मंगलवार, जून 29, 2010

good night till morning - पार्टी जो पूरी न हो सकी......

बड़ा लुत्फ़ था जब छड़े-छाकड़ थे हम। याराने निभाने में भी साला मज़ा बहुत आता था। और हम तो ऐसे किस्मत वाले थे कि ब्याह के डेढ़ साल बाद तक छड़े ही रहे। गलत मत समझना यारो, दो टकेयां दी नौकरी के कारण संडे वाले गृहस्थ थे और बाकी सप्ताह में छड़ा पार्टी के मेंबर।
मेरे घर पहले बेटे  का जन्म हुआ था, संयोग से मैं उन दिनों छुट्टी पर घर आया हुआ था।  जब वापिस पोस्टिंग वाले शहर पहुंचा, तो यार लोग पीछे पड़ गए कि पार्टी लेनी है। अब देने वाली चीज़ों से हम शुरू से ही  कभी भी इंकार नहीं कर सके(अब बदल चुके हैं), चाहे दिल देना हो,  दर्द देना हो,  प्यार देना हो या पार्टी देनी हो।  समस्या उठी मैन्यू  पर, हम ठहरे घासफ़ूस के भक्षक और याराने सब तरह के लोगों के साथ।  भाई लोग अड़ गये कि नॉन-वेज भी चलेगा और दारू भी। अड़ने में हम ही कहां पीछे रहने वाले थे, ये दोनों नहीं चलेंगे, हां पार्टी बेशक महंगे से महंगे होटल में ले लो।
अब भारत-पाकिस्तान की तरह दोनों पक्ष जब आमने-सामने डट गये तो रूस-अमेरिका की तरह के बड़े ठेकेदारों की तो चांदी होनी ही थी। ताशकंद समझौते की पुनरावृत्ति करते हुये कुछ मांगें उनकी मानी गईं, कुछ हमारी मानी गईं और रूस-अमेरिका फ़ोकट में हमारे मेहमान बने। तय हुआ कि दारू चलेगी, नॉन-वेज नहीं चलेगा। कुल मिलाकर दस लोगों को शार्टलिस्ट किया गया। दारू का कार्यक्रम घर पर और खाना बाहर होटल में होना निश्चित हुआ| अब हमने अपने पांच पांडव तैयार किये(खुद समेत), जो खुद न पीकर बाकी पांच पियेलों को ऐसे ही घेर कर रखेंगे जैसे फ़ुटबाल मैचों में रोनाल्डो, काका, चाचा वगैरह   को विरोधी टीम के खिलाड़ी, ताकि गोल न कर दें। सब कार्यक्र्म बढि़या से निबट गया।  पीने के साथ गाना बजाना भी हुआ।  रात ग्यारह बजे घर से निकलकर होटल पहुंचे, खाना वगैरह खाते साढे बारह बज गये।
अब प्रोग्राम ये बना कि जो पिये हुये हैं, उन्हें अपने अपने कमरे में पहुंचाकर जो शरीफ़ पार्टी है, वो सबसे बाद में अपने घर जायेगी। ये लाभ होता है शराफ़त का, पल्ले से खर्चा करो, बिगड़ों को संभालो, घर तक छोड़कर आओ और सबसे बाद में थक हारकर घर पहुंचो। पहले को उसके रूम में छोड़ा। दूसरा और तीसरा रूम पार्टनर थे, कुछ राहत मिली। चौथे को भी उसके कमरे में लैंड करके हम छ: चल पड़े। अब शराबी बचा एक, सुरेश  और शबाबी रह गये पांच। हंसी मजाक करते हुये उसकी गली के मोड़ तक पहुंचे और उसने सबसे गले मिलकर विदा ली, कि आप लोग जाईये और मैं अपने रूम में चला जाऊंगा, पास ही तो है। जवान लड़का था, हमने भी  कहा कि ठीक है और पांच छ बार गुड नाईट कह कर वो अपनी गली में मुड़ गया।  मेरे से उम्र में एकाध साल बड़ा और   नौकरी में दो साल जूनियर था लेकिन इज्जत बहुत करता था मेरी(यकीन नहीं होता न?)। हमेशा भैया कहकर बुलाता था। मैं बहुत मना करता लेकिन मानता ही नहीं था, हमेशा भैया जी, भैया जी।  वो तो उस दिन पीने के बाद बताया उसने कि शुरू से ही ऐसा नरम स्वभाव था उसका कि यदि डर से या किसी और लिहाज से किसी कारण से किसी अगले-पगले को कुछ कह नहीं पाता था तो  भैया जी कह देता था।
खैर, जब वो गली में मुड़ा तो एस.के. जो उसका बैचमेट और मेरा रूममेट था, उसने बताया कि इसकी गली में मेन सीवर का काम चल रहा है और सारी गली बारह चौदह फ़ुट गहरी खुदी हुई है, कहीं ये गिर ही न जाये।  हम सारे फ़टाफ़ट उसके पीछे लपके और धीरे धीरे उसे सहारा देते हुये उसके रूम तक पहुंच गये। बेचारे ने डगमगाते कदमों से ही सही, रसोई से लाकर सबको पानी पिलाया। एक बार फ़िर गुडनाईट गुडनाईट का खेल खेला गया और हम पांच वापिस चल दिये। आधी गली भी पार नहीं की थी कि सुरेश बाबू पीछे से भैया ध्यान से, भैया ध्यान से चिल्लाते हुये हमारी तरफ़ आया।  रुक कर आने का कारण पूछा तो वही कारण उसने बता दिया कि गली गहरी खुदी हुई है, कहीं हम में से कोई गिर न जाये, इसलिये आया है। अब लोकेशन ऐसी थी क्राईम वर्ल्ड की तरह कि वापिस मुड़ने की कोई गुंजाईश नहीं थी। पहुंच गये मेन रोड पर। सबने उसे समझाया कि देखो सुरेश, हम पांच हैं, सारे होश में हैं और अगर खुदा न खास्ता कोई गिर भी गया तो बाकी उसे बचा लेंगे, तुम्हें आने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन हमारा सुरेश, आंखों में आंसू ले आया कि भैया हम इतने गये गुजरे हैं कि आप पांच जने हमारे लिये जान जोखिम में डालें और हम इस गली के रहने वाले होकर भी आराम से बिस्तर में सो जायें। फ़िर से जफ़्फ़ियां डाली गईं, पोशम्पा भई पोशम्पा की तरह गुड नाईटों का आदान प्रदान हुआ और सुरेश को वापिस भेजा गया। अब हम भी इमोशनल पूरे, ये बंदा शराब में धुत्त होकर भी ऐसा सोच सकता है और हम इसके बारे में न सोचें तो हम पर लानत है। उसे उसके रूम में पहूंचाया और लौटे। वो फ़िर हमें छोड़ने आया और हम फ़िर उसे छोड़ने गये और वो फ़िर……।
बात ये हुई जी कि हमारी गुड नाईट जो थी,  टिल गुड मार्निंग चलती रही, न वो रुका और न हम झुके।  सुबह पांच बज गये वो बीस तीस मीटर का रास्ता पार करने में, आखिर उसे रिक्शे पर लादकर अपने साथ ही अपने रूम में लाये और सुलाया। नौ बजे जबरन उठाया शेर को, पूछने लगा, “भैया, मैंने रात को तंग तो नहीं किया आप लोगों को, चढ़ तो नहीं गई थी मेरे को?”  मैंने कहा, “नहीं यार, बिल्कुल नहीं।” सुरेश कहने लगा, “भैया, दारू पार्टी का मज़ा तब तक नहीं आता जब तक चढ़े नहीं, एक बार और पार्टी देनी होगी आपको, दोगे न?”  बहुत प्यार आया अपने छोटू पर, लेकिन हमारा स्वभाव तो सब जानते ही हैं, न नहीं कह पाते हैं किसी अपने से।
सुरेश, एस.के और बाकी सब बिछड़ गये जिन्दगी की राह में, अपने अपने सलीब ढो रहे हैं।  कोई हंस कर और कोई रोकर। लेकिन मिलेंगे कभी न कभी, बताते हैं विद्वान लोग कि दुनिया गोल है। फ़ोन पर कभी कभार बात हो जाती है तो याद करते हैं अपनी पुरानी बेवकूफ़ियां, हंसते हैं थोड़ा बहुत और फ़िर तैयार नई हरकतों के लिये, जो आगे जाकर बेवकूफ़ियां लगेंगी लेकिन मज़ा बहुत देंगी।
:) बंदरों ने बहुत उत्पात मचा रखा था, पिछले कई दिनों से। घर का सब सामान बर्बाद करे दे रहे थे। एक बन्दर, जोकि इनका मठाधीश लगता है, उसने तो अति ही कर रखी थी। डरता तक नहीं, बल्कि डरा और देता था। फ़त्तू के आगे अपनी परेशानी रखी तो उसने समस्या हल करने का आश्वासन दिया। बाजार से बूंदी के लड्डू लाकर खुले में रख दिये। वो ढीठ बन्दर आया और गप्प से उठाकर खा गया। फ़त्तू फ़िर बाजार गया और अबके मोतीचूर के लड्डू लाकर सेम ट्रीटमेंट। अगली बार खसखस की पिन्नी लाया और उनके साथ भी यही हुआ। मैंने पूछा भी कि यारा, तू है किसकी तरफ़, मेरी तरफ़ या इस रैडिश बैक एंड फ़्रंट की तरफ़? लेकिन मेरी मान जाये, वो फ़त्तू कैसे हो सकता है? अगली बार अखरोट लाकर वैसे ही खुले में रख दिये। अब बन्दर की तो आदत खराब हो रही थी ब्लॉगर्स की तरह, खुद कुछ मेहनत करनी नहीं और दूसरों की मेहनत का बंटाधार करना।  आया और गप्प से अखरोट को निगल गया। हलक से होते हुये, फ़ूड पाईप से सरकते हुये वो अखरोट जाकर उसके exit gate पर ऐसा फ़ंसा कि वो ढीठ बस बेदम हो गया। पता नहीं कौन कौन से आसन करते देखा उसे उस अखरोट से निजात पाने के लिये, पर बेकार। खाना पीना भूलकर हर समय उसका ध्यान अपनी पोस्ट पर, सॉरी अपनी समस्या पर। पता नहीं कैसे तीन दिन तक उपवास रखने के बाद वो अखरोट कैद से आजाद हुआ या कह सकते हैं कि वो ब्लॉगरिया बन्दर उस अखरोट से आजाद हुआ।
वो दिन है और आज का दिन, बेफ़िक्र होकर सोते बैठते हैं हम। कोई चिन्ता नहीं कि खाने पीने का सामान बर्बाद कर देगा वो बन्दर।  और उसका ये हाल है कि जो भी चीज देखता है पहले उसे अपने गुदा द्वार तक ले जाता है, साईज़ मिलाता है और फ़िर अगला ऐक्शन लेता है(भागने का)।
यार वैसे ये सरकार ये अखरोट वाला फ़ार्मूला जानती नहीं है या किसी और वजह से इस्तेमाल नहीं करती नापाक इरादे वाले लोगों पर, कि कहीं हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र, सभ्य, शरीफ़ छवि पर दाग न लग जाये?
नो प्रोब्लम सरकार जी, तुम अपनी छवि, अपने वोट बैंक का ध्यान रखो, तुम आंच मत आने दियो अपनी छवि पर। निरीह और मजबूर जनता के साथ तो जो होगी, देखी जायेगी। वैसे ही आबादी बहुत बढ़ गई है।

रविवार, जून 27, 2010

छोटे लोग बड़े लोग....chhote log bade log….

कल ऑफिस में बैठा काम कर रहा था की एक बहुत निरीह सी आवाज सुनाई दी|  सर उठा कर देखा तो एक  पचपन-साठ साल का गरीब सा दिखने वाला व्यक्ति हाथ जोड़े खड़ा था। कुपोषण के कारण शरीर की हड्डियाँ निकली  पड़ी थीं|  मैंने पूछा, "हाँ जी, बोलो, क्या काम है?" उसी मुद्रा में वो कहने  लगा, "जी, मैं आता तो नहीं, लेकिन बहुत मजबूरी हो गयी है, घरवाली बीमार है, डॉक्टर कहता है  फोटो करवा कर लानी पड़ेगी|"  मैं कुछ कनफ्यूज़ होकर उसकी तरफ देख रहा था कि उसने अपनी पासबुक आगे बढ़ायी|  पासबुक देखी तो उसमें लगभग तेरह सौ रुपये थे| मैंने पूछा, "बाबा, कितने रुपये  लेने हैं?" उसने फिर से अपनी मजबूरी का रोना सुनाया और पांच सौ रुपये लेने की बात कही. हाथ अब भी जुड़े हुए थे उसके|  बार बार एक ही बात कि मैं आता नहीं पैसे लेने, लेकिन मजबूरी हो गयी है इसलिए आया हूँ|  अब मैंने पूछा, "बाबा, ये तेरे पैसे हैं या किसी और के?" कहने लगा, "जी, मेरे हैं, मजदूरी करता हूँ, जो बच जाते हैं कभी कभी, इसमें डाल देता हूँ|"  मैंने समझाया, "जब पैसे तुम्हारे हैं तो फिर इतनी सफाई किस बात की देते हो? तुम्हें जरूरत है, ले जाओ|  और ये अपने पैसे ही लेने के लिए बार बार हाथ जोड़ना, इस सब की यहाँ कोई जरूरत नहीं होती है|"  बाबा बोला, "साहब जी, पैसे नहीं दोगे तो चलेगा, लेकिन हाथ तो मैंने जोड़ने ही हैं|  आप सारे सरकार ...|"   मैं पूछने लगा, "हाँ, बोलो पूरी बात, हम सारे क्या सरकार हैं?"  बोला, "हाँ, आप सारे सरकारी मुलाजिम हो, तो सरकार ही हो|" मैंने बहुत समझाया कि हम सरकार के नौकर हैं, सरकार नहीं है लेकिन वो भला आदमी बार बार एक ही बात कहता रहा, "जी, हाथ तो मैंने जोड़ने ही हैं|"
हमारा अधीनस्थ कर्मचारी आया और धीरे से मुझे कहने लगा कि जी ख़त्म करो बात, रुपये दिलवाओ इसे और भेजो यहाँ से| ये छोटे लोग सुधारने वाले नहीं है|  मुझे याद आ गया कि साल भर पहले मेरे इसी साथी ने एक ठेकेदार से मेरी मुलाक़ात करवाई थी, ये कहकर कि बहुत बड़ा आदमी है ये। सुबह तीन बजे उठकर पूजा पाठ, मन्दिर-गुरुद्वारा, दान वगैरह-वगैरह। पचास एकड़ से ज्यादा जमीन, एक मैरिज पैलेस, आढ़त का काम, शराब के ठेके में हिस्सेदारी और पता नहीं क्या क्या। उन दिनों में हमारे मैनेजर साहब नहीं थे। खैर, पानी वगैरह पिलवाया उसे(सॉरी उन्हें)  तो वो पूछने लगा कि सरकार की कोई नई स्कीम नहीं आई जिसमें सब्सिडी वगैरह हो? मैंने जब पूछा कि आपको लोन की क्या जरूरत पड़ गई तो वो बड़ा आदमी कहने लगा कि हमें लोन की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ़ सब्सिडी से मतलब है। मेरे द्वारा मतलब का  रुख न दिखलाने पर उसने आश्वस्त भी किया कि सब्सिडी सिर्फ़ वही नहीं हजम करेगा बल्कि बैंक वालों का भी पूरा ध्यान रखा जायेगा, कौन सा पहली बार या आखिरी बार ये काम करना है? कह दिया भाई हमने भी कि महीना दो महीना रुक जाओ, मैनेजर साहब आ जायेंगे फ़िर बात कर लेना। वो दिन और आज का दिन, न वो आँख मिलाता है मुझसे और मैं तो खैर बरसों से ही नजर बचाता फ़िरता हूं सबसे।
सोच ये हो रही है कि बड़ा कौन है और छोटा कौन है? जिसके पास है बहुत कुछ, लेकिन जिसकी भूख और ज्यादा बड़ी है वो बड़ा है या छोटा?
मुझसे मेरे मित्र अक्सर पूछते हैं कि यार तू इतना गमगीन क्यों रहता है?
जो शत्रुता भाव रखते हैं, सोचते हैं ये हरदम हंसता क्यों रहता है?
दुनिया की नजर में जो बड़े हैं, मैं सोचता हूं ये काहे के बड़े हैं?
जिन्हें दुनिया छोटा मानती है, मैं सोचता हूं ये छोटे कैसे हैं?
क्या मैं साम्यवादी होता जा रहा हूं, कि बड़ों को नीचे लाना और छोटों को ऊपर देखना चाहता हूं ताकि सब एक लेवल पर आ सकें? फ़िर ये नक्सलवाद जैसी चीज़ों के साथ मुझे सहानुभूति होनी चाहिये, लेकिन इसके नाम पर जो हो रहा है, उससे मेरा खून क्यों खौलता है?
मैं सरकार से वेतन लेता हूं, लेकिन अधिकतर सरकारी नीतियों  से इत्तेफ़ाक क्यों नहीं  रखता हूं।
दिमाग स्साला पहले क्या था, अब क्या हो गया है?
लोगों को देखता हूं, शॉपिंग करते, मॉल्स में जाते, बार में बैठे तो मुझे भूखे नंगे लोग याद आ जाते हैं।  भूखे नंगे लोगों को देखता हूं तो अमीरों के कुत्ते याद आ जाते हैं। याद आ जाती है ’नमक हराम’ फ़िल्म, और बहुत कुछ।
बहुत दिनों तक उधेड़बुन में रहने के बाद यही अपना स्टाईल बन गया कि जहां सारी दुनिया हंसे, वहां उदासी  ढूंढ लो और जहां सब उदास हो रहे हों, वहां कोई खुशी ढूंढ लो। दुनिया का क्या है, पागल समझती है, समझ ले। अपने से जहाँ तक हो सके, किसी का गलत नहीं करते। अपन तो जैसे हैं, मस्त हैं इसी में। देखी जायेगी अपनी तो।
:)नजदीक के गांव में कहीं सांग(हरियाणवी रागिनी) का कार्यक्रम था।  लोग बाग जा रहे थे, फ़त्तू को पता चला तो भाग कर वो भी ट्रैक्टर पे चढ़ गया।  जब उस गांव में पहुंच गये, तो एक आदमी को गली में खड़े देखकर उससे  सांग की जगह पूछने के लिये फ़त्तू भागकर गया और उससे पूछने लगा,  "भ...भ....भाई साब,   स..स..स...सांSSSSSग  कड़े हो रSS.रया सै?   अब वो आदमी भी हकलाता था, उसने सोचा कि ये मेरी नकल उतार रहा है, बोला,  " अ.अ.अ.आड़े ही रूक्क्क्क्क्क्क्क, ल्ल्ल्ल्ल्लाठी ल्याऊं स्स्स्सूं भीत्त्त्त्त्त्त्त्त्त्तर से,   स्स्स्स्स्सांग अअअअअअअआड़े ही होग्ग्ग्गा।"
सबक:   बात करने से पहले सामने वाले के बारे में जान लो नहीं तो आपस में सांग होने के पूरे चांस रहेंगे, आड़े ही।

मंगलवार, जून 22, 2010

लो आया पैरोल का मौसम........

एक गाना था. ’लो आया प्यार का मौसम।’ मेरी नजर में होना चाहिये था ’लो आया पैरोल का मौसम।’ अब ये ’पैरोल’ कौन सी भाषा का शब्द है, नहीं मालूम, लेकिन ये शब्द मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करता रहा है। अब कोई सोच सकता है कि ये आज कौन से नये मौसम की चर्चा ले बैठे हैं, मौसम तो सबको पता है गर्मी का है। तो साहब लोगों, इस गर्मी के मौसम में ही छुपा हुआ है पैरोल का मौसम। सरोगेटिड है जैसे बैगपाईपर क्लब सोडा की एड आती है कि छोटा सा कहीं लिखा होगा ’क्लब सोडा’ लेकिन जो संदेश दिया जा रहा है और जो लिया जा रहा है वो किसी और ही चीज के लिये है।  ऐसा ही है गरमियों का मौसम, छुपा हुआ सा है इसीके अंदर पैरोल का मौसम।  बच्चों के स्कूल बंद, अब आगे कुछ अपने आप  समझ जाओ।  बहुत इंतज़ार के बाद जब ये सीज़न आने को हुआ तो हमें पैरोल पर छोड़ दिये जाने का फ़ैसला हाईकमान ने ले लिया।  क्षेत्रीय पार्टी के छुटभैये नेताओं की तरफ़ से गरीब जनता की रोटी छिन जाने की दुहाई दी भी गई. लेकिन वो हाईकमान ही क्या जो ऐसे मामलों में सख्ती से न निबटे? हमारे घाट घाट के पानी पिये होने के आशय का सर्टीफ़िकेट एक बार फ़िर से जारी हुआ और अब ये आलम है कि अमिताभ की तर्ज पर मैं और मेरा फ़त्तू अक्सर तन्हाई में बातें किया करते हैं कि ये होता तो वो होता या फ़िर न होता मैं तो क्या होता? सही बात तो ये है कि हम कह रहे हैं, बाकी लोग मन ही मन खुश होते हैं, बस फ़र्क इतना ही है।
तो जनाब लोगों, शुरू के कुछ दिन दिल को यूं बहलाया कि बहुत दिन हो गये घर की दाल रोटी खाते हुये, कुछ दिन बाहर की चटपटी ही सही। फ़िर जानकारी मिली कि बाहर का खाने से एड्स हो जाता है. ’ग्लोबलाइजेशन’ जैसे महत्वपुर्ण विषय पर सोचते सोचते एक दिन ’जानम समझा किये’ कि  कल को अगर एड्स की गिरफ़्त में हम आ गये तो इतना नाम तो है हमारा कि कोई परिचित ये नहीं मानने का कि बाहर की रोटी खाने से ये बीमारी हुई है। वैसे ही लोग बाग बड़े उच्च विचार रखते हैं हमारे चरित्र के बारे में, कहेंगे देख लो, हमें पहले ही पता था।  मजबूर होकर हमने घर पर ही हाथ आजमाने की सोच ली। शुरू किया जब पाक कला का प्रैक्टीकल, तो सबसे पहले विश्व का राजनैतिक मानचित्र खरीदा और रसोई में टांग दिया।  रोटी साली बस गोल ही नहीं बनी, बाकी आड़ी       टेड़ी, लंबी, बेलनाकार, सितारानुमा, तिकोनी, चौरस, बहुकोणीय सारी आकृतियां बना डाली। हर बार रोटी बनाने के बाद नक्शे से मिलाते जाते और मिलती जुलती आकृति के देश पर निशान लगाते जाते।  सप्ताह भर में ही हिन्दुस्तान के अलावा बाकी सारे संसार का भक्षण कर चुके तो फ़िर से अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार किया और फ़िर बाहर की तरफ़ मुंह कर लिया।  हिन्दुस्तान को इसलिये छोड़ दिया क्योंकि थोड़ी सी गैरत अभी बाकी है अपने में, और उससे भी बड़ी बात है कि हम खा लेते तो ये नेता लोग क्या करते? ये भी तो खा ही रहे हैं, कतरा कतरा करके, और बोटी बोटी करके अपने देश को। ये भी सोचा कि मरना ही है तो खा पीकर मरो, फ़िर जो मर्जी समझती रहे कि एड्स बाहर के खाने से हुई थी या किसी और वजह से। तो जी सप्ताह भर में हाथ जलाकरऔर  मुंह जलाकर, दिल के दुबारा जलने की गुंजाइश थी नहीं, लौट के बुद्धू बाहर को गये।  और कुछ करें न करें अपन, मुहावरे सारे पलट देने हैं।
बात रविवार दोपहर की है, हम दोपहर का खाना लेने गये। फ़त्तू घर में कूलर के आगे बैठकर टी.वी. देख रहा था, ऐसे ऐसे तो चेले हैं हमारे। तो जी ढाबे पर गये और आर्डर दे दिया, बैठ गये इंतजार करने।  उसके टी वी पर पंजाबी गाना चल रहा था, ’जे असी दोनों रुस बैठे तां मनाऊ कौन वे।’ मजा आ गया, अब ये मजा भी साली ऐसी चीज है कि आ जाये तो पता नहीं किस छोटी सी बात पर आ जाये और न आये तो त्रिलोकी का राज मिलने पर भी न आये। खाना लेकर घर आये तो फ़त्तू से थोड़ी चुहल करने का मन कर आया। मैंने उससे पूछा कि यार इस गाने में उठाया गया सवाल वाकई वाज़िब है, अगर दो दोस्त आपस में रूठ बैठे और कोई मनाने वाला न हो तो सच में बहुत मुसीबत हो जाती है, क्या ख्याल है?  फ़त्तू से जब कुछ पूछ लिया जाये तो वो अपने को सुकरात से कम नहीं समझता है। कहने लगा, "उस्ताद जी, बन्दा समझदार वही है जो पहले से जुगाड़ करके रखे।  याराना डालो किसी से तो मुझे पहले कामन फ़्रैन्ड बना लेना।"
’तू ठीक है प्यारे, मैंने तेरे से तेरा ख्याल पूछा है एक जनरल बात पर और तू मेरे से ही अपना ख्याल रखने को कह रहा है? और भाई, हम तो पुराने याराने खत्म करके इधर आये हैं, अब नये कहां से डलेंगे? तो प्यारे, मेरे भरोसे मत रहियो, यहां गुंजाईश नहीं रही है अब नये सिरे से याराने डालने की और फ़िर उन्हें भूलने की।"  अब बारी फ़त्तू की थी अमिताभ बच्चन बनने की, शोले वाली तर्ज पर कहता है, "घड़ी घड़ी ड्रामा करते हो उस्ताद जी। ये दूसरों को इमोशनल, सेंटीमेंटल करने की कोशिश मत करो। मान जाओ, नहीं तो मैं ही अपील कर दूंगा ब्लॉग जगत में कि इनकी बातों में मत आना, चाहे फ़र्जी प्रोफ़ाईल बनाकर ही करना पड़े।" 
बहुत महंगा पड़ा अपने को फ़त्तू से मजाक करना। खुद ही जाकर कुल्हाड़ी के पैर मार दिया, मिल गई अपने को कई दिन की डोज़। ठीक है प्यारे, पहले ही हमने कौन से आरोपों को नकारा है कभी, एक तेरी तरफ़ से भी सही।  बन्धुओं, अपने चेले की धमकी से डरकर हम खुद ही अपील कर देते हैं कि किसी को नल. टल(इमोशनल, सेंटीमेंटल टाईप) होने की जरूरत नहीं है। नो नीड टु टेक अपन को सीरियसली। सब ड्रामा है अपना। फ़त्तू को भी किराया भाड़ा देकर, चार दिन की छुट्टी देकर भेज दिया था कि जा पहाड़ों की ठंडक ले आ कुछ दिन।  मैं भी चार दिन कुछ सुकून के काट लूंगा।  आ गया है मेरा शेर  उसी दिन वापिस, मुझे कोई और नहीं और उसे कोई ठौर नहीं। जल्दी लौटने का कारण नीचे लिखा तो है किसी के यकीन आये तो। अब फ़िर वही मैं और मेरा फ़त्तू, अक्सर तन्हाई में बातें.................। फ़त्तू में लाख दोष हैं, पर है वो अपना, और रहेगा भी।

:) फ़त्तू ने हिमाचल जाने  की बस पकड़ी।  कंडक्टर टिकट बनाने आया तो एक सवारी ने एक टिकट मांग ली ’आनंदपुर’ की। पीछे वाली सीट पर बैठे एक तगड़े से यात्री  को अपने पवित्र स्थान की बेअदबी पर गुस्सा आया, उसने जाकर सवारी के एक जोरदार थप्पड़ लगाया और बोला, "तैनूं बोलना चाही दा सी कि एक टिकट ’आनंदपुर साहिब’ दी दे दो।" ठीक बात थी जी, धार्मिक जगह का नाम तो अदब से ही लेना चाहिये। फ़त्तू ने देखकर सबक ले लिया। अब दूसरी सवारी ने पहले वाले का हाल देखकर कंडक्टर से कहा, "जी, एक टिकट ’चंडीगढ़ साहब’ दी दे दो।" आत्मगौरव से भरा सूरमा फ़िर से उठकर गया और एक थप्पड़ उसके भी लगाया, "क्यों ओये, ’चंडीगढ़ कद तों साहब बन गया? तू कैहणा सी कि एक टिकट चंडीगढ़ दी दे दो।" ऐ गल्ल वी ठीक है, फ़त्तू ने एक सबक और पल्ले बांध लिया। अगला नम्बर फ़त्तू का था. कंडक्टर ने पूछा, "हांजी, बोलो कित्थे दी टिकट देवां त्वानूं?" फ़त्तू ने जवाब दिया, "जी, भाईसाहब से पूछ कर बताता हूं कि साहब लगाना है कि नहीं?"  भाईसाहब फ़िर से उठकर आये, एक झन्नाटेदार फ़त्तू के लगाया और बोले, "सालेया, मैं कोई सारी बस दा ठेका लै रख्या है?"
फ़त्तू अपनी हिमाचल यात्रा मुल्तवी करके फ़िर से घर को आ गया है।

रविवार, जून 20, 2010

रुको मत, जाओ...


मेरी आँखें कितना जोर जोर से तुम्हें पुकार रही हैं। मुझे तो लगता है इन आँखों के चीत्कार से धरती-अंबर सब डोल रहे हैं, लेकिन आसपास के लोगों पर तो इनका  कोई असर नहीं दिखाई दे रहा है? ओह, आंखों की जुबान सुनने समझने की फ़ुर्सत किसे है यहां?  ये सब बेचारे तो पहले से ही मसरूफ़ हैं अपनी साड़ी, अपनी कमीज को दूसरों के कपड़ों से ज्यादा सफ़ेद करने में। और ये संभव न हो पाये तो दूसरों पर कीचड़ उछालने में ताकि खुद उजले दिखाई दे सकें।ठीक है, कैफ़ियत मालूम हो गई तो अब झेल लूंगा मैं दूसरों की बेरुखी। इतना यकीन है मुझे कि मेरी पुकार में दम होगा तो तुम सुन लोगी।
मेरी साँसें मेरी रफ़्तार के साथ ही मंद होती जा रही हैं। मैं अब देख तो पा रहा हूं सब, लेकिन प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहा हूं।आंखें खुली ही रह गई हैं मेरी, जैसे किसी का रास्ता देख रही हों। पलक झपकने में भी जैसे युगों युग बीत रहे हैं। कोई ध्यान से देखे तो जान सकता है कि मैं अभी जिन्दा हूँ। पर कौन ठिठकेगा यहां?  मैं ही कहाँ किसके लिये रुका था कभी?  कभी अपनी ताकत का गुरूर था और कभी अपनी जवानी का नशा, कभी नौकरी की मजबूरियां और कभी घर की जिम्मेदारियां।  जब मैं ही कन्नी काटकर निकल जाया करता था किसी बेसुध को देखकर, तो किस मुंह से अब किसी और से गिला करूं? अब तो हर आवाज, हर गतिविधि मुझ तक स्लोमोशन में आ रही है।
अरे, ये क्या?  मेरी जलती हुई छाती पर तुम्हारा शीतल स्पर्श!  तो आ पहुँची तुम आखिर।  मुद्दतों पहले मुंद गई थीं मेरी पलकें। अब तुम्हें देखने के लिये जाने कितने दौर और बीत जायेंगे इन पलकों को खुलने में?  तुम्हारा स्पर्श मैं कभी नहीं भूला।  ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं की थी, कामयाब नहीं हो पाया था। तो आखिर तुम्हें आना ही पड़ा मेरे नयनों की पुकार सुनकर। आँखें खोलनी ही होंगी अब।  हाँ, तुम्हीं तो हो। और आई भी उसी रूप में हो जैसी मैंने तुम्हें चाहा था।  वसंत की देवी की तरह पीले वस्त्रों में, आभूषण के नाम पर सिर्फ़ कंगन और पायल। वैसे भी तुम्हें आभूषण और प्रसाधन की क्या जरूरत? मेरी आंखों में कोई भाव नहीं बचा और तुम चिरयौवना की आंखों से कोई भाव नहीं बचा जो छलक न रहा हो। प्रेम, त्याग, समर्पण, आमंत्रण, शरारत, शिकायत, आत्मगौरव कुछ नहीं छूटा है तुम्हारी नजर से। मैं बिना भावों का और तुम भावों की सरिता, कहीं कोई मेल नहीं हमारा। फ़िर भी तुमने मेरी मौन पुकार का मान रखा, आईं तुम और मेरे दग्ध हृदय को अपना शीतल स्पर्श दिया। मैं सच में धन्य हो गया। कुछ पाना शेष नहीं रहा अब। जाओ, अब अपनी दुनिया में लौट जाओ, ये मन की प्यास वैसे भी बुझने वाली नहीं है। तुम वापिस चली जाओ अब।
मैं फ़िर से अपनी आंखें मूंदना चाहता हूं, अब कभी न खोलने के लिये। जिन आंखों ने फ़िर से तुम्हारा रूप देख लिया, उन आंखों में अब किसी और नजारे के लिये स्थान है भी नहीं।  मुझे अब कोई गिला, शिकवा नहीं है किसी से, न तुम से और न इस बेदर्द जमाने से। किसी से  नहीं,  किसी से भी नहीं। 
तुम अब रुको मत, जाओ। जाओ तुम। जा…ओ।  जा….










गुरुवार, जून 17, 2010

पूर्णिमा का चांद, श्वान बिरादरी और शांति दूत

                                       आभारी हूँ दोस्त तुम्हारा,  कि इतनी पुरानी पोस्ट को भी याद रखा और एकदम मैचिंग मूड  की तस्वीर  बिना कहे ही ढूंढ कर दी।

सलाम नमस्ते,
हमें सलाम नमस्ते करनी पड़ रही है, इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं  कि समय कैसा चल रहा है हमारा।  न तो था एक जमाना कि हम लिया भी नहीं करते थे नमस्ते वमस्ते किसी की। ये हिन्दी की सेवा करने का व्रत जो न करवा दे थोड़ा है। वैसे भी जब बाजार में उतर ही गये हैं बिकने के लिये तो मार्केटिंग का तकाजा है कि बिकने लायक दिखोगे तभी कोई भाव देगा। अच्छे कूदे भाई इस ब्लॉगिंग की दुनिया में। न दिन को चैन, न रातों का करार।  सपना भी देखें तो लगता है कि कोई फ़ॉलोवर अपनी गलती सुधारने के नाम पर हमें अकेला छोड़ कर लौट गया है। और तो और अखबार भी देख लें कभी मजबूरी में तो आंखें स्टिंग आपरेशन में लगी रहती हैं कि कोई खबर दिख जाये ऐसी कि हमारी एक पोस्ट का मैटीरियल तो बन जाये। तो साहेबानों, कदरदानों और बन्धु-बांधवों, आज की पोस्ट का श्रेय जाता है 8 जून के दैनिक हिन्दुस्तान में छपी एक लघुकथा के लेखक विजय कुमार सिंह जी को(नाम शायद यही है, एकदम पक्का याद  नहीं है)।
एक लघुकथा पढ़ी, मुझे बहुत पसंद आयी। सार कुछ इस तरह से था:-
रात घिर आने के बाद आसमान में पूर्णिमा का चांद अपने पूरे आकार और चमक के साथ दैदीप्यमान था। मनुष्य तो जितने भी थे, सभी उसकी निर्मलता और आलौकिकता के आगे नतमस्तक हो गये और मौन को प्राप्त हुये।  सिर्फ़ कुत्ते थे जो सर उठाकर भौंक रहे थे, बस एक को छोड़कर। जब बहुत देर तक उनका शोर बन्द नहीं हुआ तो जो अब तक चुप था, वह शुरू हो गया। कहने लगा कि तुम सब कितना ही सर उठा कर शोर मचा लो लेकिन ये चांद तुम्हारे लिये जमीन पर नहीं उतरने वाला है। अब सारे बिरादर चुप हो गये, सिर्फ़ वही भौंकता रहा सारी रात। शांति बनाये रखने की अपील करते हुये वह शांति दूत सारी रात शोर मचाता रहा।
अब अपनी बात शुरू।  अगर खुद  को श्वान बिरादरी का सक्रिय कार्यकर्ता मानें तो अपनी कैफ़ियत है कि पता है चांद का मेरे लिये जमीन पर  उतरना असंभव है, अपन तो इस लिये जोर जोर से भौंक रहे थे कि कहीं ये चांद किसी और के लिये नीचे न उतर आये। अपना अपना स्टाईल है जी, मुकेश ने इसी बात को ’तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी’ अपनी खूबसूरत आवाज में गाकर कह दिया, हमारे पास भौं भौं है तो हम अपनी भाषा में गा रहे थे।
वैसे हम सारे खुद ही हाकिम बने रहते हैं और फ़ैसले सुनाते रहते हैं।  होती कोई ग्रह-उपग्रह-जूनियर ग्रह उपग्रह एसोसियेशन, तो शायद चांद को भी अपनी इच्छा बताने का हक मिल जाता।  बनेगी जरूर कभी न कभी चांद तारों की यूनियन भी,  देख लेना।
:) फ़त्तू को तैयार देखकर पंडित जी ने पूछा, “घणा चस(चमक) रया सै भाई, कित की तैयारी सै?”
 फ़त्तू:   हरद्वार जाऊं सूं, गंगा नहान का विचार सै।
पंडित जी ने मस्तक रेखायें देखीं और कहने लगे कि तेरी किस्मत में तो गंगा स्नान है ही नहीं। अब फ़त्तू का इरादा और पक्का हो गया। स्टेशन पर गया तो गाड़ी कैंसिल, बस स्टैंड पर गया तो हड़ताल। जैसे जैसे परेशानी बढ़ रही थी फ़त्तू के दिल में ज़िद भी बढ़ रही थी। कहीं पैदल चलके, कहीं लिफ़्ट लेकर, कहीं बैलगाड़ी में चढ़्कर आखिर अठारह दिन में फ़त्तू हरिद्वार में पहुंच ही गया। चैन उसे पड़ा घाट पर पहुंच कर ही। फ़िर मिलाया उसने फ़ोन पंडित जी को और सारी यात्रा क विवरण दिया।  आखिरी वाक्य आप भी सुन लीजिये।
फ़त्तू:  दादा, देख लै। तन्नै कही थी कि मेरी किस्मत में गंगा नहान की है नहीं। बेशक अठारह दिन लग गये. पर यो रही गंगा मेरी आंखों के सामने। तन्नै झूठा साबित करना हो तो बीस बार नहा लूं, पर जा दादा, तू भी के याद करेगा, नहीं नहाता जा।

रविवार, जून 13, 2010

यादों की महक है या महक की यादें? confused as always...........

कभी तुम्हारी महक से बहकता रहा था मैं,
तुम्हारे प्रेम की शीतलता से दहकता रहा था मैं,
एक अरसे बाद लौटा है, वो गुज़रा वक्त माज़ी का,
जिसे ओढ़ा था, पहना था, जिससे चहकता रहा था मैं।

तुम नहीं हो, लेकिन तुम्हारी यादों की महक अब भी बहकाती है,
या फ़िर तुम्हारी महक की यादें हैं, जो हंसाती हैं रुलाती हैं,
बहकती तुम ही थीं पहले, तुम्हीं मुझको बचाती थीं.
सताती भी तुम्हीं थी और तुम्हीं मुझको मनाती थीं।


तुम्हें तब रोक न पाया, न तुमको बांध पाया था,
याद हर सांस करती थी, कहां मैं भूल पाया था,
जाना था, गई थी तुम, तो वापिस फ़िर क्यूं आती हो,
चेहरे तो बदलते  हैं, महक से पकड़ी जाती हो।


अब जब लौट आई हो, तो फ़िर से वापिस भी जाओगी,
मेरी फ़िक्र मत करना, मुझे तुम यहीं पर पाओगी,
न पहले रोक पाया था, न अब ही रोक पाऊंगा,
तुम्हारी बात पर तुमको कहां मैं टोक पाऊंगा।


(***) अब इतनी बात मानोगी, तो मैं जी लूंगा अच्छे से। अबके जाओ तो अपनी यादें, अपनी बातें, अपनी वही महक, अपने करम, अपने अहसान साथ ले जाना। ये कीमती चीजें मेरे किसी काम नहीं आती हैं, उल्टे मेरी आवारगी को बांध लेती हैं। मैं भी एक बार फ़िर से आजाद रहना चाहता हूं, जो था कभी फ़िर से वही होना चाहता हूं। मानोगी न मेरी बात?
--------------------------------------------------------------------------------- दोस्त ने मेरे मरवा दिया है मुझे। उठाकर आर्डर दे देते हैं कि अबके कविता लिख(शायद सोचते होंगे कि कहीं तो दाल गलेगी)। और मैं भी ऐसा कि आ जाता हूं बातों में। शुरू में तो कुछ तुकबन्दी सी हो गई, (***) यहां तक आये थे तो सांस फ़ूल गई जी अपनी। सुन ले प्यारे, सामने तो मैं कह नहीं सकता कुछ, ये कविता-सविता रचना अपने बस की हैं नही। कहो तो चार मील का चक्कर लगा देंगे दौड़ते हुये, ये काम न कहियो आज के बाद। अब तक सांस काबू में नहीं आई है।
टैम थोड़ा ठीक नहीं चल रहा है जी अपना, फ़त्तू भी अब बड़ा आदमी हो गया है। नाराज हो गया है अपने से, कुछ ’ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट’ का आरोप लगा रहा है हमपर। हमने तो फ़िर भी दोस्ती निभाई है, कहीं से जुगाड़ भिड़ाकर एक MNC के franchise store में मैनेजर लगवा दिया था। थोड़ी बहुत इंग्लिश भी सिखा दी थी, जैसी हमें आती थी। बता दिया कि सबसे आसान है interrogative सवालों के जवाब देना। who, when, what की जगह एक शब्द लगाओ, बाकी सारा कट-पेस्ट कर देना, जैसे अपने ब्लॉगजगत में करते हैं।
:) फ़त्तू की कंपनी के MD दौरे पर आये। स्टोर की अस्तव्यस्त हालत देखकर गुस्से से सवाल जवाब करने लगे।
MD, "who is the manager?" 
फ़त्तू मैनेजर, "I is the manager." 
MD, "oh, you are the manager?" 
फ़त्तू मैनेजर, "yes, sir, I are the manager. वैसे सर, अगर इंग्लिश में आपको दिक्कत है तो हिन्दी में बात कर सकते हैं।"
तो जी हमारा प्रिय अपना हृदय तुड़वाकर, तड़पता हुआ छूटकर हमारे खुले हुये दर से आ गया है हमारे पास, लेकिन समझ नहीं पा रहा है कि आखिर MD की इंग्लिश कमजोर होने की सजा उसे क्यों मिली है। हो जायेगा धीरे धीरे ठीक। न हुआ तो फ़िर,  देखी जायेगी अपनी तो.........।

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http://mosamkaun.blogspot.com/

शुक्रवार, जून 11, 2010

सीधी बात, नो बकवास।

कुछ दिन के लिये कहीं, किसी काम से जाना था। कब, ये तय नहीं था।  सीधी बात इसे ही कहते हैं जी हमारी समझ में। कर दो कई कागज काले, दे दे मनों-मन और टनों-टन भाषण, पर किसी के पल्ले रत्ती भर भी पड़ जाये तो हमें याद कौन करेगा?
चूंकि कब जाना होगा और कब लौटना होगा, यह तय नहीं था, मन में एक उत्कंठा सी तो हमारे भी उठ रही थी कि हमारे यूं एकाएक चले जाने को ब्लॉगजगत में कैसे झेला जायेगा? उम्मीद पूरी थी कि तहलका मच जायेगा, बवंडर उठ खड़े होंगे और अपील पर अपील की जायेंगी हमें याद करते हुये कि महाराज लौट आओ। तो सबकी संभावित हालत पर तरस खाते हुये एक बड़ी ही इमोशनल सी पोस्ट लिख कर सेव कर ली कि जाते समय उठाकर पब्लिश ही तो करनी है, कर देंगे। इधर हमारा प्रोग्राम तय हुआ कि कल सुबह आठ बजे जाना है, बारह घण्टे का समय था बीच में, उधर मौसम बेईमान हो गया।  आखिर ये मौसम भी इस ’मो सम’ का मौसेरा भाई ही निकला। आंधी, बारिश, तूफ़ान सब शुरू हो गया, पावर सप्लाई ठप्प हो गई। हम तो खैर हमेशा की तरह उम्मीद से ही थे, अरे मतलब उस उम्मीद से नहीं है यारो, इस उम्मीद से थे कि बिजली रानी लौटेगी, और हम अपनी विदाई की हृदय विदारक सूचना वाली पोस्ट पब्लिश कर सकेंगे।  सोचा कि तब तक शेव कर लेते हैं, वो कौन सा आसान काम है, तब तक लाईट आ जायेगी। शेव आधी अधूरी हुई थी कि इन्वर्टर बैठ गया। अबे यार, मुझे तो शिव बटालवी वाला जवाब ले बैठा था पर तुझे किसके जवाब ने बैठा दिया।  समझा, इन्वर्टर का कम्बीनेशन तो बैटरी के साथ होता है तो यह तय पाया गया कि इसकी बैटरी का जवाब मेरे इन्वर्टर को ले बैठा। वो सारी रात अपने आधे चिकने और आधे खुरदरे चेहरे पर हाथ फ़ेरते हुये, बिजली के इंतज़ार में काटी जी। ’रात भर आपकी याद आती रही’ की तर्ज पर बिजली की याद आती रही लेकिन वो नहीं आई।
सुबह दिन निकलने के बाद उधर तो गाड़ी वाला आकर सर पर सवार हो गया, उधर पैकिंग चालू और बीच बीच में शेविंग चलती रही। कूच का नगाड़ा बज गया, चलो रे पालकी उठाओ कहार का समय आ गया, हम सपरिवार अपनी तशरीफ़ का टोकरा लेकर प्रस्थान कर गये, बड़े अरमानों से लिखी गई वो अति इमोशनल पोस्ट धरी की धरी रह गई।  हमने कई हिलते डुलते सबक सीख लिये इस बात से, गौर फ़रमाइये:_
1. ऊपर वाला बहुत कठोर, बेरहम, बेपरवाह है।     ये जब अपनी पर उतर आये तो इतनी मोहलत नहीं देता बंदे को कि पब्लिश का बटन भी दबाया जा सके। तो भाई, क्या जरूरत है ज्यादा ताम झाम इकट्ठा करने की? झूठ थोड़े ही कह गये हैं बाबा कि ’सब ठाठ धरा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजारा।’ पर समझ तभी आती है जब खुद पर बीतती है, और उस समय पछताने के अलावा और कुछ रहता नहीं है।
2. ऊपर वाला बहुत दयालु, रहमदिल है।     कमजोर बन्दों को आजमाईश के मौके नहीं देता कि कहीं टूट न जायें। अगर मोहलत मिल जाती तो अपनी औकात, हैसियत पता चल जानी थी।  हम जैसों के आने से या जाने से कहीं पत्ता भी नहीं खड़कता, खाम्ख्वाह दिल को धक्का सा लगना था।  हमें धक्के से बचाने के लिये उसने कितने बहाने बना दिये।
3. ऊपर वाला जो है, जैसा है, उसे हमारे किसी सर्टिफ़िकेट की जरूरत नहीं है, ये पक्का है कि हम नहीं सुधरने वाले हैं।  बिना बात की बात से तिल का ताड़ बनाये जायेंगे, लंबे लंबे लेख लिखे जायेंगे।  बहुत सताया है मुझे इस बेदर्द जमाने ने, हम भी सबको पका पकाकर थका थकाकर बोर करके बदले लेंगे और लेते रहेंगे।
एक दोस्त है, उसे मुझसे बहुत शिकायत है।  वैसे तो कोई विरला ही परिचित होगा जिसे मुझसे शिकायत न हो, पर अभी बात इस दोस्त की ही।  नाराजगी इस बात की है कि हर पोस्ट में कहीं न कहीं ये क्यों लिख देता हूं कि ’अपना क्या है, देखी जायेगी।’  शिकायत तो मुझे भी बहुत हैं दोस्त, लेकिन तुम्हारी बात मान लेता हूं।  आज ये नहीं लिख रहा हूं कि ’’अपना क्या है, देखी जायेगी’,      आज लिख रहा हूं कि ’यारो, सब अपनी अपनी जिन्दगी देखो, अपना क्या है, देखी नहीं जायेगी तुमसे।’   अब तो खुश हो, मिलाओ हाथ……हा हा हा।
:) फ़त्तू जब स्कूल में पढ़ा करता था, एक बार उसके मास्टर जी ने पूछा, “पांडवों के नाम बताओ?”  फ़त्तू ने सबसे पहले अपना हाथ ऊपर उठाया।  मास्टर जी ने उसे खड़ा किया और जवाब देने के लिये कहा। फ़त्तू, “पांडव पंज हैगे सी जी, एक सी भीम। एक सी ओसदा भरा। एक होर सी, ते एक होर हैगा सी। ते मास्टरजी पंजवें दा मैन्नूं नाम याद नहीं आ रया।”
इसे कहते हैं जी कान्फ़ीडेन्स, और यही हमें फ़त्तू से सीखना है।
आज एक नजर इधर भी ।

बुधवार, जून 02, 2010

स्टोरी ऑफ़ कालीदास रिविज़िटेड..........

अग्रिम चेतावनी – आज की पोस्ट एक सीरियस पोस्ट है, हंसना नहीं जी कोई भी। जो इस चेतावनी को इग्नोर करेगा, अपने अंजाम का खुद जिम्मेदार होगा:):)
क्या आप मे से कोई ऐसा है जिसने महाकवि कालिदास के बारे में न सुना हो?  अभिज्ञान शाकुन्तलम, मेघदूतम, रघुवंशम जैसी संस्कृत की कालजयी रचनाओं के रचनाकार के बारे में शायद सभी जानते हैं। यही कालिदास आरंभिक जीवन में एक अलग ही बौद्धिक और मानसिक स्तर पर जीवन गुजार रहे थे।  जीवन यापन का साधन था, वनवृक्षों को काटकर लकड़ियां  बेचना।  उस समय राज्य की राजकुमारी एक अत्यंत विदुषी कन्या थी(सुन्दर तो होगी ही, राजकुमारियां सुन्दर होती ही हैं और न भी हों तो दिखती और लगती तो हैं ही) और नकचढ़ी भी। अब ये बुजुर्गों ने ’करेला और नीम चढ़ा’ वाला मुहावरा तो बना दिया पर ये नहीं बताया कि परिस्थिति के अनुसार ’करेली और नीम चढ़ी’ भी कह सकते हैं कि नहीं। अमां. बता जाते इतनी सी बात तो काहे हमें ये देढ़ दो पंक्तियां लिखनी पढ़तीं और हमारे पाठकों को पढ़नी पड़तीं? खैर, बेनेफ़िट आफ़ डाऊट देते हुये और नारी किसी रूप में नर से कम नहीं है(बढ़कर ही है), इस विश्वास पर कायम रहते हुये हम भारी मन से लिख ही रहे हैं कि ’राजकुमारी करेली और नीम चढ़ी’ थी। जिसे करना हो कर ले केस हम पर,  वैसे भी आजकल धमकने और धमकाने का सीज़न चल रहा है। हो सकता है कि हमारे ब्लागजगत को एक और विचारणीय मुद्दा और मिल जाये। 
तो साहब हम अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, राजकुमारी विवाहयोग्य तो थी ही, विवाह के लिये दबाव पड़ा तो उसने घोषणा कर दी कि जो उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वही उससे विवाह का हकदार होगा। कितने ही आये और मुंह की खाकर चले गये। अब ऐसे लोग सिर्फ़ यहीं ब्लाग पर ही सक्रिय नहीं है कि आकांक्षा पूरी न होने पर नये नये हथकंडे  अपनाते हों, ये सनातन प्रवृत्ति है तो तब भी भाई लोगों ने  पराजित, पीड़ित, शोषित और रिजेक्टिड संघ बना  लिया और लग गये इस जुगाड़ में कि कैसे अपने अपमान का बदला लिया जाये।  एकदा आरण्ये भ्रमणते ते पश्यन्ते कि एक लकड़हारा पेड़ की जिस डाल पर  बैठा था, उसीको कुल्हाड़ी से काट रहा था।  बस जी, संगठन वालों ने जान लिया, पहचान लिया और ठान लिया कि यही लकड़हारा उनके दुखों का निवारण करेगा।  अब आप ये मत पूछियेगा कि लकड़हारे की मूर्खता से उनके दुखों का निवारण कैसे होगा?  इस दुनिया में अधिकतर लोग इस बात से सुखानुभूति कर लेते हैं कि दूसरे दुखी हो रहे हैं। अब आगे क्या हुआ था, ये तो सबने पढ़ा हुआ है, हम नहीं तोड़ने वाले उंगलियां अपनी।  आप भी तो बच जाओगे अपनी आंखों को कष्ट देने से।  और ये जो सब अभी तक लिखा है, वो लेखन का एक नया स्टाईल समझने की कोशिश है, जिसे ’बिटवीन द लाईंस’ विधा के नाम से जानते हैं।  हम कितना कह पाये, ये हम तो जानते ही हैं, कौन कितना समझा है, इसकी परीक्षा नीचे ली जायेगी।
बढ़िया कट रही थी अपनी यहां आने से पहले,  ’न उधौ से लेना, न माधो को देना’(और कट तो अब भी बढ़िया ही रही है, ये तो वैसे ही सबको इमोशनल करने के लिये लिख दिया था)। अब यहां तो देने लेने के अलावा और कुछ है ही नहीं। कमेंट दो, कमेंट लो। हमें तो ऐसा लगता है कि ये रिमिक्स है उस गाने का, ’प्यार दो, प्यार लो।’  काहे के झगड़े मचा रखे हैं भाई लोग? कौन से यहां खेत-खलिहान बंट रहे हैं? कौन किसको कमेंट कर रहा है, कौन किसे पसंद कर रहा है, कौन चर्चा में किसका नाम ले रहा है, क्या यही सवाल सबसे बड़े हैं? इन सब बातों की कोई फ़ीस ली है क्या किसी ने? वरिष्ठता और कनिष्ठता का सवाल कहां से उठ गया? और भाई हमें भी बता दो, वरिष्ठ होने पर क्या क्या छूट मिल रही है?  बैंक में आधा प्रतिशत ब्याज, रेलवे में रियायती किराया, इन्कम टैक्स में छूट तो सुनी है वरिष्ठ लोगों को,  यहां कौन सा फ़ायदा मिल रहा है, और हमारी कंपनी खाम्खाह ही घाटे में जा रही है। अमां, तुम्हें किसी का लिखा अच्छा लगे तो तारीफ़ कर दो करनी है तो, दुबारा उसकी पोस्ट निकले तो पढ़ो।  किसी का स्तर सही नहीं लग रहा है और तुम्हें लगता है कि इसने बेकार लिखा है तो उससे अच्छा लिखकर दिखा दो।  सबके पास अपना प्लेटफ़ार्म है।  मैं अपने ब्लाग पर अपनी पसंद का कुछ लिख रहा हूं, अगर मैं किसी के बारे में कोई अशालीन बात नहीं लिख रहा तो तुम्हें मैं पसंद आऊं या नहीं, मुझे लिखने से कैसे रोक लोगे? ऐसे ही तुम्हें भी और किसी को भी कोई भी नहीं रोक सकता।  देखा जाये तो कितना कुछ बिखरा पड़ा है यहां, धर्म, राजनीति, साहित्य, मनोरंजन, खेल।  ढूंढो तो सबको अपनी पसंद का मैटीरियल यहां मिल जायेगा।  बाकी सबके अपने अपने ख्याल और अपनी अपनी सोच। और अपना तो ये मानना है कि छोटा परिवार सुखी परिवार। हमारा फ़त्तू ही ज्यादा समझदार निकला। अभी कल ही हमारे फ़ॉलोअर्स की संख्या देखकर चिंतित हो गया, कहने लगा, “महाराज, चेले घणे हो गये?” मैंने देखा और हैरान हो गया, “भाई, अभी तो पच्चीस हुये हैं।”  कहने लगा, “महाराज, पच्चीस की संख्या मत देखो, एक लाखों के बराबर है। मेरी चिंता समझो, चेले घणे हो गये।” मैंने दिलासा दिया, ’भूखे मरते खुद आप भाज जायेंगे, तू क्यों परेशान है।” हम तो जी अपने इस चेले से बहुत कुछ सीख रहे हैं।
:) फ़त्तू ने मैरिज ब्यूरो खोला।  गांव का पुराना परिचित एक बूढ़ा एक दिन आया और अपनी लड़की के रिश्ते की बात करने लगा।
फ़त्तू ने पूछा, “पर रामभतेरी का तो ब्याह पाछले साल हो गया था?” 
बूढ़ा बोला, “रै भाई, उसका घरआला बीमारी में मर गया है। सोचूं हूं कि राम भतेरी ने बैठा दूं(दूसरे ब्याह को देशज भाषा में बैठाना ही कहते हैं) तो चैन से मर जाऊंगा।”  
फ़त्तू ने रिश्ता करवा दिया।  छ महीने बाद फ़िर मुलाकात हुई, बूढ़े ने नये वर के एक्सीडेंट में मर जाने की बात बताई और फ़िर  वही डिमांड रखी।  फ़त्तू ने फ़िर रिश्ता करवा दिया। 
चार महीने फ़िर गुजरे कि बूढ़ा फ़िर आ गया और बोला, “भाई कोई रिश्ता बता राम भतेरी के लिये।”  
फ़त्तू, “अर वो बैठाई थी, चार महीने पहले?”   
बूढ़ा, “रै भाई,  वा फ़ेर खड़ी हो गई।” 
फ़त्तू, “बात यो सै कि तेरी राम भतेरी ने तो खड़े होन की आदत हो री सै, इअने अब खड़ीये रैन दे।”

योही हाल सै जी म्हारे ब्लागजगत का, राम भतेरी(मुद्दा\विवाद) ने कितना ही  बैठा लो, दस दिन न बीते हैं कि फ़ेर खड़ी हो ले सै यो राम भतेरी, नये रूप में और नये अंदाज में।
छोटे और बड्डे ब्लॉगरों, तुम देख लो अपना हिसाब किताब। अपनी तो कट ही जायेगी…..जैसे तैसे…….

अब आज का प्रश्न, ऊपर कालिदास के सन्दर्भ में जो भूमिका बांधी गई है, उसमें लेखक किस रोल में है?  करेली(नीमचढ़ी), लकड़हारा, पराजित पीड़ित शोषित सद्स्य या कुछ और? पहले की तरह ईनाम विनाम के भरोसे मत रहना, हम देने वाले नहीं हैं। देने को सिर्फ़ हमारे पास धमकी है, वो वैसे भी दे देंगे कभी।