तो साहब लोगों, भोले को जब थोड़ा सा कंट्रोल करना होता, उसे हरिद्वार का सपना याद दिला देता मैं और वो कंट्रोल में रहता। उस समय तक नहीं पता था कि हंसी हंसी में हसनगढ़ कैसे बन सकता है। देखते देखते गर्मियों का मौसम आया और वो रोज मेरे सर पर सवार हो जाता, “कदों चलना है?”
अगस्त का महीना था और मैं था किसी बात पर किसी से खफ़ा वाले मूड में, बना लिया प्रोग्राम। खाली बैठकर उधेड़बुन करने से बेहतर है कि खुद को किसी काम में झोंक दें चाहे रस्सी कूदना ही हो। भोला कहता कि बस में चलेंगे और मैं कहता ट्रेन में चलेंगे। उसके दिमाग में ट्रेन के वही सफ़र थे जो फ़ौज की नौकरी में छुट्टी आते समय उसने किये थे, मैंने उसे रिज़र्वेशन वाली यात्रा के फ़ायदे बताकर बहुत मुश्किल से ट्रेन पर चलने के लिये मनाया। डेली पैसेंजरी करते समय एक नया मित्र बना था आलोक, वो तब तक १७ बार कांवड़ ला चुका था और कई बार कह चुका था कि एक बार इकट्ठे घूमने जरूर जाना है। लगे हाथों उसे कहा और वो भी तैयार हो गया। एक पुराना खिलाड़ी, एक निपट अनाड़ी और बीच में फ़ंसा मैं, कई बार पूछता था खुद से गब्बर स्टाईल में, “तेरा क्या होगा कालिया?” और खुद ही जवाब देता था, “देखी जायेगी, सरकार।” कल ही एक पोस्ट देखी थी यहाँ, अपनी ही पोस्ट पर पहली छ: टिप्पणियां खुद ही दे रखी थीं, नहीं मानते? अभी लिंक लेकर आता हूँ।.... नहीं मिली जी वो पोस्ट, शायद मैंने सपना देखा होगा। खैर, हम तो खुद ही सवाल जवाब कर लिया करते थे शुरू से ही। जब ओखली में सर दे ही दिया तो अब मूसलों से क्या डरना?
ट्रेन थी रात दस बजे, शाम को बैंक से भोला को साथ लेकर घर आया। बता चुका हूँ कि किसी के भी घर के सदस्यों के सामने उसका व्यवहार बहुत ही उम्दा रहता था। रात का खाना खा रहे थे तो माँ-पिताजी समझाने लगे कि ध्यान से जाना। अब हम कितने ही KKK क्यों न हो, मां~-बाप के लिये तो हमेशा मासूम ही रहेंगे। भोला फ़ट से बोला, “मैं कया, तुसी चिंता ई न करो जी। मैं हैगा ना नाल, मैं पूरा ध्यान रखूँगा।” आलोक धीरे से बोला, “तू साथ है, असली चिंता तो इसी बात की है।” सब हंसने लगे। साथ के लिये परांठे बंधवा लिये बहुत सारे। अब ये परांठे ऐसी चीज हैं जी कि एक बार को यमराज भी आ जाये तो पंजाबी उससे १५ मिनट का ग्रेस ले लेंगे कि भगवन, जरा रास्ते के लिये परांठे बन जायें, फ़िर ले चलना। हम भी चल दिये स्टेशन की तरफ़।
गाड़ी दिल्ली से ही बनकर चलती थी, तीनों बर्थ संभाल लीं। रात का सफ़र था, हम शुरू से ही इस मामले में उल्लू रहे(रात्रि जागरण) और वैसे भी अपने साथ वालों की सुख सुविधा का ध्यान रखना हमारा परम कर्तव्य था, पहल भोले को दे गई कि अपनी पसंद की सीट चुन ले। जैसी की उम्मीद थी, अपर बर्थ की हाँ कर दी उसने। थोड़ी देर हमने ताश खेली, फ़िर उसे भूख लग गई। "अजीब आदमी है यार" आलोक बुदबुदा रहा था, "अभी इतना हैवी खाना खाया है और इसे फ़िर से भूख लग गई।" उस समय हुई बात फ़िर से याद आ गई आज। मैंने उससे एक बात पूछी, “गर्मियों में जब सभी प्राणी बेहाल होकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं, गधा उन दिनों में तगड़ा दिखाई देता है और सर्दियों में भी इसी तरह समस्त प्राणी जगत से विपरीत उसका स्वास्थ्य गिरा हुआ दिखता है। वजह जानते हो? दरअसल, गर्मियों में जब कहीं घास नहीं दिखती तो गर्दभ महाशय सोचते हैं कि आज तो मैंने सारा मैदान साफ़ कर दिया और सर्दियों में कितना भी चर ले, जब आंख उठाकर देखता है हर तरफ़ घास ही घास दिखती है। अब वो बेचारा इस गम में दुबला हो जाता है कि कुछ खाया ही नहीं। बिना दिमाग को तकलीफ़ दिये सिर्फ़ मन के भरोसे चलने वाले ऐसे ही होते हैं।” आलोक जोरों से हंस पड़ा और भोला कहने लगा, “हाँ, मुझे भूख तभी लगती है जब सामने खाना होता है। और ये अच्छा ही है।”
एक दो बाजी ताश की फ़िर से लगाईं, आलोक को नींद आ रही थी तो सब अपनी अपनी जगह पर पहुंच गये। भोला सबसे ऊपर वाली बर्थ पर, आलोक बीच वाली बर्थ पर और अपन तो थल्ले थल्ले वाले ही हैं, यारों की बल्ले बल्ले होती रहे बस। सामने वाले से भोला ने पूछा, “भाई साब, हरिद्वार किन्ने वजे पहुंचदी है गड्डी?” जवाब आया, “सो जाओ, सोकर उठोगे तो हरिद्वार ही होवोगे।” सो गये जी सारे अपनी तरफ़ से। आधा घंटा नहीं हुआ था, शायद गाज़ियाबाद स्टेशन पर गाड़ी पहुंची थी कि भोला ने मुझे उठा दिया।
"हाँ बोल?"
"मैन्नू उतली सीट ते नींद नईं आंदी। ओ सीट हिलदी है।"
"ओ यारा, गड्डी चलेगी तो हिलेगी ही, इसमें नया क्या है? तब तो कूद के चढ़ गया था बंदर की तरह।"
"हुण उतर वी गयां न। तुसी चढ़ जाओ आदमियां दी तरह। ओ चा वाले, ल्या चा दे दो तीन। लोक, ओय लोक, उठ जा चा पी लै। ओ उठ जा यार।"
अब आलोक बिचारा कुनमुनाता रहा नींद में और ये कभी उसके कान में गुदगुदी करे कभी बगल में। चालीस पैंतालीस साल के बंदों को ऐसी बच्चों वाली हरकतें करते देखा भी है कभी? खुद तो खैर क्या करेंगे हम लोग, अब हम बड़े हो गये हैं – बच्चे नहीं रहे, है न? आखिर में उसे उठाकर चाय पिलाई जबरदस्ती और नये स्लीपिंग अरेंजमेंट के हिसाब से टिक गये अपनी बर्थों के ऊपर। आधा घंटा भर और हुआ होगा कि भोला ने फ़िर से हड़कंप मचा दिया। "उठो ओय उठो, हरिद्वार आ गया।"
मैं तो अभी सोया ही नहीं था। ऊपर से ही डपटा उसे, “तेरा दिमाग सही है कि नहीं?”
"थल्ले आके देखो तो सही, सामने पढ़या भी जा रहा है थोड़ा थोड़ा, जल्दी आओ।" पहले चढ़ा देते हैं मुझे फ़िर नीचे खींच लेते हैं यार लोग, कोई बात नहीं। नीचे आकर देखा तो हापुड़ स्टेशन था। गुस्सा भी आ रहा था और हंसी भी। "ओये चाचा, हापुड़ आया है।"
"अच्छा, काफ़ी ऐत्थे दी ही कह रये सी न तुसी, बड़ी मशहूर है? आओ लै के आईये।"
"तू ले आ यार, मैं यहीं बैठा हूँ।"
"न जी, कल्ले नईं छडना है त्वानूं, मैं वादा करके आया हूं मां पिताजी नाल। जल्दी करो, गड्डी चल पयेगी।" जाना पड़ा जी, कॉफ़ी भी लाये तीन कप और छोले कुल्चे भी वो सिर्फ़ भोले के लिये। आकर फ़िर से उसने आलोक को ’ओय लोक ओये लोक, कॉफ़ी पी लै’ कह कहकर ऐसे उठाया जिसे पंजाबी में कहते हैं पट्ट पट्ट के उठाना। आलोक तो दुखी हो गया, "सोने दो यार, मुझे नहीं पीनी काफ़ी।" मुझे कहने लगा, "भाई, हद है यार तुम्हारे बंदे की, कैसे झेलते हो।"
"गल्ल सुन लै, असी कल्ले नईं खांदे पींदे कुछ वी।" मैं और मेरा भोला हंस रहे थे। आलोक सो गया फ़िर से और मैं भोला से दो चार बातें करके फ़िर चढ़ गया टंकी पर, सॉरी अपर बर्थ पर। जैसे आधे घंटे का ऑटो अलार्म लगा हुआ हो, फ़िर से मुझे झकझोरकर उठा दिया उसने। देखा तो चेहरा फ़क्क, पसीना टपटप बह रहा था। एक बार तो मुझे लगा कि गाड़ी में कहीं आग लग गई है या डाकू आ गये हैं, पूछा उससे, "क्या हुआ, जल्दी बता?"
"वो आ गया है, चैकर। तुसी सो रहे हो आराम नाल।"
"अबे यार, चैकर आ गया है कि कोई तूफ़ान आ गया है? कहाँ है?"
"वोSS रहा।"
"ओ मामा, हम क्या बिना टिकट हैं? अभी आधा घंटा लगेगा उसे यहाँ तक आने में। अपने आप उठायेगा वो, सोजा और सोने दे।"
" नईं जी, पहले इसनूं जा लैन दो।" बैठना पड़ा जी बीस पच्चीस मिनट और। इसके बाद भी दो तीन बार शेर ने फ़िर उठाया मुझे भी और आलोक को।
सुबह जब उठने का टाईम हुआ तो आलोक की आंखें लाल हुई पड़ी थीं, लेकिन वो समझ चुका था कि झेलना ही है इसे तीन दिन तो अब मजे लेने लगा वो भी इसकी बातों से।
हरिद्वार पहुंच कर दोपहर तक हम कम से कम दस बार गंगा में नहाये बल्कि दो ही काम थे, नहाना और ऊपर बाजार में जाकर कुछ खाना। फ़िर नहाना फ़िर खाना। अकेला कभी जाता नहीं था, हर बार वही अपना वादा याद दिला देता कि त्वानूं अकेला नईं छोड़ना। आलोक हंसता कि वादा निभाना तो कोई इससे सीखे। आलोक को अनुभव ज्यादा होने के कारण वो था प्लानर की भूमिका में, बंदा कार्यपालिका का रोल निभा रहा था और हमारा भोला था जनता जनार्दन के रोल में, जिसे तीन दिन तक खुश रखकर पूरे एक साल तक उंगलियों पर नचाना था कार्यपालिका ने, जैसे एक बार बेवकूफ़ बनाकर अगले पांच साल तक…।
ट्रेन के परिचय के दौरान आलोक ने नीलकंठ चढ़ाई के बारे में इतना ज्यादा बता रखा था कि अपना तो मेन मकसद ही पैदल नीलकंठ मंदिर तक जाना था, भोला खुद एक पहाड़ी और फ़ौजी होने के कारण बहुत उत्साहित था। आलोक के बताये प्लान के मुताबिक हमें दोपहर में ऋषिकेश के लिये निकल लेना था। मालूम किया कि हरिद्वार से लोकल टैंपो भी ऋषिकेश जाया करते हैं, बीस रुपये सवारी की दर से। अब भोला महाराज ने एक फ़च्चर ये बो दिया कि पूरा टैंपो हायर किया जाये हम तीन जनों के लिये। आलोक ने बहुत समझाया कि ये फ़िज़ूलखर्ची है, लेकिन वो नहीं मान रहा था। हमें ही वीटो लगानी पड़ी। कई साल से मेरे साथ था भोला, उसके मन की नहीं समझूंगा तो कैसे उसे किसी बात के लिये कन्विंस कर पाऊंगा। मैंने उससे पूछा कि अगर उसे पांच सौ रुपये दिये जायें तो क्या वो अपनी जान के लिये खतरा मोल ले लेगा, जबकि वो एकदम अकेला है?
बोला, "नहीं इतनी सस्ती नहीं है मेरी जान।"
"तो बस, तुझे जो ये डर है कि ओवरलोड होने के कारण टैंपो उलट न जाये तो ये बेबुनियाद है। पहली बात तो हरिद्वार से ऋषिकेश कोई पहाड़ी रास्ता ही नहीं है और दूसरे टैंपो वाला और हम सब भी तो उसी टैंपो में होंगे। जानबूझकर दो तीन सौ रुपये के लिये कोई भी रिस्क नहीं लेगा।" समझ गया तो मान भी गया। यही होता है कि हम लोग दूसरे के मन की समझते नहीं और अपनी थोपते हैं। और हर कोई खुद को अच्छे से हर जगह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता, कहीं सुपीरियरिटी कांपलेक्स तो कहीं इनफ़ीरियर्टी कांपलेक्स।
मैं खुद महसूस कर रहा हूँ कि ये पोस्ट कोई बहुत मजेदार नहीं बन पा रही है, लेकिन मजेदार ही कहना सबकुछ नहीं है। ये एक पर्सनल डायरी की तरह है। इस ब्लॉगजगत में बहुत कुछ मसालेदार आलरेडी मौजूद है, ये तो एक प्रयास है अपने एक बिछड़े साथी को याद करने का। उसकी जेब में जब पैसे होते तो कंट्रोल का बटन नहीं होता था। खाने का मामला हो या पीने का, उस समय वो हो जाता था ’लिव लाईफ़ किंगसाईज़’ थ्योरी का मानने वाला, उसके बाद फ़िर कुछ दिन चार्वाक सिद्धांत पर चलता और फ़िर उसके बाद कंट्रोल का बटन तो था ही। इसे हैंडल करने का तरीका कुछ अलग ही होता था अपना।
अब जब ऋषिकेश पहुंचे तो लक्ष्मण झूला पहली बार ही देखा था उसने। नीचे विराट जलराशि और ऊपर हिलता हुआ पुल, देखकर हैरान बहुत हुआ। बचपन चूंकि पहाड़ों में बिताया था उसने, चाल अच्छी तेज थी उसकी। मैं और आलोक आगे के कार्यक्रम की बात कर रहे थे और वो पुल के बीच में पहुंच गया था। जब तक हम पुल के बीच में पहुंचे, एक फ़ोटोग्राफ़र उसे घेर चुका था। भोला फ़टी आंखों से नीचे गंगा के विशाल पाट को और तेज प्रवाह को देखकर सम्मोहित सा खड़ा था और नजदीक ही था कि फ़ोटोग्राफ़र की हां में हां मिला दे। आलोक ने बीच में आकर फ़ोटोग्राफ़र को टालना चाहा लेकिन भोला, वो तो फ़ोटो खिंचवाने का वैसे ही बहुत शौकीन था। दोनों आपस में ही उलझ गये, आलोक कहता था कि रुक जा अभी, मैं खुद फ़ोटो खिंचवा दूंगा और भोला की जेब में नोट कुलबुला रहे थे। बात बढ़ते देख मैंने भोला का ध्यान पुल की रेलिंग की तरफ़ दिलाया।
"देख, सरकार कितनी लापरवाह है, इतने लोग आते जाते हैं और इस पुल की मरम्मत तक ढंग से नहीं करवाती। देख ये रिपट बाहर निकल रहा है, एक मुक्का मारूं इसके तो अभी सब जायेंगे नीचे, देख मुक्का मार कर दिखाता हूं" मेरे मुक्का मारने का एक्शन करते ही भोला भागा वहां से, फ़ोटोग्राफ़र भी आवाज लगाता रहा और मैं भी, "ओय सुन तो, रुक तो जरा, ओ भाईसाहब .." और आलोक इतनी जोर से हंस रहा था कि पूछिये मत। फ़ोटोग्राफ़र बेचारा मुंह लटकाये कभी हमें देख रहा था और कभी दूर भागते भोला की पीठ को। जब हम हंसते हुये पुल के पार पहुंचे तो भोला सबकुछ भूलकर अपने फ़ेवरेट काम में व्यस्त था, छोले-कुल्चे खाने में। आलोक फ़िर से एक बार ठठाकर हंस पड़ा। ………. अगली बार – नीलकंठ और…..और…..।
मज़ा आ गया जी!
जवाब देंहटाएं:) ये रोचक सिलसिला यूँ ही जरी रखियेगा सरकार.. और वीडिओ तो आपके..................... ---- कर देते हैं... आज फत्तू क्या जन्माष्टमी की छुट्टी पे है?
जवाब देंहटाएंभोला दि ग्रेट और उनके ड्रामे । पसंद आ गये ।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक रहा यह प्रसंग, वीदिओ ने पुरानी यादें ताजा की !
जवाब देंहटाएंधन्य हैं वे जो भोला को झेल लेते हैं |
जवाब देंहटाएंइतने छोले कुल्चे तो मैने दो तीन बरस में भी ना खाये होंगे :)
जवाब देंहटाएंबिना दिमाग को तकलीफ़ दिये सिर्फ़ मन के भरोसे चलने वाले ऐसे ही होते हैं...
जवाब देंहटाएंऐसे मजाक बनाना बुरी बात है जी ...
मन के भरोसे चलने वाले कही डबल दिमाग तो नहीं चला रहे ...चेक कर लेना चाहिए ...जब से सतीश जी जाहिली वाली पोस्ट पढ़ी है ...उमड़ घुमड़ होता है दिमाग में
और पूरा पोस्ट तो दो चार बार पढेंगे तब दिमाग घूसेगी पूरी तरह ..
कहीं भी जाओ, एक न एक Chosen One तो निकल ही आता है, भगवान ने मनोरंजन हेतु ऐसे लोगों की सब जगह व्यवस्था की हुई है.
जवाब देंहटाएंहापुड़ का हरिद्वार...:) हाहाहा... कुछ वाकये ऐसे हुए हैं अपने साथ भी..
जवाब देंहटाएं"मजेदार ही कहना सबकुछ नहीं है। इस ब्लॉगजगत में बहुत कुछ मसालेदार आलरेडी मौजूद है, ये तो एक प्रयास है अपने एक बिछड़े साथी को याद करने का।"
बिलकुल भी नहीं है..मजेदार और चकमक ही तो नहीं है जिन्दगी..वैसे भी कहते हैं, "morning is not only about grass and dew, its about grasshoppers as well"
सच कि सलाद ही अच्छी लगती है, साफ़ साफ़ सर जी... कोफ्ते नहीं. :)
और आज फत्तू साहब गायब हैं??
ओह.....तो ट्रेन में बगल के केबिन में आप लोग कर रहे थे रात्रि जागरण ....
जवाब देंहटाएंयही होता है ..हम लोग दूसरे के मन की समझते नहीं...
.
.और तभी छोले कुलचे की प्लेट गिर गई थी मेरे बेटे की ..भोले के धक्के से .....
फत्तू की आदत डाल दी और आज फत्तू नहीं है।
जवाब देंहटाएंपंजाबियों की यह आदत सबसे ज्यादा अलग और मजेदार है कि चाहे सफर आधे घंटे का हो, परांठे लेके ट्रेन में बैठेंगें और ट्रेन में बैठते ही खायेंगें।
शुरु का "अ" अक्षर इनके उच्चारण में नहीं आता है।
कौन कहता है कि पोस्ट मजेदार नहीं है, अजी मुझे तो लगता है कि यही है खालिश ब्लॉगिंग, जो आप कर रहे हैं।
हमें तो कहीं से भी आप KKK नजर नहीं आते जी।
लक्ष्मण झूला के कुलचे-छोले तो हमने भी बहुत बार खायें हैं। ऐसे छोले दिल्ली में कहां नसीब हैं।
प्रणाम स्वीकार करें
@गर्मियों में जब सभी प्राणी बेहाल होकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं, गधा उन दिनों में तगड़ा दिखाई देता है और सर्दियों में भी इसी तरह समस्त प्राणी जगत से विपरीत उसका स्वास्थ्य गिरा हुआ दिखता है। वजह जानते हो? दरअसल, गर्मियों में जब कहीं घास नहीं दिखती तो गर्दभ महाशय सोचते हैं कि आज तो मैंने सारा मैदान साफ़ कर दिया और सर्दियों में कितना भी चर ले, जब आंख उठाकर देखता है हर तरफ़ घास ही घास दिखती है। अब वो बेचारा इस गम में दुबला हो जाता है कि कुछ खाया ही नहीं।
जवाब देंहटाएंये तो सबसे मजेदार था आपने कहा सुना इसे |
@बिना दिमाग को तकलीफ़ दिये सिर्फ़ मन के भरोसे चलने वाले ऐसे ही होते हैं।”
यदि मन की कभी सुने ही नहीं तो इन्सान इन्सान ही नहीं रहेगा वो गधा बन जायेगा |
भोले का छोले कुल्चे का शौक देखकर दंग रह गये...हा हा!! रोचक है वृतांत..चलिए, अब नीलकंठ की ओर!
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक आलेख. आज फ़त्तू कहीं काम धंधे पै निकल गया के?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
अभी तय नही कर पाया हूं गधा वाला किस्सा मजेदार है या भोला वाला
जवाब देंहटाएंदास्ताँ अच्छी है ...
जवाब देंहटाएंपर फत्तू को मिस कर रहे है ...
_________________
एक ब्लॉग में अच्छी पोस्ट का मतलब क्या होना चाहिए ?
अब हम कितने ही KKK क्यों न हो, मां~-बाप के लिये तो हमेशा मासूम ही रहेंगे।
जवाब देंहटाएंएक तो समझाओ KKK . KKK कि क्या बला है .........
और दूसरे भाई आज फत्तू ससुराल गया है कया ........ भाई साथ लाया करो..... अकेले आते अछे नहीं लगते.....
@ दीपक मशाल:
जवाब देंहटाएंफ़त्तू का कल उपवास था भाई।
@ हेम पाण्डेय जी:
सर धन्य तो आप लोग हैं, जो हमें झेल रहे हैं।
@ अली साहब:
जितनी मिर्च हमारा भोला एक महीने में खा जाता था, उतनी हम जैसों को सारी उम्र के लिये बहुत है, यकीन मानिये।
@ वाणी जी:
कोई ऐसा मीटर हो जिससे चेक कर सकें ये सब, तो बताईयेगा, ताउम्र आभारी रहूंगा।
@ अविनाश:
तुम्हारे तो सब डायलाग नोट कर रहा हूं प्यारे।
@ अर्चना जी:
जवाब देंहटाएंभोला के सामने कोई और छोले कुल्चे खाये और वो देखता रहे, ऐसा हो नहीं सकता जी। हम भोला की तरफ़ से आपके बेटे से सॉरी मांगते हैं।
@ अंतर सोहिल:
अमित, ये KKK वाला हमारा शैडो व्यक्तित्व है, सब को नहीं दिखता।
@ ताऊ रामपुरिया:
ताऊ, किम्मे खा कमा ल्योण दो फ़त्तू नै,घणा बिगड़ गया था ठाली बैठे बैठे।
@ CORAL:
मिसेज़ सैल, "एक ब्लॉग में अच्छी पोस्ट का मतलब क्या होना चाहिए ?" मैं तो आजकल के चलन के हिसाब से इसे भी आपकी किसी पोस्ट का लिंक समझ रहा था, लेकिन शायद यह आपका प्रश्न है। इसका जवाब हरेक के लिये अलग अलग है। जैसी भावना वैसा मायना। सोचने के लिये एक अदद विषय मुहैया करवाया आपने, आभार आपका।
और फ़त्तू भी तो आप सबको मिस करता है, तभी तो लंबी छुट्टी नहीं जाता। थैंक्स अगेन।
@ दीपक बाबा:
दीपक जी, kkk means Kutil Khal Kaami. मो सम कौन का गोपन लेकिन असली रूप। हा हा हा, खा गये न गच्चा।
फ़त्तू अकेला आता तो अच्छा लगेगा ना?
जवाब देंहटाएंचलते रहिये .. मैं देखता चल रहा हूँ । मुँह में बड़ा मज़ेदार ज़ायका आ रहा है ।
यार छोले भठ्ठूरे और परांठे .इसके बिना भी क्या जीना है..हद है.....वैसे चंगा रहदा है अजेहे बंदे होंदे हैं न दोस्त तां....मजा आता है और कई बार मन करता है कि ..किसी का सिर पकड़ कर दिवार में दे मारें. अपना औऱ भोले टाइप के दोस्त का नहीं....हाहाहहाहाहा
जवाब देंहटाएंयदि किसी को ज्ञात हो गया कि आपका इतना मनोरंजन होता है ट्रेन में, तो किराये के साथ साथ मनोरंजन टैक्स भी भरना पड़ जायेगा।
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को पढ़कर कौन कहेगा की मजेदार पोस्ट नहीं है......KKK का मतलब मैं कुछ अपने KLPD जैसा ही निकल रहा था पर अपने मामला उल्टा कर दिया.... अब KLPD क्या होता है ये मत पूछना.....
जवाब देंहटाएंडॉ.अमर कुमार जी:
जवाब देंहटाएंवो आये हमारे.....,.......देखते हैं। आज खुद की पीठ ठोक रहा हूं। शुक्रिया सर।
boletobindas:
कई बार तो लोग खुद ही सर दीवार में मारने लगते थे दोस्त, था वो भी टाईम। तुम हंसे, शुक्रिया।
प्रवीण पाण्डेय जी:
एक हंसी तो बची थी, वो भी फ़ंस गई अब सरकारी शिकंजे में। भर देंगे सर, ये टैक्स भी भर देंगे, मनोरंजन होना चाहिये बस्स।
@ विचार शून्य:
जवाब देंहटाएंबन्धु, मैं तो नहीं पूछूंगा लेकिन कोई और जरूर पूछ सकता है। सावधान रहना, हा हा हा।
achhi daastaan
जवाब देंहटाएंBeautiful narration ! and of course mouth watering !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचंगी पोस्ट!मज़ा आया!बल्कि कहें तो स्वाद ज्या आ गया!
जवाब देंहटाएंांरचना जी से तो माफी माँग कर जान छुडा ली मगर मुझे त्6ओ खिलाने पडेंगे। मुझे अमृतसर के कुलचे छोले याद आ गये कदे जामुना वाले सडक लारेंस रोड ते गये ताँ खा के आणा। पर इह नही पता कि हाले वी हन कि नई । इह तां 1970 दी गल है जद मै मेडिकल कालेज विच पढदी सी। बहुत मज़ेदार पोस्ट है। बधाईयाँ।
जवाब देंहटाएं@गर्मियों में जब सभी प्राणी बेहाल होकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं, गधा उन दिनों में तगड़ा दिखाई देता है और सर्दियों में भी इसी तरह समस्त प्राणी जगत से विपरीत उसका स्वास्थ्य गिरा हुआ दिखता है। वजह जानते हो? दरअसल, गर्मियों में जब कहीं घास नहीं दिखती तो गर्दभ महाशय सोचते हैं कि आज तो मैंने सारा मैदान साफ़ कर दिया और सर्दियों में कितना भी चर ले, जब आंख उठाकर देखता है हर तरफ़ घास ही घास दिखती है। अब वो बेचारा इस गम में दुबला हो जाता है कि कुछ खाया ही नहीं।
जवाब देंहटाएं........... गधे का नाम बैशाखनन्दन इसीलिए पड़ा है !!
रोचक प्रसंग को बड़े प्रभावी ढंग से बयां किया है.....
जवाब देंहटाएंऐसे वाकये कई तरह की सीख दे जाते हैं। उम्दा पोस्ट ....
interesting..
जवाब देंहटाएंबिछड़े सभी बारी-बारी.
जवाब देंहटाएंपोस्ट से इस बार फत्तू,
क्या अगली बार
वीडिओ किल्प की तैयारी?
नहीं ना....
चुटकुले सीमित हो सकते हैं. विचार नहीं. ...... सच है ना.
संस्मरणों की एक किताब छपवा ही दीजिये...
जवाब देंहटाएंब्लॉग से बाहर भी दुनिया ..बहुत बड़ी है...और यह एक धरोहर भी होगी...आने वाली पीढ़ियों के लिए
बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......
मेरे ब्लॉग कि संभवतया अंतिम पोस्ट, अपनी राय जरुर दे :-
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html
कृपया विजेट पोल में अपनी राय अवश्य दे ...
..मैं खुद महसूस कर रहा हूँ कि ये पोस्ट कोई बहुत मजेदार नहीं बन पा रही है, लेकिन मजेदार ही कहना सबकुछ नहीं है। ये एक पर्सनल डायरी की तरह है। इस ब्लॉगजगत में बहुत कुछ मसालेदार आलरेडी मौजूद है, ये तो एक प्रयास है अपने एक बिछड़े साथी को याद करने का। ..
जवाब देंहटाएं..मजेदार है। लेखन शैली भी जोरदार है। मै ही पूरा नहीं पढ़ पा रहा था नेट के कारण। आज तीनो भाग पूरा पढ़ गया। चौथा होता तो वह भी पढ़ जाता. इतना ही पर्याप्त है, इससे ज्यादा क्या मजेदार होना है। भोला का पात्र सजीव हो कर सामने आ गया। जीवन में ऐसे पात्र ही जिंदगी को खुशनुमा बनाते हैं और जब तक वे साथ रहते हैं हम उनका महत्व नहीं समझ पाते। अगली कड़ी की प्रतिक्षा में..
बहुत मस्त!
जवाब देंहटाएंभोले जी की हरिद्वार यात्रा का इंतज़ार था. और सच कहूँ तो इतनी बढ़िया पोस्ट पढ़कर तबियत खुश हो गई.
भोले जी की जय हो!!
बड़े बड़े लेख हैं आपके। कभी पढ़ूंगा। वैसे बिछड़े सभी बारी-बारी एक किताब गुरुदत्त पर।
जवाब देंहटाएं