सोमवार, नवंबर 01, 2010

काँपी थी ये जमीन जब.....

"वन इलैवन ऐटी फ़ोर", यही कहा था उनमें से किसी एक ने और वो जो हरदम हँसता रहता था उसके चेहरे के रंग बदलने लगे थे। चेहरा लाल हो गया था, उत्तेजना के कारण मुँह से गालियों के साथ थूक निकलने लगे थे। सर पर पगड़ी तो हमेशा ही अस्त-व्यस्त रहती थी, अब वो बार-बार उसे खोल लपेट रहा था। आसपास खड़े आठ दस लोग तमाशा देख रहे थे। हमारे पैर वहीं जम से गये थे।   उसका स्टेशन पर होना ऐसा ही स्थाई था, जैसे प्लेटफ़ार्म और रेलवे लाईन का हिस्सा ही हो वो। पिछले छ:सात साल से तो हम ही उसे देख रहे थे, किसी भी समय स्टेशन पर आना हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि वो न दिखता हो। शायद इतना स्थाई हिस्सा होने के कारण ही अपना इंटरेस्ट उसमें कभी हुआ नहीं, जबकि दूसरे लोग बहुत आनंद लेते थे उसके पागलपन में। हमें आनंद मिलता था ताश खेलने में, मंडली के चार स्थायी सदस्यों में से एक थे(वीटो पावर सहित), तो उधर ही मगन रहते थे। अपने स्थाई ठिकाने पर ही जा रहे थे। आज की ही तारीख थी उस दिन, और सिर्फ़ ’वन इलैवन ऐटी फ़ोर’ सुनते ही उसकी प्रतिक्रिया देखकर हम हिल नहीं पा रहे थे वहाँ से।
दो दोस्त थे हम,  मनोज और मैं। जाकर उसी छेड़ने वाले से बात शुरू की, "सही तमाशा है।" प्रोत्साहन पाकर वो  बताने लगा कि कैसे चौरासी में इसके परिवार को जलाकर मार दिया गया था, घर लूट लिया गया था और इसके केश कत्ल कर दिये गये थे लेकिन इसकी किस्मत ऐसी थी कि बच गया। दिमाग हिल गया है उस दिन से इसका। रेलवे में ही नौकर था, फ़िर नौकरी कर नहीं पाया। फ़िर भी सारा दिन वहीं घूमता रहता है, स्टाफ़ में कोई भी कुछ काम कह देता है तो ये मना नहीं करता। जैसे हो, जितना हो उससे,  कर देता है। बदले में रोटी चाय जो मिल जाये, खा लेता है और मस्त रहता है।  बोलता ऊलजलूल है तो सबका मनोरंजन होता रहता है, बिना टिकट। हाँ, उस हादसे की याद दिलाओ तो इसके तेवर देखने वाले होते हैं, मजा आ जाता है।"  
"साल्ले, मादर...,   जो इसके साथ हुआ है उसका दस प्रतिशत भी तेरे साथ हो लेता और दुनिया तेरे मजे लेती, कैसा लगता?" मनोज ने गिरेबान पकड़ ली थी उसकी। एक बार तो उखड़ा वो बंदा भी, "तुम्हें तो मैंने कुछ नहीं कहा, फ़िर तुम क्यों बीच में आते हो? अपना काम करो।" फ़िर समझाया उसे हिन्दी में कि देख अभी तेरी छित्तर परेड होने वाली है और क्योंकि बाकी सबको हम कुछ नहीं कह रहे तो कोई बीच में नहीं आयेगा।  उसके बचाते बचाते भी एक दो तो लग ही गये थे उसके, लेकिन समझ गया वो और गलती मान ली उसने।
आज छब्बीस साल हो गये हैं 01.11.1984 को थी। देश की राजधानी में जो कुछ हुआ, देखा बहुत कम उसका लेकिन सुना बहुत। हमारी गली में दस बारह सिख परिवार रहते थे, हमें गर्व है कि उन घरों में किसी का एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ। आसपास की जो खबरें मिल रही थी, उसके चलते हम खुद रातों में नाके लगाकर ड्यूटी देते थे। दस बारह साल से लेकर साठ साल तक के लोगो ने जरा सी कोताही नहीं की। दिन के समय एक बार भीड़ आई भी, लेकिन जल्दी हो समझ आ गया उन भेड़ों को कि यहाँ कुछ नहीं कर पायेंगे। हमसे बड़े लड़के, उस कर्फ़्यू में इस मोहल्ले की दूसरी कालोनियों में ब्याहता लड़कियों, बहनों के घर जाकर कैसे कैसे उन्हें, उनके बच्चों को  लेकर आये थे, सुनकर रोमांच होता था। लेकिन सच ये भी है कि सब ऐसे खुशनसीब नहीं थे। एक दो नहीं, सैंकड़ों हजारों की तादाद में ऐसे ऐसे हादसे हुये थे कि एक एक पर सिर धुना जा सकता है। और फ़िर जब बाद में एक जिम्मेदार शख्सियत का यह व्यक्तव्य आया कि ’जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती कुछ काँपती ही है’ तो एक बार तो ईश्वर से पूछने को मन कर आया था कि ऐसा ही होना है तो बड़े पेड़ बनाता ही क्यों है? 
वो भीड़ किसके इशारों पर काम कर रही थी, कौन लीड कर रहा था उन्हें, ट्रकों में भरभर कर उन्हें कहाँ से लाया जा रहा था, प्रशासन क्या कर रहा था उस समय - इन सवालों पर कई एफ़.आई.आर., जांच, मुकदमे चल चुके हैं। कई बार आरोपी अपराधी घोषित हो चुके हैं और कई बार बाईज्जत बरी भी हो चुके हैं। कानून अपना काम कर रहा है।
काँपी थी ये ज़मीन जब, वो दिन आज का ही था
इंसाँ का क्या मरे या जिये, मुद्दा  ताज का ही था।
कौन सी तो किताब थी वो, ऐनिमल फ़ार्म या ऐसी ही कोई, एक डायलाग था उसमें - all are equal, but some are more equals.  ये लिखने वाले तो लिख विख कर निकल लेते हैं अपनी राह पर, हमें छोड़ देते हैं टोबा टेकसिंह बनने के लिये। जितने मुकदमे, कार्रवाईयां, अदालतों द्वारा स्वविवेक से मुकदमे खोलने जैसी बातें दूसरे मौकों पर हुई हैं वो चौरासी दंगों पर ऐसी कार्रवाईयों के मुकाबिल कम थी या ज्यादा, सब जानते हैं। शायद more equals among all equals वाला सिद्धांत प्रगतिशीलता का भी द्योतक है।
कोशिश रहती है जहाँ रहना हो, वहाँ की स्थानीय भाषा में सोचा जाये। आज ऑफ़िस में जाकर काम शुरू किया ही था कि एक फ़ार्म में पहला कालम तारीख का था। पता नहीं क्यों मन ही मन बोलना शुरू किया तो वन लैवन के बाद टैन की जगह ऐटी फ़ोर बोला भी गया और लिखा भी गया। तबसे दिमाग में फ़ितूर बैठा है। जो बातें भूलनी चाहियें, वो याद रह जाती हैं और जिनका याद रखना श्रेयस्कर है वो हाथ में से रेत की तरह फ़िसल जाती हैं। 
लेकिन अब नजरिया बदलने लगा हूँ धीरे धीरे अपना - बजाय इसके कि दुखी होकर भड़काऊ सा कोई टाईटिल देकर अपना दुख जाहिर करूँ,  गनीमत मना रहा  हूँ कि हमारी आम जनता अभी इतनी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष. प्रगतिशील नहीं हुई और वैलेंटाईन डे, फ़्रेंडशिप डे, अलाना डे फ़लाना डे की तर्ज पर आज  हैप्पी अर्थ वाईब्रेटिंग डे नहीं मना रही, वरना ...। 
आज फ़त्तू के लिये माफ़ी चाहता हूँ,  वैसे ही हंस लेना मेरी तरह।
कहाँ तो गाना लगाना चाहिये था ’दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है, हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है’ नहीं लगाया जी, दूसरा लगा दिया है, अब ठीक है न नजरिया अपना?

39 टिप्‍पणियां:

  1. हे इश्वर !
    सोच रहा हूँ , ये पोस्ट क्यों पढी मैंने ??

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  2. बहुत पीड़ा मह्सूस हुई संस्मरण से गुजर कर…… घटना मेरी पैदाईश से बहुत पहले की है पर उस के भुक्त-भोगी कुछ लोगों के साथ बचपन बीता है……… 31-10 और उस के बाद की कुछ लगातार तारीखें पूरे मोहल्ले में एक मातमी मौसम ले कर आती थीं।

    बहुत कुछ बदल गया है तब से पर फिर भी कुछ नहीं बदला…… हमारी हर घटना पर तमाशबीन बन जाने की आदत…… किसी की तकलीफ़ को तमाशा बनाने की आदत…… कहने में संकोच नहीं मुझे कि इस में बहुत अधिक प्रतिशत में मेरी पीढी के लोग हैं………

    "गनीमत मना रहा हूँ कि हमारी आम जनता अभी इतनी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष. प्रगतिशील नहीं हुई कि वैलेंटाईन डे, फ़्रेंडशिप डे, अलाना डे फ़लाना डे की तर्ज पर आज हैप्पी अर्थ वाईब्रेटिंग डे नहीं मना रही " ………

    पन्क्तियाँ सिहरा गयीं सर जी… बस एक कोशिश की थी उस मन्जर को सोचने की !

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  3. हौलनाक...अफ़सोसनाक...शर्मनाक...पूर्वनियोजित खूंरेजी ! इंसान दुश्मन घृणित लोग ! निकट मित्र भी दुखी हैं सो ज्यादा कुछ ना कह पाउँगा !

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  4. भाई साहब,
    जिस समय पोस्ट पढनी शुरू कि तो लगा कि शायद आज भाई साहब ने “टोबा टेक सिंह“ से प्रेरणा लेकर ये संस्मरण लिखा है परन्तु सच्चाई बाद मे पता चली कि ऐसा भी हुआ है।
    मै सिर्फ 4 साल का था उस समय जब ये घटना घटी, तब से लेकर आज तक इस त्रासदी का मुझे कोई ज्ञान ही नही था (आज अपने अल्पज्ञान पर बहुत गुस्सा आ रहा है) कि ऐसा भी हुआ है, हाँ इतना जरूर सुना था उस समय सरदारो को मारा गया था। उफ् कितना भयंकर मंजर रहा होगा वो, सोच कर भी सिहरन सी होती है। सच उस दिन धरती जरूर काँप गयी होगी।
    किसी एक की गलती के कारण सबको सजा देना ....................
    दोषियेा को बाइज्जत बरी कर देना..........
    ओह ! कैसी विडम्बना है

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  5. किसी खौफनाक मंजर को बिना सनसनी फैलाए याद करने का एक संजीदा तरीका भी हो सकता है, आपकी पोस्‍ट यह बताती है। मनोज जी ने जो किया वह कोई भी संवेदनशील व्‍यक्ति करेगा।

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  6. काँपी थी ये ज़मीन जब, वो दिन आज का ही था
    इंसाँ का क्या मरे या जिये, मुद्दा ताज का ही था।
    Sansmaran padhate,padhte,dil dard se bhar gaya!Aapne badee hee sanjeedgee se un ghatnaon ka byora likha hai! Yaad karke dil khauf kha jata hai.

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  7. दर्दनाक व शर्मनाक था वह समय।

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  8. भाई जान! वो दिन था 31.10.84.. पटन.. छठ पूजा की छुट्टी.. हम पूजा के बाद पिक्चर देखने चले गए, जाने भी दो यारो.. हँसते हँसते पेट पकड़कर हॉल से बाहर आए तो सड़क पर टायर जल रहे थे और संगबारी के निशान दिख रहे थे... ख़ूँरेज़ी तो नहीं हुई पर लूटपाट... बेहिसाब!!
    .
    भाई जान! वो दिन था 06.12.92.. इलाहाबाद से एक लड़का उनके कहने पर अयोध्या पहुँच गया जो ख़ुद बिहार में एरेस्ट होकर गेस्ट हाउस में क़ैद कर दिये गए... उस लड़के के बाप आज भी इलाहाबाद में स्टेशन से आने वाले हर शख्स से पूछता दिख जाएगा कि मेरा पप्पू तुम्हारे साथ गया था आया क्यों नहीं!
    .
    भाई जान! ये दिन है 01.11.10… दिल्ली... हाथ उठाए दुआगो हूँ.. जाने कब ये दुआ क़बूल होगी और
    कब नज़र में आएगी बेदाग़ सब्ज़े की बहार
    खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.

    .
    भाई जान! मुआफी..आज आपकी पोस्ट पर बस ख़ामुशी!!

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  9. तारीखें हमेशा दर्ज हो जाती है...जेहन में...
    फ़िर उठती है सिहरन...... मन में.....
    काँपती है रूह अब भी......तन में.....
    फ़िर बितेगी रात बस.....चिंतन में....

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  10. किसी भी पत्थर को हिला देने वाली पोस्ट है. छित्तर परेड वाले बेगैरत को सही शिक्षा दी, काश हम सब इतने कुशल और सहृदय हो पायें. ८४ की घटनाएँ और उनके कारण (जो अक्सर साइड में रह जाते हैं) दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की शर्मनाक पराजय के प्रतीक हैं. किस तरह आतंकवादी लम्बे समय तक एक समुदाय को निशाना बनाकर दुसरे समुदाय को खलनायक बनाते रहे. बातें बहुत सी हैं जिन पर ध्यान देने की ज़रुरत है मगर इस घटना के नायक जैसा दर्द भगवान् किसी को न दे.

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  11. क्या कहें..कुछ कहने लायक स्थितियाँ नहीं..हाँ, यह अच्छा किया..आज फत्तु की बनती भी नहीं थी ऐसी पोस्ट के बाद.

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  12. इस विषय पर बहुत कुछ कहना चाहता हूँ. शाम को समय निकालता हूँ.

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  13. jindagi ek hadsa hai kuch aacchhe aur kuch kharab hadase sabke saath hote hai.
    aap ke jo padausi hai unke liye aap logo ki bhawana kaise hai.
    aur un logo ki bhawana aap ke prati kaise hai.
    bure hadse man ko kadwa kar dete hai unco bhool jana hi theek hota hai .
    hum sab mil kar ek aaise samaj banaye jaha par is tarah ke hadase ho hi nahi .

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  14. शाम से सोच रहा हूँ क्या कहूँ? पर शब्द नहीं मिले.... गनीमत है "हैप्पी अर्थ वाईब्रेटिंग डे" नहीं मनाया किसी ने..

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  15. बात दरअसल ये है की लेख का शुरूआती हिस्सा दिमाग से हट नहीं रहा था इसलिए बहुत व्यथित हो गया था

    मुझे नहीं पता इस लेख पर क्या कहना चाहिए लेकिन इस लेख ने अन्दर तक झकझोर दिया और कलम [आभासी] की ताकत का एहसास भी हो गया बशर्ते आप जैसे लोग उसे चलायें

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  16. बहुत ही हृदयस्पर्शी पोस्ट. मन द्रवित हो गया......

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  17. pad kar thravit ho rahe hai jin pae beetee hogee kaise dekha saha hoga.....
    insan hee kaise haivan ban jata hai.........

    dardnaak sharmnaak hadsa........
    kis liye ?
    kiske liye?
    aur kyo ?
    char din kee jindgee bhaichare se jee swarg kyo nahee banata insaan
    aao hum sub mil pyar ,apanapan baante........

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  18. @कानून अपना काम कर रहा है


    संजय भाई आपके जज्बे को सलाम.
    पर ये मुया कानून नज़र क्यों नहीं आता....
    इसकी धार इन कांग्रेसी छोकरों के आगे कुंद क्यों पड़ जाती है..........
    क्यों 'मानववादी' जो ४-५ उग्रवादी के मरने पर जो रुदाली गाते है....... यहाँ नज़र क्यों नहीं आते ?

    समस्त प्रशन आपने फिर सामले ला कर खड़े कर दिए है...........

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  19. सरकारों द्वारा प्रायोजित ये दंगे सिर्फ उसी समय को नुकसन नहीं पहुचाते है वो भविष्य को भी ख़राब करते है क्योकि सबको पता होता है की ये सब करने वाले बच जायेंगे और ऐसा हुआ भी और यही उनके बाद आने वाली सरकारों को भी अपने फायदे के लिए ये सब दुबारा करने का आसान रास्ता दे देता है | काश की उसी समय इस तरह धरती हिलाने वालो को सजा मिल गई होती तो देश उसके बाद होने वाले कई दंगो से बच सकता था |

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  20. अपने लोगों के सामने अपने ही लोगों का काटना मारना देखना बहुत दुखद होता है...भीड़ के उपद्रव के सामने सब बेबस हो जाते हैं...
    मेरा एक शेर है:-

    बन गया इंसान वहशी साथ में जो भीड़ के
    जब कभी होगा अकेला देखना पछतायेगा

    नीरज

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  21. सेकुलर सरकार ऐसी ही होती है जी ... हाँ आपने जो कदम उठाये स्टेशन में वो एकदम सही है ...

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  22. बहुत दुखद, शर्मनाक।
    हृदयस्पर्शी पोस्ट!

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  23. संजय जी,
    ८४ के दंगों पर जरनैल सिंह की एक पुस्तक है-- 'कब कटेगी चौरासी' . कभी पढियेगा.
    जरनैल सिंह दैनिक जागरण के वही पत्रकार हैं जिन्होंने चिदंबरम पर जूता फेंका था.
    रुला दिया आपने...तिलक नगर , महावीर एन्क्लेव, गोपीनाथ बाज़ार,पालम कालोनी,उत्तम नगर, त्रिलोक पुरी...क्या-क्या याद करूँ!!
    नवीं क्लास के अपने कितने ही मित्रों की याद हो आई जो ३१-१०-८४ के बाद कभी नहीं दिखे.

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  24. बेहद अफ़सोस जनक घटना थी ..एक सभ्यता के नाम पर तमाचा जो हर भारतीय के गाल पर लगा था ! भारतीय इतिहास के इस बदनुमा धब्बे को न याद करें तभी अच्छा ! एक ही परिवार में अपने ही बड़े को अपमानित करना एक दुस्वप्न ही तो था !
    आइये इसे भूल जाएँ

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  25. @ Smart Indian:
    सहमत हूँ आपसे, बहुत सी बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

    @ विचार शून्य:
    उस शाम का इंतजार है, पाण्डेय जी।

    @ prkant ji:
    कांत जी, पढ़ा है जरनैल सिंह के बारे में।

    @ सतीश सक्सेना:
    हाँ बड़े भाई, चलिये भूल जाते हैं।

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  26. हम भी दिल्ली में ही थे उस दिन । कैसी कैसी खबरें आ रही थीं । सुना था कि कुछ लोगों ने पहले दिन मिठाइयां बांटी जश्न मनाया पर उनका तो क्या बिगडा । ऐसे में हमेशा गरीब ही चपेट में आता है । लोगों को लूड का सामान ले जाते हुए देखा । लगा देश में अराजकता फैल गई है । कहां थी पुलीस ? आज तक सजा नही मिल पाई असली मुजरिमों को । आप का ये लेख पढ कर दर्द फिर उभर आया ।

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  27. बडा पेड गिरा था तब धरती हिली थी . ऎसा ही कुछ कहा था उस समय किसी ने . ८४ दंगो की याद फ़िर से ताज़ा हो गई . समीर जी न सही कहा आज फ़तू का दिन नही है

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  28. ये पंक्ति एक पतली सी किताब है कम्युनिस्म पर 'एनीमल फार्म' उसमें है. बाकी तो क्या ही कहें इस पोस्ट पर.

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  29. मर्मस्पर्शी। इन्सान इतना क्रूर कैसे हो जाता है क किसी की ज़िन्दगी को नर्क बना दे। आपको व आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।।

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  30. दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं

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  31. ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    आपको, आपके परिवार और सभी पाठकों को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं ....
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  32. हम तो दीपावली की शुभकामनाए देने आए थे ... अब क्या कहें ... ?
    आदमी की बेचैनियाँ जाने कैसे कैसे बाहर निकलती है .....

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  33. दीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!

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  34. आपको और आपके परिवार को एक सुन्दर, शांतिमय और सुरक्षित दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें !

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  35. संजय जी आपको व आपके परिवार को मेरी ओर से दीपावली की शुभकामनायें.

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  36. मैं तब रायबरेली में था.
    ऐसा दि‍न कि‍सी देश के जीवन में न आए

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  37. मेरा तो जन्म भी नहीं हुआ था.... पढ़ कर ही दिमाग सुन्न हो गया... जिस पर बीती होगी.... उस पर.....

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