कभी पढ़ा था कि इंगलैंड में जब लोग आपस में मिलते हैं तो आम बातचीत की शुरुआत मौसम से करते हैं। अपना मुल्क भी इस मामले में आजकल इंग्लैंड से कम नहीं। मुलाकात होते ही पहली बात, “सर्दी बहुत है, हद हो रही है” या ऐसी ही बात। जिसे देखो, मौसम को गरियाने में लगा है। होता अपना हिन्दुस्तान भी कहीं अंटार्कटिका या जायरे-कांगों में तो सब नखरे निकल जाते जब साल भर एक ही जैसा मौसम झेलना पड़ता। हम लोगों को जैसे रोने की आदत ही पड़ गई है।
जब मैंने बैंक ज्वॉयन किया तो चार-पाँच दोस्त एक ही मकान में रहते थे। कहीं भी जाना हो, एक साथ ही आना-जाना करते। सर्दियों की तो खैर बात ध्यान नहीं, गर्मियों की एक बात याद है। घर से निकले तो ’राजा’ बार बार अपना रुमाल निकालकर पसीना पोंछता और कहता, “बहुत गर्मी है यार, पसीना ही नहीं सूखता।” मैंने एकाध बार अपनी अज्ञानता के चलते ही कहा कि यार राजस्थान के होकर भी गर्मी से घबराते हो, अजीब बात है। राजा बाबू और गरम हो गये, “तुम लोग सोचते हो कि सारा राजस्थान रेत से भरा है?” किसी दूसरे ने गौर से उसके चेहरे की ओर देखा और चुटकी ली, “न, पत्थर भी हैं, वहाँ।” नोंकझोंक में आखिर सब मान गये कि गरमी बहुत है। बस अपन थे जो चुप रहते थे, हाँ में भी नही और न में भी नहीं। राजा ओब्जर्वर गज़ब का था। ऐसे ही एक दिन कहने लगा, “संजय कभी नहीं कहता कुछ मौसम के बारे में। गरमी हो या सरदी, बल्कि गरमी में तो कई बार अकेला हो तो पंखा बंद करके बैठ जाता है कमरे में, जैसे खुद को सजा दे रहा हो कोई।” उस दिन ’जीतू’ बोला, “एक श्रेणी होती हैं छिनाल की, और दूसरी श्रेणी होती हैं चुप्प छिनाल की- ये श्रीमान दूसरी श्रेणी के हैं।” तो जी, मर्दमानुष होकर भी ऐसे ऐसे सर्टिफ़िकेट ले रखे हैं हमने। दिखाऊंगा एक दिन सबको अपना ब्लॉग जब इकटठे हुये कभी, कि जो संजय मौसम की बात, शिकायत भी नहीं करता था अब उसे ही भाई-बंधु मो सम और मौसम में कन्फ़्यूज़ कर रहे हैं।
जाने दो, कहाँ से शुरू हुये और कहाँ पहुंच गये। मुद्दे की बात ये है कि मौसम ससुरा बहुत खराब है। चौदह-पन्द्रह किलोमीटर भी बाईक चलानी पड़े तो दादी-नानी याद आ जाती हैं। आँख, नाक और हाथ ऐसे अकड़ जाते हैं कि पूछिये मत। एकदम सुन्न पड़ जाते हैं। स्कूल के दिनों में हमारा एक दोस्त था, चेला भी कह सकते हैं। वो कभी कभार कह देता था कि बॉस, वो हँस रही है देखकर और मैं कहता था तू पेंट की चैन चैक कर और मैं नाक पोंछ कर देखता हूँ। काहे से कि सर्दी में सबसे ज्यादा सेंसिटिव नाक ही होती है हमारी, हरदम लगता है कि बह रही है और चैक करें तो रूमाल सूखा ही लौट आता था। और खुली चैन और\या बहती नाक दो ही ऐसी संपत्तियाँ हमारे पास थीं , जिन्हें देखकर कोई हँस सकती थी। ऐसा ही कुछ आजकल है, बस आजकल कोई हँसने वाली नहीं है और न कोई बताने वाला कि बॉस…। फ़िर बहक गया, सॉरी।
घर लौट कर एक बार रजाई, कंबल ओढ़कर बैठ जायें तो बस सीधे मुँगेरीलाल के हसीन सपनों में खो जाते हैं, और कुछ नहीं सूझता है। नया साल भी आधा गुजर गया, लगभग, और हमने कुछ नहीं लिखा(ज्यादा हो गया क्या?)। ऐसा लगता है कि नल में पानी की तरह दिमाग भी जैसे जम गया है। कुछ सब्जैक्ट ही नहीं समझ आ रहा था कि क्या लिखा जाये। ऐसे तो लोग हमें भूल ही जायेंगे। फ़िर नेट पर इधर उधर टक्कर मारना शुरू किया तो हमें कारण समझ आया। लगा हमारी भी प्रेरणा कहीं खो गयी है। शायद हमारी प्रेरणा भी मौसम की भेंट चढ़ गई है। फ़िर चैक किया तो पाया कि प्रेरणा अपनी जगह पर ही है। आप भी चैक कर सकते हैं, हमारे ब्लॉगरोल में प्रेरणा है कि नहीं? अच्छी चीजों को भी देख लिया करो यारों, ये क्या हमेशा फ़त्तू-सत्तू, गाने-शाने? कभी कभार के लिये ठीक है, बाकी तुम्हारी मर्जी। हमारी तो मशहूरी हो रही है आजकल, चर्चे ही चर्चे हैं। कहीं पोस्ट चुराई जा रही है, कहीं लिखी जा रही है। एक हमारे वरिष्ठ बंधु को ओनलाईन देखकर नमस्ते की तो पता चला कि यारों की महफ़िल में फ़त्तू के चर्चे हो रहे थे। लाज के मारे लाल हो गये जी हम तो:) काहे को करते हो जी चर्चे? हिटलिस्ट में आ जाओगे, फ़िर पता चलेगा हमारा असर, हा हा हा।
अचानक ध्यान आई सलिल भैया की पोस्ट की पहली पंक्ति “गाँव में आज भी अच्छा बात को बुरा बताना सगुन माना जाता है।” अबे यार, तो ये था हमारी ढेर सारी अब्लॉगीय असफ़लताओं का राज? हम तो कितना ही लुटे पिटे हों, कोई पूछे तो हमेशा अपना हाल मस्ते-मस्त बताया करते थे। कितना ही बुरा हो गया हमारे साथ, हम तो अपनी शान बनाने के चक्कर में हमेशा बढ़ चढ़ कर बताया करते थे। कोई कार वाला दोस्त कभी कहता कि यार तुम्हारी मौज है, ट्रेन में मौज-मस्ती करते जाते हो, हमें तो अकेले सफ़र करना पड़ता है। हम कहते कि सच में यार, मौज बहुत है रेल में डेली पैसेंजरी करने में। लेकिन तू दोस्त है, तू ले ले हमारे हिस्से की रेल की मौज और हम दोस्ती में ये अकेले सफ़र करने की जहमत उठा लेंगे, बंदा मुकर गया। एक दोस्त बोला, यार तुम्हारी मौज है। महीना खत्म होते ही बंधी बंधायी तन्ख्वाह मिल जाती है, यहाँ कभी सेल्स-टैक्स का लफ़ड़ा और कभी इंकम टैक्स का झंझट। अपन फ़िर शान दिखाते कि यार, ये मौज तो है अपनी, पर तू भी क्या याद करेगा? कल से अपनी फ़ैक्टरी-दुकान मेरे हवाले कर और बदले में महीना खतम होने से पहले ही बंधी बंधाई तन्ख्वाह ले लिया करियो। ये लफ़ड़े और झंझट हम सुलट लेंगे, दोस्ती के फ़र्ज में। उस भले आदमी ने भी आजमाईश का मौका नहीं दिया। वर्तमान में हमारी शाखा में सिर्फ़ तीन का स्टाफ़ है, दूसरी ब्रांच वालों से बात होती है तो वो कहते हैं कि यार तुम्हारे यहाँ स्टाफ़ ठीक है। मैं और मेरे कुलीग और भड़काते हैं कि सही बात है, बहुत मौज है वहाँ। पूरी ऐश करते हैं हम लोग वहाँ। अपनी समझ में हम लोग उन्हें जलाया करते हैं कि हमारे ऊपर तो जो बीत रही है सो बीत रही है, कम से कम तुम तो जलो भुनो। अब सीनियर लोगों की मानें तो हमें भी हरदम नाशुक्रगुजार होकर हर समय रोते कलपते रहना चाहिये, शायद सफ़ल हो जायें। लेकिन शकुन हो या अपशकुन, अपने से ये सब नहीं होने का। फ़िलहाल तो रोने धोने की कोई वजह है नहीं, हर चीज जरूरत और सामर्थ्य से ज्यादा मिली है। कल को जो होगा तो देखी जायेगी...!! शायद हमें भी रोता हुआ देख लें आप सब।
एक पोस्ट पर एक कमेंट के चलते थो़ड़ा कन्फ़्यूज़न हो गया था। कन्फ़्यूज़न क्लियर करने के लिये एक कमेंट किया था, जवाब आया और उन वरिष्ठ ब्लॉगर पर और खुद की परख पर अपना विश्वास और पुख्ता भी हुआ। मजे की बात ये है कि जवाब आने से पहले ही एक बेनामी या फ़िर दो बेनामी साहब कूद पड़े, लकड़ी लेकर:) आग में घी, तेल डालने के लिये जैसे मश्क भरे ही घूम रहे हों कि कहीं दिखे सही कुछ चिंगारी। होता पहला जमाना तो हम भी चलते तुर्की ब तुर्की, जब कोशिश रहती थी कि सामने वाले के हिसाब से चला जाये, प्यार का बदला प्यार से और नफ़रत का बदला नफ़रत से। अब थोड़ा सा बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं नये साल में। प्यार का बदला प्यार से और नादानियों का बदला इग्नोर करके। बेनामी जी का नाम पता तो मालूम नहीं, यहीं पर एक नया मुहावरा पेशे खिदमत है -
’चूल्हे चूल्हे पे लिखा है, लकड़ी का नाम’
हमने माडरेशन लगा लिया है, अपनी लकड़ी से किसी और चूल्हे में आग फ़ूंकने की ट्राई करें।
:) फ़त्तू के भाई की शादी थी। शादी के बाद बहू के मायके वाले उसे रस्म पूरी करने के लिय ले जाने लगे तो फ़त्तू जिद करने लगा कि भाभी को मैं लिवा कर लाऊँगा। चचेरे, ममेरे, फ़ुफ़ेरे भाई सब इकट्ठा थे, उसे कहने लगे कि ऐसा नहीं हो सकता। रिवाज के हिसाब से जिसकी शादी हुई है, उससे छोटा ही भाभी को लिवाने जायेगा और उसकी शादी के बाद उससे छोटा। और तू तो सबसे छोटा है, भाभी को लिवाने का तेरा नंबर तो बहुत बाद में आयेगा। फ़त्तू और भी जोर से रोने लगा तो सब कहने लगे कि अच्छा यार तू ही जा, हम नंबर आगे पीछे कर ल्यांगे लेकिन देवता चुप हो जा।
फ़त्तू, “चुप क्यूँकर हो जाऊँ खागड़ों, तुम सबकी बहू को तो नंबर आगे पीछे करके कोई न कोई लिवा लायेगा। मेरी बहू ने लियाणिया तो कोई सै ही कोनी, मेरा के बणेगा?”
फ़त्तू की बहू आयेगी कि नहीं, देखेंगे हम लोग........
ओ सोणियो मार सुट्टिया वे.......एकदम राप्चिक पोस्ट। बमबास्टिक, कॉस्टिक, इलास्टिक, जुलास्टिक सब न्यौछावर :)
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पढ़ते हुए लगता है आपके सामने बैठकर आपकी बातें सुन रहे हैं। और आपकी बतकही इतनी रोचक है कि कोई बोर हो ही नहीं सकता।
जवाब देंहटाएंमौसम से लेकर फत्तू की भाभी तक का सफर दिलचस्प है।
मौसम वाकई फिरीज़िंग है
जवाब देंहटाएंहम तो जब भी किसी के साथ बैठते हैं मो सम कौन की ही बाते होने लगती हैं। मैं जब वहाँ था...ढिशुम्... ढेन्टड़ान
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएं"हाँ में भी नही और न में भी नहीं।"
आज भी वही खराब आदतें हैं...
सुधर जाओ भैया ....
नहीं तो कुछ दिन में, घर में गरम रोटी और बैंक के लिए परांठे मिलने बंद हो जायेंगे ....!
ये गप्प भी अच्छी रही।
जवाब देंहटाएंतो यह नए साल का तोहफा है कि अब आपके यहां भी पहले स्वीकृति लेनी होगी।
जवाब देंहटाएंपोस्ट है या शब्दों की जुनरी...! जितना पढ़ो (भुनती) मेरा मतलब है खिलती ही जाती है।
जवाब देंहटाएंसोणी पोस्ट
जवाब देंहटाएंकहां-कहां ले जाते हैं आप. आपको लगता है कि भटक रहे हैं, भटका रहे हैं, हमें तो हर पेंचो-खम पर लगता है कि हां, अब सही रस्ता पकड़ा, सभी पर खूबसूरत और मनमोहक नजारे, यानि एक गीत हमारा भी 'हर मौसम है प्यार का मो सम'. (चर्चाओं में मौसम की परवाह अक्सर उन्हें होती है, जिन पर मौसम के फर्क का असर नहीं होता.)
जवाब देंहटाएंइतने लोग पढ़ कर हँस रहे है क्या कम है जो अब हंसनेवाली भी चाहिए और ये नवाबी तो गजब की है की जिप चेक करने के लिए भी किसी को रख रखा था |
जवाब देंहटाएंप्रेरणा से तो हमने भी प्रेरणा ले ली बताने के लिए धन्यवाद एक ब्लॉग और है ऐसा ही "गौर तलब"
हमें तो मालूम ही नहीं था की आप भी बंटी है आज पोल खुली | मै तो कहती हु की आग में थोड़ी लकड़ी और घी डालने ही दीजिये कम से कम सर्दी में हाथ सकने के काम आयेगा,
किसके
अरे हम लोगों के और क्या :))))
आप के पढ़ने के लिए
जवाब देंहटाएं"सरदी" होती है या "सर्दी"
बता नहीं रही हु पूछ रही हु
और "बहोत " होता है या "बहुत"
ये आप ने नहीं लिखा है मै पूछ रही हु
बाकि कसमे तो मै २०२० से शुरू करुँगी पर सोचा हिंदी आज से सुधारना शुरू कर दू
आप से क्यों पूछ रही हु
भूल गये मेरे ब्लॉग पर एक बार आन ही टोका था
अब जिसने टोका है तो सुधारने का काम भी उसके ही गले पड़ेगा | :))
यूरोप में इसीलिए गुड मोर्निंग का रिवाज चला था कि आज आपके लिए मौसम अच्छा हो। हमारे यहाँ तो ॠतुएं बदलती रहती हैं तो सभी अभ्यस्त हैं। राजस्थान वाले तो दिन में गर्म रेत और रात में ठण्डी रेत का आनन्द लेते हैं।
जवाब देंहटाएंमो सम का असर है चारो तरफ
जवाब देंहटाएंफिर से बेहतरीन शब्द रचना,
फत्तु, रो मत भाई! तेरी बहू लिवाने मै चला जाऊंगा।
खुद तो काफ़िर हो कमबख्त, कुफ्र अमित से करवा डालोगे
जवाब देंहटाएंहो जाते है बेजुबान तेरे दर, बहुतखूब फिर भी कहला डालोगे
पढते पढते मैं बार बार अपने नाक चेक कर रहा हूं........
जवाब देंहटाएंहा हा हा
इस भयंकर शीत में गरमा गरम पोस्ट अच्छी लगी. बस ये सलिल जी की पोस्ट पर कमेन्ट वाला कन्फ्यूजन समझ नहीं आया. जो भी हो अंत भला तो सब भला.
जवाब देंहटाएंgajab ka presentation...badhiya post.
जवाब देंहटाएंअब कहूँ तो क्या कहूँ!सिर्फ़ ये कह सकता हूँ, मज़ेदार और पठनीय!
जवाब देंहटाएं@दीपक सैनी, भई तो तू तो फत्तू की बहू लिवाने चला जाएगा, पर तेरी कौन जाएगा (मेरे ख्याल सबसे छोटा तो तू ही है)
जवाब देंहटाएं:)
"ज्यादा हो गया क्या?" बिलकुल!!
जवाब देंहटाएंजायज है ये सोचना, मानना। :)
पोस्ट के लिए मेरा हाल तो हमेशा वही रहता है, "क्या टिप्पणी दूँ?"
कोई 'क्रैश कोर्स' नहीं आता तमीज से टिप्पणी करने का? मुझे वाकई सीखना है, और बहुत बुरा छात्र नहीं हूँ, अपनी समझ से। :)
मौसम का ख्याल/लिहाज(?) करके फत्तू तो 'वार्म रिगार्ड्स' दीजियेगा।
और हाँ, 'गरियाने' से ज्यादा आसान काम मेरी समझ से तो संभवतः नहीं है।
रोने कलपने पर तो क्या कहूँ, कोई बहुत समझदार कह गया है:
The grass is always greener on the other side of the fence.
P.S. कोई है जिसके "fans" हैं पर उसे "fan" पसंद नहीं। :)
जब हम बाईक चलाते थे तो तीन बातें बाईक पर सवार होकर एड़ लगाने से पहले ही चेक कर लेते थे. पैण्ट की ज़िप, दाहिने हाथ की घड़ी और माथे पर सुसज्जित शिरस्राण. लिहाजा ज़िप का ध्यान रखने वाले पर खर्चने से बचे रहे और ताड़ने पर फुल कॉन्सेंट्रेशन बनाए रखा.
जवाब देंहटाएंबड़ी वैज्ञानिक पोस्ट है यह जिससे यह तथ्य ज्ञात हुआ कि एक चीज़ है जो फ्रीज़िंग प्वाइण्ट पर भी पिघलती है... हमारी नाक!
प्रेरणा से प्रेरित होने का मन बना लिया है. देखें इस कूड़मगज को भी कुछ समझ आ जाए!
रोने कलपने वाली सीनियर लोगों की सीख तो अपुन भी नहीं मानते. आँसुओं की अगर मार्केटिंग होती तो अब तक आँसू मैनेजमेण्ट फ़ण्ड बनाकर सरकार कितने गटक गई होती और कितनी रूदालियाँ इतिहास से निकल कर एम्प्लॉयड होकर स्टाफ का रोना रो रही होतीं.
लास्ट बट नॉट द लीस्ट, आग में तेल/घी (जो लागू न हों उसे काट दें) डालने वालों की जाने दें, वक़्त आया तो पंद्रह बीस पर तो भारी पड़ेंगे. (अब ज़्यादा बोल गया तो सम्भालना मुश्किल हो जाएगा). अपनी लड़की ऊप्प्स.. लकड़ी से दूसरे का चूल्हा फूँको वाली सीख नोटनीय है. मगर किसी के जिगर माँ बड़ी आग हो तो क्या करोगे संजय बाऊजी!!
बहुत ही अच्छी पोस्ट . फत्तू का अंदाज हमेशा की तरह एकदम मस्त ...............
जवाब देंहटाएं@ बाबा जी,
जवाब देंहटाएंमेरी तो पहले ही आ चुकी है।
@ शिवम मिश्रा:
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन? आपका सेंस ऑफ़ ह्यूमर मस्त है शिवम जी:)
@ सतीश पंचम:
जब जीतू पर लाड़ उम़ड़ता था(हम दोनों ताल से ताल खूब मिलाया करते थे) तो मैं उसे जीतू भैया बुलाता था, आज आपको सीतू भैया बुलाने का मन कर रहा है।
सोणियो, सही ताल से ताल मिलाई गुरू।
@ सोमेश सक्सेना:
सोमेश, दिलचस्पी दिखाने का खामियाजा भुगतोगे :))
@ स्मार्ट इंडियन:
ले लो उस्ताद जी मजे आप भी, दिल्ली की सर्दी के।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
अपने गीत गाना ही सही है जी हमारे लिये तो, जब मैं वहाँ था तो...:))
@ सतीश सक्सेना जी:
जवाब देंहटाएंअपने को रूखी सूखी ज्यादा सुहाती है जी, वैसे भी अब आखिरी उम्र में क्या खाक .....>?
@ राजेश उत्साही जी:
सब आप जैसे हो जायें तो हम किवाड़ ही उखाड़ फ़ेंके भाईजी। थोड़े दिन की बात है फ़िर इसकी जरूरत नहीं रहेगी, पक्का।
@ देवेन्द्र पाण्डेय जी:
देवेन्द्र भाई, आप की मार्निंग वाक जैसी एक भी पोस्ट हम लिख सके तो खुद को मान जायेंगे कि कुछ लिखा है।
@ गिरीश बिल्लौरे जी:
सोणी टिप्पणी, गिरीश भाई। शुक्रिया।
naam kuch aur kaam kuch ek bhatkau post--------------------------------------------------------
जवाब देंहटाएं@ राहुल सिंह जी:
जवाब देंहटाएंये अटकन भटकन देखी भुगती है सर, और खूबसूरत और मोहक नजारे प्राय: गलत रास्तों पर ज्यादा होते हैं, नहीं क्या? चर्चाओं की परवाह अपने लिये नहीं होती जी, अपनों के लिये होती है।
@ anshumala ji:
धन्यवाद आप स्वीकारें, हमारा इशारा समझने के लिये। अच्छे ब्लॉग्स तक अच्छे पाठक पहुंचेगे तो अच्छा ही होगा। आशा है ’गौरतलब’ पर भी गौर करेंगे और लोग।
पोल खुलने की भली कही, अच्छा नमक छिड़का है - देख लेंगे:))
और वो टोकाटाकी भूल क्यों नहीं जातीं आप? 2020 तक कर लो अप जितनी गलती करनी हैं, इतनी आसानी से रिज़ोल्यूशन थोड़े ही तोड़ते हैं:)))
@ अजीत गुप्ता जी:
अपनी अज्ञानता पहले ही मान ली थी जी। तब तो एकदम कूपमंडूक ही थे, अब भी हैं वैसे तो। राजस्थान का रेत वाला हिस्सा अभी अनदेखा ही है अपने लिये।
@ दीपक सैनी:
दीपक, मेरा जवाब तो बाबाजी लपक ले गये? सबसे छोटे तुम ही दिखते हो अभी:) चिंता मत करियो छोटे, ये परंपरा आगे भी चलेगी।
@ अमित शर्मा:
जवाब देंहटाएंकुफ़्र मुझ काफ़िर के खाते में भेज देना यार, देखी जायेगी। पिटते के चार और लग जायेंगे तो क्या फ़र्क पड़ जायेगा?
@ दीपक बाबा:
मी लार्ड, एक पैमाना और भी था। अक्की बाबा से सबक सीख लेना उस प्वायंट पर।
@ विचार शून्य:
ऑल इज़ भैल, दोस्त।
@ अरविन्द जी:
शुक्रिया अरविन्द जी।
@ ktheLeo:
पठनीय लगी, अपने लिये बहुत है जी। शुक्रिया।
@ दीपक बाबा:
जवाब देंहटाएंसवाल तो मेरा भी यही था छोटे दीपक से, पर ये तो कुछ और ही कह रिया है। हमारा मामू तो नहीं बना रहा यार ये, लगता तो सीधा सादा सा ही है:)
@ अविनाश चन्द्र:
अगर हमारे अविनाश को तमीज से टिप्पणी करनी नहीं आती तो हमारी पहचानने की शक्ति को धिक्कार है।
और मौसम के ख्याल\लिहाज से फ़त्तू को ’कोल्ड रिट्रीट’ भी चल सकता है, दिल से मिले बस्स।
@ 'fans & fan' - कुछ भी नापसंद नहीं है भाई,सिर्फ़ खुद को हद में रखने की अजब-गज़ब सी सनक है।
आज तुम बच गये हो कसम से, सिर्फ़ एक शब्द का प्रयोग न करके। नहीं तो आज धमकी भरी एक मेल मिलती तुम्हें, कसम से।
@ चला बिहारी...:
घड़ी और हेल्मेट से बंधनमुक्त हैं, एक ही चीज है ध्यान देने लायक, तो काम चल ही रहा है।
कुछ होगा तभी प्रेरित हुआ आपका अनुज भी:)
आप ’ड्राअर इन केस ऑफ़ नीड’ बने रहें, बहुत है। बाकी देखी जायेगी:) बहुत मोल लगा देते हो आप हम जैसे नाचीजों का। कौनो शुक्रिया, कौनो धनबाद नहीं दे रहे हैं आपको(दे ही नहीं सकते)।
@ उपेन्द्र जी:
शुक्रिया उपेन्द्र जी।
@ दीपक सैनी:
:))
भाई साहब मामू नही बना रहा हूँ, मै 2 मई 2004 को शहीद हो गया था।
जवाब देंहटाएंसीधे सादा लगता ही नही हूँ भी,
क्या सीधे सादे लोगो का ब्याह नही होता ?
हा हा हा
@ Poorviya:
जवाब देंहटाएंमिसिर जी, सीधे सरल कमेंट के लिये शुक्रिया।
वैसे सिर्फ़ पोस्ट को भटकाऊ कहकर सही मूल्यांकन नहीं किया आपने, मेरी नजर में तो मेरा पूरा ब्लॉग ही भटकाऊ है:)
@ दीपक सैनी:
मैरिज एनिवर्सरी की एडवांस में बधाई।
सिद्ध हो गया कि सीधे-सादे हो(तभी तो ब्याह हुआ है:))
संजय जी, बतकही कोई आपसे सीखे. ज़िप तो अपन अब भी दिन में तीन बार टटोलकर देख लेते हैं.
जवाब देंहटाएंप्रेरणा को फालो कर लिया है.
फत्तू की घरवाली की विदाई में कुछ घपला होता दिक्खे , राम भली करे.
हां तो बाऊ जी राम राम!
जवाब देंहटाएंफ्रैंड वाली फीलिंग लेने का मन कर रहा है आज तो.....
लेकिन बाऊ जी वाला लिहाज़ आड़े आ रहा है.....
और रही बैंक में काम और कर्मचारियों की बात... ये बैंक वाले हमारा पुत्रदान नहीं होने देंगे....
बेशक हमारी नाक ना बहती हो और चैन बंद रहने के बावजूद लडकियां मुस्कुराएँ! हा हा हा.....
सोचता हूँ इससे तो बढ़िया मास्टर ही थे!!!
बेचारा फत्तू!
आशीष
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हमहूँ छोड़के सारी दुनिया पागल!!!
@ prkant:
जवाब देंहटाएंप्रोफ़ैसर साहब, सान पर चढ़ाना तो कोई आपसे सीखे:)
फ़त्तू का ब्याह बिगड़ेगा, मन्नै भी न्यूंए जंच रई है।
@ आशीष:
छोटे वीर, feel the feeling, हम ही लिहाज नहीं रखते तो तुम्हें क्या रोकेंगे:)
सच में इनका बस चले तो पुत्रदान न होने दें, बल्कि मैं तो कहता हूँ कि अपायंटमेंट या प्रमोशन देने से पहले ही इन्हें चाहिये कि क्लियर कर दें कि वही आये जिसका और-ठौर न हो।
फ़त्तू अब बेचारा नहीं है, दीपक सैनी ने जिम्मेदारी ले ली है:)
कल रात पांच छः कॉल लगाया ये सुनाने के लिए कि यहाँ पारा -१० तक छूने वाला है एक दों दिन में. लोगों ने ऐसा ठंड-ठंड सुनाया कि मैं किसी को नहीं बता पाया :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबड़ी गडबड हुई आज , मैंने तो सोचा था कि आपके जमाने में जिप नहीं बटने चलती होंगी :)
जवाब देंहटाएं@ अभिषेक ओझा:
जवाब देंहटाएंसबको अपने गम ही बड़े लगते हैं। हमें फ़ोन कर देते यार, और बता देते मौसम की बदमाशी:))
@ अदा जी:
आपकी टिप्पणी ने प्रेरणा पर हमारे विश्वास को बढ़ाया ही है, आश्वस्त हैं जी हम।
@ अली साहब:
बातें पुराने जमाने की करते हैं, वैसे इतने पुराने जमाने के नहीं हम।
Blog post ke baad gaana bhi bahut dhundkar lana bhi kuch kam nahi...
जवाब देंहटाएंachhi prastuti..