सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

अपने हिस्से का दाना पानी..

पिछली पोस्ट ’जिन्दा या मुर्दा?’ पर दिये कमेंट में मेरे दोस्त ’विचार शून्य’ ब्लॉग के श्री पाण्डेय जी का कमेंट यह था -

“अपने ५० वर्ष कि उम्र से प्रताप कि कथा शुरू की. इससे पहले वो कैसा था ये उसकी पत्नी और बच्चों की हालत से थोडा बहुत पता चलता है. इस विषय में मैं अपनी एक ऑफिसर की बातों को दोहराऊंगा. वो कहती थीं की हमारे जीवन में जिस प्रकार हमारी सासों का कोटा बंधा है वैसे ही हमें अपने जीवन काल में कितना कार्य या कितनी मेहनत करनी है इस बात का भी कोटा बंधा है. जो लोग अपने हिस्से का कार्य अपनी जवानी में ही ख़त्म कर लेते हैं उनका बुढ़ापा मजे में कटता है और जो जवानी में अपने हिस्से का कार्य नहीं करते उन्हें बुढ़ापे में उसे ख़त्म करना पढता है. मैं इस बात में पूरी तरह से विश्वाश करता हूँ. 
मुझे लगता है की प्रताप अपने हिस्से का काम कर रहा है और मेहनत करना मुर्दा होना कतई नहीं है. बुढ़ापे में मेहनत करना उसकी अपनी चुनी हुई राह है बस वो इस बात से अनजान है और इसलिए दुखी है.”


दोस्त,  अधिकारी की बात में विश्वास करना ही चाहिये, फ़िर यदि महिला अधिकारी हो या अधिकारी महिला हो तो विश्वास करने के अलावा कोई दूसरा ऊपाय रहता भी नहीं। तुम्हारे विश्वास की मैं कदर करता हूँ, यकीन दिलाने के लिये एक और छॊटी सी सच्ची कहानी, जो लगभग इसी सिद्धांत को बल देती है, पेश है।

वो थोड़े  दूर के  रिश्ते में मेरा चाचा लगता  है। उम्र उसकी मेरे आसपास होने के कारण हमारा आपस में चाचा-भतीजे की बजाय यारों-दोस्तों वाला रिश्ता था। मुझसे चार-पांच साल बड़ा रहा होगा। शुरू से ही पढ़ाई वगैरह बेकार की बातों से उसे एलर्जी थी और दुनियादारी के दूसरे कामों का शौक। छोटी उम्र में ही कई बड़े शौक पाल लिये थे। घरवाले और दुनिया वाले उसे बिगड़ा हुआ ही मानते थे, आज का समय होता तो ’थ्री-ईडियट्स’ के रैंचो से मिलता जुलता पात्र होने के कारण तारीफ़ पा रहा होता, वही करो जो मन को अच्छा लगे। आमतौर पर मैं छुट्टी वाले दिन अपनी छत से देखता कि सूरज सर पर आ गया है लेकिन वो मुंह पर चादर लेकर अपनी छत पर सो रहा है। मुझे अजीब लगता। पूछने पर कहता, “यार, रात को यार-दोस्तों के साथ बहुत देर तक घूमता रहा, ऐसा समझ कि सुबह तो सोया ही हूँ।" बीड़ी-सिगरेट, सिनेमा, घर से भाग जाना और कई ऐसे काम वो धड़ल्ले से किया करता था कि हम उसकी बुराई भी करते तो इसलिये कि हम वो सब नहीं कर पा रहे थे। लेकिन उसकी ये सभी बुराईयां ऐसी थीं कि वो किसी का नहीं, अपना ही नुकसान कर रहा था। लड़ाई झगड़ा, मारपीट, धोखेबाजी, बदतमीजी जैसी कोई शिकायत कभी नहीं आई। तो उसके घर के लोग और हमारे जैसे शुभचिंतक भी दिल से दुखी हुआ करते थे कि वो खुद को बर्बाद कर रहा है। लेकिन उसे इस सब में मजा आ रहा था। मैं उसके बिगड़ैलपन को एक किस्म का निर्दोष स्वभाव मानता था, जो मन किया वही कर लिया, यही तो आज हमें सिखाया जाता है, बेशक उसे नाम स्वतंत्रता का दे दें या कुछ और। खैर जिंदगी यूँ ही चले जा रही थी।

हम किताबों में उलझे थे, वो जिन्दगी जी रहा था। पढ़ाई, नौकरी के बाद घरवालों ने हमें आबाद भी कर दिया  और वो अभी भी ऐश  की जिन्दगी गुजार रहा था। उसकी शादी मेरी शादी के बाद हुई। लेकिन शादी के फ़ौरन बाद ही उसमें बहुत अंतर आ गया। सारा समय घर पर ही बीतने लगा, पुरानी बहुत सी आदतें छूट गईं, लेकिन एक आदत नहीं छूटी – देर तक सोने की। खुद कहा करता था कि ये नहीं हो पा रहा।

शादी को पांच छ साल बीत गये, बहुत सुखद गॄहस्थ जीवन चल रहा था। घरवाली ऐसी मिली, जो गरीब घर की थी और पढ़ी लिखी भी नहीं थी लेकिन घर, घरवाले और बच्चों को बहुत अच्छी तरह से संभाल रही थी। एक सुबह, शायद आठ बजे होंगे और वो गहरी नींद में सोया था कि उसकी ससुराल पक्ष की तरफ़ से एक महिला घबराई सी हालत में आई। कोई लड़का सुबह सुबह जबरदस्ती उनके घर में घुस आया था। उसे कमरे में बंद करके वो इसे बुलाने आई थी कि चलकर देखो उसे। मना कर नहीं पाया, कच्ची नींद में ही दौड़ पड़ा। उस घर के पडौस में ही दो भाई रहते थे, जो बचपन से ही इसके हमप्याला, हमनिवाला, हमसफ़र और हमराज रहे थे। उनकी नजर पड़ी तो वो भी चले आये और जब जाकर उस लड़के से गुस्से में बात कर रहे थे तो बात कुछ इस कदर बिगड़ी कि बिगड़ती गई।
शाम तक जब मैं ऑफ़िस से आया तो सारी बात मालूम चली। वो लड़का अस्पताल में था और रात आते आते चल बसा। केस दर्ज हो गया और तीनों हत्या के जुर्म में पकड़ लिये गये। जिसने चींटी भी नहीं मारी थी, आज वो हत्या के इल्जाम में जेल में था। कई महीने जेल में रहा, उसके बाद जब जमानत पर बाहर आया तो फ़िर उसने ये वाक्या बताया जिसके चक्कर में इतना बड़ा तंबू तान रहा हूँ।

शुरू में बहुत सी बातों के कारण जेल में उससे खाना नहीं खाया जाता था। मन ही नहीं करता था, एक कौर भी गले से नीचे नहीं उतरता था। रोज रोज घर से भी खाना नहीं जा सकता था, बहुत दिक्कत होने लगी थी। सिर्फ़ उतना ही खा पाता था कि जिन्दा रह जाये। बाकी रोटी दूसरे कैदी खा लेते थे।   चार पांच दिन में ही वजन बहुत कम हो गया।  जो भी मुलाकात करने जाता, उसकी कमजोरी बढ़ते देखकर और भी दुखी होता।

ऐसे में ही एक दिन उसके नाना जी, रहे होंगे अस्सी पिच्यासी साल के, उससे मुलाकात करने गये। देखा तो वो भी उसकी सेहत देखकर हैरान हो गये। उसे समझाने लगे,   “जैसे सांसे गिनती की हैं, दाना पानी भी गिनती का है। अगर तेरी किस्मत में ऐसा लिखा है कि तुझे पचास किलो आटा जेल का खाना है तो बेटा, खाना ही पड़ेगा। अब ये तुझ पर है कि उसे पचास दिन में खत्म करता है या पांच सौ दिन में, निबटाये बिना गुजारा नहीं है।” उस बुजुर्ग की इतनी सी बात ने उसका नजरिया बदल दिया। जो सजा काट ली, उसे भूल कर पूरे जोश से बाकी सजा भी काटने को तैयार हो गया और जहाँ एक रोटी खाता था, अब पूरी खुराक खाने लगा ताकि उसके हिस्से का जेल का आटा, दाल जल्दी से जल्दी खत्म हो और वो घर लौटे।

उधर से उसने खोई हिम्मत पाई, तो  तबदीर का साथ देने में तकदीर भी क्यों पीछे रहती? कुछ ही दिनों में जमानत मिल गई और वो बाहर आ गया। और पूरे मन से पेरेंट्स, परिवार और बीबी बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य निभा रहा है। अब तो कई बार कहता है कि ये चोट लगनी जरूरी थी, नहीं तो मुझे अपनों की पहचान ही नहीं होती।

जिस दिन ये बात उसने बताई,  हम दोनों बैठे हुये अपनी अपनी फ़िक्र को धुयें में उड़ा रहे थे।  मैंने भी उसकी बात से कुछ सीख लिया। दुख हो. तकलीफ़ हो, कार्याधिकता हो या कुछ और, जिस दिन ये मान लिया कि ये इस जेल का आटा दाल हैं और इन्हें खत्म करके ही जेल से छुट्टी मिलेगी, उस दिन से हर गम, दुख, घाटा, तकलीफ़ का आगे बढ़कर स्वागत करता हूँ। आओ जल्दी से मेरे पास, जल्दी आओगे तभी तो जल्दी जाओगे और  मेरी जमानत होगी। फ़ायदे वाली बात के लिये धक्कामुक्की पहले भी नहीं करता था, अब और ज्यादा निश्चिंत होकर लाईन में सबसे पीछे खड़ा हो जाता हूँ, वो भी अगर लाईन में लगना जरूरी हो। दीगर चीजों के लिये समझिये एवररेडी की बैटरी।  एक बात और सीखी कि जल्दबाजी में कोई काम न ही करें तो बेहतर होता है।

समय सब निकल जाते हैं, अच्छे नहीं रहते तो बुरे भी क्यों रहेंगे भला? प्राथमिकता अपन बुरे समय को ही देते रहे हैं जी, बाद में सुकून से रहेंगे। और अपने लिये ये फ़ार्मूला कामयाब रहा भी है। दूर दूर तक कोई गम नहीं, कोई गम का निशान नहीं,  कोई  हैं तो हम-बेगम, बस्स। हर तरफ़ रोशनी ही रोशनी है, नजारे ही नजारे हैं। अब तो कई बार गमों को खुद आवाज लगाता हूँ कि यारों, कोई नाराजगी है क्या? तुम तो पक्के साथी थे अपने फ़िर अब क्यों नहीं आते हो? इसका मतलब अपना कोटा लगभग पूरा है।

सलिल-चैतन्य सरद्वय, ये आपकी टिप्पणी के सन्दर्भ में भी है। ये लतीफ़े वगैरह हैं सब बहुत  पिछले जमानों के, बस थोड़े से ही बचे हैं अब। यहाँ तो अगर कभी कोई गम की बात किसी को लगी भी तो इसीलिये कि कभी कभी ब्लॉगर होने की कोशिश कर लेते हैं कि कोई सिम्पैथी के चलते ही सही, कमेंट तो कर जाये क्योंकि कमेंट पाना ही यहाँ का सबसे बड़ा लक्ष्य है। कमेंट से ज्यादा की आशा करने लायक अपनी झोली है भी नहीं और आप लोग भी बेवजह ये सोचकर दुखी न हों कि ये बंदा बेचारा दुखी है। कोई दुखी वुखी नहीं हैं जी, थोड़ा सा ड्रामा कभी कभार करना पड़ता है और वो ’मो सम कौन कुटिल खल कामी’ नहीं करेगा तो और कौन करेगा? न यकीन हो तो नीचे अमित की टिप्पणी पढ़ लीजियेगा। सच में, अगर मुझे सहानुभूति और सहारे की जरूरत होती तो क्या मैं ऐसा लिखता या ऐसे छुप छुप कर रहता? इतना तय है कि अपन ड्रामेबाज एक नंबर के हैं, कल को कैरियर स्विच-ओवर करना हो तो रिस्क ले सकते हैं। पब्लिक को बनाना ही तो है, बना लेंगे।

मोटी सी बात – अपने हिस्से का दाना पानी लगभग पूरा है, जाने कब से।  अब चैन ही चैन है और सुकून ही सुकून।

आज फ़त्तू की जगह कुछ और चलेगा?  बरसों पहले कभी हर सांस के साथ दुहराता था इन्हें।  कुछ पंक्तियां एक उस्ताद शायर की, बताईये तो किसकी हैं?

हिम्मत-ए-इल्तिज़ा नहीं बाकी.
ज़ब्त का हौंसला नहीं बाकी।
एक तेरी दीद छिन गई मुझसे,
वरना दुनिया में क्या नहीं बाकी।
अपनी मश्के-सितम से हाथ न खींच,
मैं नहीं या वफ़ा नहीं बाकी।
तेरी चश्म-ए-अलम नवाज़ की खैर,
दिल में कोई गिला नहीं बाकी।
हो चुका खत्म अहद-ए-हिज़्रो-विसाल,
ज़िन्दगी में मज़ा नहीं बाकी।
ज़िन्दगी में मज़ा नहीं बाकी॥

और गाना भी सुनकर बताईये कि मैचिंग मूड़ का है या कंट्रास्ट मूड़ का? हा हा हा...

31 टिप्‍पणियां:

  1. lekhan me bandhe rakhane kee kshamata hai...........

    Fattu ko mis kiya.......

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  2. साँसों का कोटा है, मेहनत का कोटा है, जीवन अपने आप में एक वरदान है, जी लेने के लिये।

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  4. आपका लेख पढ़ कर तो कोटे वाली मान्यता पर विश्वास सा होने लगा है |

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  5. जीवन में मुश्किल घडी को काटने का फंडा तो अच्छा है पर शायद हमारे और आप के लिए लेकिन कई बार दुःख इस तरह का होता है कि कोई फंडा काम नहीं आता है | कई ऐसे लोगों को भी देखा है जो बेचारे सारा जीवन दुखो से बाहर आने में लगा देते है पर दुख है की दरवाजे से जाने का नाम ही नहीं लेता है | जीवन बीत जाता है पर दुख और परेशानिया नहीं जाती है हालत ये होती है की बेचारे हाथ लगते है तो सोना भी मिटटी बन जाता है | में खुद ईश्वर की शक्ति में विश्वास नहीं रखने वाली कई बार ऐसा मन में सोचा है की हे ईश्वर कही हो तो इनके दुख दूर करो पर ईश्वर ना मेरी सुनाता है ना उनकी पता नहीं उसने कितने दुख के दिन उनकी किस्मत में लिखा है | मुझे नहीं लगता की इस तरह का कोई भी फलसफा फंडा ऐसे लोगों के काम आएगा |

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  6. इस विषय में विचार शून्य ही कुछ कहें तो बेहतर होगा ! हम तो जीवन में ऐसा होता रहता है बोल के काम चला रहे हैं :)

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  7. और एक बात ये कि अदा जी नें आपके परिचय मुबारक के पंख कुछ ज़्यादा ही कतर दिए हैं :)

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  8. @ Apnatva:
    सरिता मैडम, फ़त्तू फ़िर आयेगा। धन्यवाद।

    @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    हालात और नजरिया ही तय करते हैं कि जीवन वरदान है या अभिशाप।

    @ अदा जी:
    मैं शायद ठीक से कह नहीं पाया, निर्दोष नहीं था वो। अपराध में सहभागिता तो थी ही, ज्यादा डिटेल इसलिये नहीं दिया कि मेन फ़ोकस उस बुजुर्ग के सिखाने के ढंग पर डालना चाह रहा था. पोस्ट की लंबाई और सभी संबंधित पात्रों की व्यक्तिगत पहचान न उजागर हो, ये भी उस प्वायंट को थोड़े में समेटने का कारण था। बढ़िया, लाजवाब, यकीन, अच्छा आदि के लिये धन्यवाद, आभार आदि हम व्यक्त करेंगे जी, आप नहीं। आज आपका कमेंट बिना हस्ताक्षर के कैसे रह गया जी?

    @ हेम पाण्डेय जी:
    आभारी हूँ सरजी।

    @ anshumala ji:
    ईश्वर, विश्वास आदि बहुत जटिल विषय हैं जी, हरेक के लिये अपनी तरह का। मुझे जो थ्योरी सबसे अच्छी लगती है वह कर्मफ़ल और गीता के अनुसार आत्मा के अजर-अमर होने वाली है। कर्म और उनके फ़ल किसी भी हिसाब की तरह जन्म-दर-जन्म carry forward & brought forward होते हैं। मैं ऐसा मानता हूँ, लेकिन और भी इसे मानें ही, ऐसी बाध्यता नहीं है। बहुतों के काम न आये, मेरे काम आई और हो सकता है किसी एकाध के और भी काम आ जाये। अपना काम तो अपना अनुभव बता देना है जी, जिसे अच्छा लगे वो अपना ले नहीं तो..... देखी जायेगी, और क्या!

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  9. पहली बार या शायद दूसरी बार मिसकोट किया गया…सुबह चैतन्य भाई ने फोन किया और कहा क्या लिख आए हो तुम और क्या मतलब है संजय भाई का. मैंने कहा बात टुकड़ों में तो याद है पूरे तौर पर देखकर बताउँगा... उन्होंने पोस्ट कॉपी पेस्ट करके भेज दी. समझ मैं भी नहीं पाया. अपना कमेंट ग़ौर से देखा तो लगा कि ये तो मैंने अपनी बात कही थी.
    अरे संजय बाऊजी! एक बार फिर से देखो. लतीफ़े और मुस्कुराहट दोनों मैंने अपने लिए कहा था. इतना बेवक़ूफ़ मैं ही हो सकता हूँ. प्रताप की कहानी से मुझे अपना एक पुराना वाक़या याद आ गया, वो थोड़ा सेंटीमेंटल था, इसीलिये लिख गया! फिर भी आज का वाक़या बहुत पसंद आया. जीवन का दर्शन बदल गया!! धन्यवाद!!

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  11. जैसा लिखा है किस्मत मे वैसा तो भोगना है . दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम यह भी सही है

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  12. @ अली साहब:
    ’विचार शून्य’ बन्धु पर तो मुझे बहुत भरोसा है, वो कहेगा जरूर। आप काम चलाईये, हमारी देखी जायेगी।
    बरसों पहले एक नुमाईश में मिठाई की दुकान पर बैनर पर लिखे देखा था.
    "लिखा परदेस किस्मत में, वतन को याद क्या करना,
    जहाँ बेदर्द हाकिम हो, वहाँ फ़रियाद क्या करना।"
    हाकिम को अख्तियार है कि पर कतरे या सर कतरे, हम फ़रियाद नहीं कर सकते।

    @ चला बिहारी ....
    सलिल सर, कन्फ़यूज़न के लिये माफ़ी।
    बेवकूफ़ी और हिमाकत में आपके अलावा और भी हैं जो इतने और कितने बेवकूफ़ हो सकते हैं। आपका वो वाकया जानने की उत्कंठा है।

    @ काजल कुमार जी:
    भाई जी, यकीन कर लो किम्मे न किम्मे रचता होयेगा फ़त्तू।

    @ अदा जी:
    अरे वाह, चुपड़ी और दो दो। इतना बढ़िया एक्सप्लेनेशन दिया है आपने, आप वाकई शब्दों की जादूगरनी हैं।
    धन्यवाद।

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  13. आज तो बस सुकून ही सुकून है, चैन ही चैन...हमें भी.

    मोटी सी बात इतनी मोटी है की किसी भी मोटी बुद्धि में मोटी से बैठनी चाहिए...हम चमड़ी मोटी किये रहते हैं ये अलहदा बात है.

    बाकी सुकून हो तो शब्द नहीं निकलते न??...एकटक मुस्कान है बस आज चेहरे पर...लम्बी वाली :)

    आज बस...thank you sir ji!!!

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  14. अन्दाज़ तो अपने बडे भाई ज़फर का है मगर फैज़ का भी अन्दाज़ कुछ कम नहीं है, सुनेंगे दो-चार घंटे कभी मिले तो!

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  15. कभी "मोसम आयेंगे जायेंगे...." भी सुना दो भाई, ज़माना गुज़र गया सुने हुए.

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  16. अभी फत्तू मिला ..... cwg में कुश्ती देख रहा था ..... मैंने कहा क्यों आज, संजय भाई के यहाँ नहीं गए..... नू बोल्या... बिन न्योते के तो अपने घर भी ना जोऊ.

    भाई फत्तू ने न्योता दे दिया कर.

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  17. बड़े भाई अभी कुछ दिनों तक और ब्लॉग पर नहीं आ पाऊंगा , बहुत व्यस्त हूँ ,,अभी गाँव में हूँ , यहाँ पर नेट की व्यवस्था नहीं है ,,,कुछ जरुरी mail चेक करने आता हूँ कभी कभी ,,,, मुझे भी आप सब दोस्तों की बड़ी याद आ रही है ,,,बस कुछ दिन और इन्तजार करना होगा ,,,,,अभी अनुमति दे !
    - राजेंद्र मीणा
    अथाह...

    !

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  18. संजय जी

    मै भाग्य के बजाये कर्म पर ज्याद विश्वास करती हु | फिर भी परेशानियों से लड़ने के आप के फंडे से सहमत हु मैंने पहले ही कहा है | मेरे कहने का अर्थ है की हमारे और आप के जीवन में जो छोटी मोटी समस्याये आती है तनाव आता है उससे तो हम मजे से लड़ सकते है बिना डरे और घबराए पर जिनके जीवन में समस्याए जाने के नाम ही नहीं लेती है उनके लिए ये तरीके काम नहीं आयेंगे |

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  19. @ धीरू सिंह जी:
    दाने दाने वाली बात भी ठीक है, भुगतना तो उतना ही है जितना प्रारब्ध में है, तो बेहतर है कि हंसते गाने भुगता जाये।

    @ Avinash Chandra"
    सही है राजा, थैंक यू सरजी कहकर टहला दिया हमें। अकेले अकेले बनारस घूम आये, फ़त्तू बेचारा बाट देख रहा था साथ जाने की, उसका क्या?

    @ smart Indian ji:
    आपका फ़र्मूला सही है उस्ताद जी। जो पूछा सो बताया नहीं आगे के लिये और होमवर्क दे दिया।

    @ deepak baba:
    समझ गया जी, हमसे ज्यादा फ़त्तू प्यारा हो गया है। देखी तेरी यारी! भेज दिया भाई न्यौता, आ जायेगा अगली बार।

    @ राजेन्द्र मीणा:
    फ़िकर नॉट राजेन्द्र, जिम्मेदारियाँ पहले ये सब उसके बाद। जब भी आओगे, स्वागत।

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  20. बहुत बढ़िया वाकया है ! ये जो सीख मिलते हैं वो अनमोल हैं ... जीने की हिम्मत देते हैं ...

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  21. मीना कुमारी की एक ग़ज़ल है, "जिसका जितना दामन था, उतनी ही सौगात मिली"

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  22. अपने हिस्से की तकलीफ जितनी जल्दी इन्सान भुगत ले..उतनी ही जल्दी वो खुशियों के करीब हो जाएगा. तभी तो पश्चाताप की महिमा का वर्णन हमारी शास्त्रों मे मिलता है। तकदीर से न कुछ कम न अधिक किसी को मिला है न मिलेगा। बहुत अच्छी लगी पोस्ट। धन्यवाद।

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  23. @ anshumala ji:
    मैं भी आपकी बात को ही एंडोर्स कर रहा हूँ। जिन्हें लाभ हो सकता है वे तो उठायें लाभ। भाग्यवादी होने से कर्मशील होना हर सूरत में अच्छा ही है।

    @ Indranil Bhattacharjee:
    आपको फ़िर से यहाँ पाकर बहुत खुशी हुई सैल साहब। धन्यवाद।

    @ P.N.Subramanian ji:
    सर, सही बात है दामन के हिसाब से ही सौगात मिलती है, माथे के हिसाब से ही तिलक लगता है। आभारी हूँ सर, आपके यहाँ पधारने का।

    @ निर्मला कपिला जी:
    यही कहना चाहता था जी कि फ़िर रोकर क्यों झेलें? हंस कर क्यों ज जिया जाये।
    आपका बाजरे दी मुठियां वाले अनुवाद की शुरूआती पोस्ट बहुत अच्छी लगी थी। आभार स्वीकार करें।

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  24. सर जी नमस्कार, क्षमा चाहता हूँ की देर हो गयी. कंप्यूटर में कुछ खराबी थी जो अब ठीक है. मैं डर रहा था की कंप्यूटर और मेरा साथ जितने समय का लिखा है कहीं वो समय मैंने ख़त्म ना कर दिया हो पर लगता है की ये साथ अभी देर तक चलेगा. मेरे विश्वास पर अपनी सहमति की मोहर लगाने के लिए धन्यवाद. अब तो सोचता हूँ की ब्लॉग पर पोस्ट भी कम लिखूं कहीं इनका भी कोई कोटा ना बंधा हो. और टिप्पणियां उनका भी कोटा शायद तय होगा.... अरे बाप रे ये बात समीर जी को बतानी होगी.....

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  25. कुछ जगहों पर क के ऊपर छोटी इ की मात्र लगनी थी पर बड़ी ई की मात्र लग गयी है. टिप्पणी ठोकने की जल्दीबाजी ऐसे कार्य करवा देती है.

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  26. सर जी,
    ले तो जाते फत्तू को पर जो लोग कहते हैं, "और बेटा कैसे हो? बड़े दिन बाद आना हुआ!" वो भी कन्नी काट जाएँगे, आखिर स्टारडम का डर तो हम भूतपूर्व पेज १५ वालों को भी है न?
    फत्तू साहब की प्रसिद्धि से डरना लाजमी है.
    हा हा हा!

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  27. रोचक ढंग है बयान करने का , जानकारी तो बढ़िया है ही ..मन का तापमान नियंत्रित रखने की ..

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  28. is post ke liye aabhaar | anshumala ji ne jo kaha - koi koi dukh aise hote hain ki ... us baat se sahmat .

    lekin yah funda jo bujurg uncle ne diya ki jitna kaatna hai jaldi hi kat jaaye to behtar - bahut accha hai - practical bhi |

    i mean jhelne vaale ke attitude ke liye to bahut accha hai, par aate nahi n dukh us order me ?

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  29. इस दर्शन को खूब जीने की कोशिश करता हूँ

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