसाब से देखें तो सिर्फ 70 ग्राम की ठगी
c. रुपयों में गिने तो कुल दो रुपये अस्सी पैसे की हेराफेरी
d. करने वाला गरीब आदमी 
e. हम ही कौन सा बहुत ईमानदार हैं. 

कौन सा विकल्प सबसे सही है
a/b/c/d/e/none of these/all of these ?

गैस एजेंसी पहुंचा और काऊंटर पर फ़ार्म जमा कर रहा था कि ग्राहकों की भीड़ को जल्दी निबटाने के लिए वहाँ के मैनेजर\मालिक काऊंटर पर आये और कुछ कस्टमर्स को अपने साथ ले गए|  उन्होंने KYC वाला  फ़ार्म ले लिया तो मैंने उनसे कहा कि मैंने नैट पर चैक किया है कि मेरे नाम पर DBC कनेक्शन जारी दिखाया जा रहा है|  मैं आपकी एजेंसी की तत्परता, ग्राहक सेवा वगैरह का शुक्रगुजार होना चाहता हूँ, आजतक से भी तेज, सबसे तेज| मेरे मन में अभी ये DBC वाला विचार आया ही था और आपने उसे  इम्प्लीमेंट   भी कर दिया, 'वाह  ताज|' बस मुझे वो कागज़ देखने हैं कि कब मुझे DBC अलोट हुई थी?"   शुरू में तो मालिक साहब ने इसका श्रेय मुझे ही दिया कि मैंने अप्लाई किया होगा और सिलेंडर लिया होगा, तभी रिकार्ड DBC दिखा रहा है  या फिर ये कि आपका एकाऊंट तो कहीं और से ट्रांसफर होकर आया होगा, वगैरह वगैरह वरना उनके एजेंसी इतने भी तेज नहीं है| लेकिन फिर धीरे धीरे धरती पर लैंड कर गए कि भाई साहब, आज  शुक्रवार है और अलविदा की  नमाज है| माहौल थोड़ा ठीक नहीं है, इसीलिये मैं आधे कस्टमर्स को खुद अटेंड कर रहा हूँ| मुझे थोड़ा सा वक्त दीजिए,  हम फिर किसी दिन  बैठकर बात कर लेंगे|" जिस दिन जाऊंगा, यकीन है कि बात हो जायेगी और मुझे सिलेंडर मिल जाएगा| लेकिन  मेरे साथ या औरों के साथ जो हो चुका या होता रहता ........................ विकल्प दूं फिर से ?

अभी आज की ही बात है, बाईक में पेट्रोल डलवाना था| एक पम्प पर दो अटेंडेंट आपस में बातों में मस्त थे लेकिन इशारा करके मुझे बुला लिया| दो सौ रुपये का पेट्रोल डलवाना था, मेरे बताने के बाद उन्होंने टंकी में पाईप रख दिया और फिर मीटर में अमाऊंट सेट करने लगा,  बल्कि  ज्यादा देर लगाकर और  ख्वामख्वाह की झल्लाहट दिखाते हुए अपसेट करने लगा|   अब बातों में मुझे भी शामिल करने लगे, 'सर ये दस दस के नोट दीजियेगा न, हमारे काम आ जायेंगे|'  बिना मतलब की बेसिरपैर की बातें,  और उसके बाद उनमें से पहला  दूसरे से पूछने लगा, 'मशीन कितने पर रुकी थी, पचास पर?'  दूसरे  ने हामी भरी, 'हाँ, पचास पर रुक गई थी|  अब डेढ़ सौ का और डाल  दे|'  पचास रुपये का चूना?  माँगा था पेट्रोल, लगाते  चूना:)   लेकिन बंदे थे बड़े शरीफ cum ईमानदार,  जल्दी ही पटरी पर आ गए|  पहली ही घुडकी के बाद  हामी भरने वाला प्रश्वाचक मुद्रा में आ गया, 'अच्छा, मशीन चली ही नहीं थी?'  पूछने वाला डांटक मुद्रा में आ गया उस पर, 'तूने अच्छे से  देखा नहीं था फिर बोलता क्यूं है?'   कल्लो बात, हमने तो जैसे  ऐसी नूरा कुश्ती कभी देखी ही न  हो|  हाँ तो, दो सौ रुपये में से पचास रुपये का कितना प्रतिशत बैठा जी?   विकल्प..........

कुछ साल पहले एक परिचित के यहाँ कुछ पार्टी शार्टी थी| मित्र का एक रिश्तेदार भी आया हुआ था, किसी सरकारी पशु चिकित्सालय में कार्यरत था| उसी की ज़ुबानी उसका किस्सा सुन लीजिए, "नौकरी करते हुए साल भर ही हुआ था कि मैं भयंकर रूप से  बीमार हो गया| दो महीने तक ड्यूटी पर नहीं जा सका| फिर एक दिन थोड़ी तबियत ठीक थी तो चला गया|  स्टाफ के सब लोगों से मिला, उन्होंने अलमारी में से वेतन  रजिस्टर निकाला, रसीदी टिकट पर मेरे साइन करवाए और मुझे पैसे पकड़ा दिए| जब मैंने पूछा कि ये क्या है, कितने हैं तो बताया गया कि दो महीने की तनख्वाह है| मैं अकड़ गया कि ये तो मेरी तनख्वाह है ही, मेरा हिस्सा किधर है?  हिस्सा देने पर  स्टाफ के लोग  नहीं  मान रहे थे तो  मैंने कहा कि ठीक है फिर,  कल से मैं रोज आऊँगा|   सबको सांप सूंघ गया हो जैसे, आपस में सलाह मशविरा करके मुझे हजार रुपये और दिए और समझाने लगे कि मैं अपनी तबियत का ध्यान रखूँ, सरकारी काम तो यूं  ही चलते रहेंगे| तब से मैंने अपनी तबीयत का ध्यान रखना शुरू कर दिया, महीने बाद जाता  हूँ, तनख्वाह और पांच सौ रुपये लेकर उसी में से दो-तीन  सौ रुपये की उनकी पार्टी कर देता हूँ, वो  भी खुश और मेरा भी काम चल रहा है| महीने में एकाध कोई प्रोपर्टी का सौदा करवा देते हैं  और यूं ही बस गुजारा चल रहा है|

पहले तीन वाकये पिछले तीन दिन के हैं वो भी खुद के साथ घटित, औसतन एक दिन में एक किस्सा| इसका एक मतलब ये भी निकलता है कि क्या  this international phenomenon i.e. corruption समाज की रग-रग में इस तरह पैबस्त हो चुका है कि अब ये सब खलता नहीं है?  सबके पास अपने तर्क हैं, कोई गरीबी ज्यादा बताता है तो कोई महंगाई ज्यादा बताता है|  मेरा मुंह तो पेट्रोल पम्प वाले ने सिर्फ एक बात से बंद कर दिया, 'सरजी, हमें पचास रुपये की गलती पर आप गाली निकाल दोगे लेकिन वो कोयले वाला घोटाला हुआ है उसमें जीरो कितनी लगेंगे, ये बताओ तब जानें आपको|'  जा यार, मुझे तो कसम से एक लाख की जीरो  नहीं  मालूम  और तू पूछ रहा है 1.86 लाख करोड़ की जीरो का? not my rake of coal :)

जुटे रहो भाई आम-ओ-खास बन्दों, बेडा डुबोने में  अपना अपना योगदान देते रहो|  बेस्ट ऑफ लक|