मंगलवार, जनवरी 11, 2011

देखी जायेगी..

आज  छुट्टी का दिन था, सोचा था एक अलग ही पोस्ट लिखने के बारे में, लिख भी ली थी लेकिन आखिर में वो हो गई पेंडिंग और ये लिखी।    बहुत पहले एक पोस्ट लिखी थी,  रेलवे स्टेशन पर देखे भोगे एक अनुभव की, और एक दूसरी पोस्ट लगभग दो ढाई महीने पहले,   आज फ़िर से स्टेशन याद आ गया। मैं जब पहला ट्रांसफ़र लेकर दिल्ली आया तो पंजाब आने से पहले तक लगभग बारह साल डेली पैसेंजरी की। इनमें से ट्रेन के अनुभव तो इतने और इतने जबरदस्त रहे कि पूछिये मत। कितने ही हमराह मिले, कितने छूटे, कुछ अब तक जुड़े हैं। गाहे बगाहे फ़ोन आ जाता ह और मैं भी जब दिल्ली जाता हूँ तो एक दिन जरूर ट्रेन की  सवारी करके यादें ताजा करता हूँ।

ये एकदम शुरुआती समय की बात है, कोई दोस्त नहीं बना था। सुबह सुबह स्टेशन पर समय से पहले ही पहुँच जाया करता, अतिरिक्त सावधानी:)    प्लेटफ़ार्म पर देख रहा था इधर उधर कि शायद कोई जाना पहचाना चेहरा दिखे। सामने तीन चार लोग हाथ में ताश की गड्डी लेकर फ़ेंट रहे थे और फ़ेंटे ही जा रहे थे।  हीरोईन को अंग-प्रदर्शन करते देखकर फ़्रंट सीट के दर्शकों की  जो कैफ़ियत होती है कि शायद सिर्फ़ उन्हें रिझाने के लिये, उनके लिये ही यह वस्त्र-त्यागीकरण प्रक्रिया है, ताश के पत्ते फ़हराते देखकर कुछ वैसा ही हाल अपना हो रहा था।  शायद हमें ही ललचाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं, संकोच त्यागकर खुद को प्रस्तुत करने ही वाले थे कि एकदम से शोर मच गया, मोती आ गया-मोती आ गया।

जैसे महफ़िल में रौनक आ गई हो, चेहरे चमक उठे थे उपस्थित लोगों के। देखा तो सामने से पैंसठ सत्तर बरस के एक बड़े मियाँ, सफ़ेद शफ़्फ़ाक दाढ़ी, सर पर जालीदार टोपी, सफ़ेद कुर्ता पायजामा, हाथ में एक थैला पकड़े हुये और कमर में हल्का सा खम, फ़ुदकते हुये से चले आ रहे थे। समझ गये हम, यही हैं रौनक-ए-महफ़िल, ’मोती मियाँ।’ बस वो आकर सबसे मिले, तब तक अच्छा खासा जमावड़ा इकट्ठा हो गया था। धीरे धीरे हम भी जान गये सबको।  मोती मियाँ थे उस ग्रुप की आँख का तारा, क्या जवान और क्या बूढ़ा, जिसे देखो हर चाल में वाह मोती, अबे मोती की चुटकी लेता। शायद ही कोई बात होती, गड़बड़ होती जिसके लिये उन्हें श्रेय न दिया जाता हो। और बड़े मियाँ अकेले ही सबसे टक्कर लेते रहते। कोई और होता तो फ़ेंक कर मारता ताश के पत्ते, लेकिन तारीफ़ के काबिल थी उनकी शख्सियत। जरा जरा से लौंडे अबे-तबे करके बात करते थे और वो थे कि कोई बुरा नहीं मानते थे। खैर, अपने को तो नागवार ही गुजरता था ये सब। हमने तो लखनऊ में देखा था एक बार कि गाली भी आप कहकर देते थे, वो कहानी फ़िर सही। दो चार बार मैं ही उलझा लोगों से कि यार, बोलने की तमीज तो रखो कुछ, उम्र देखो जरा इनकी। लेकिन औरों से पहले मोती मियाँ ही मुझे चुप करवा देते। शायद उन्हें भी इस चुहलबाजी में मजा आता था, मजे की तो आप जानो ही हो, आ जाये तो…….।    पलटवार करने में मोती मियाँ भी कुछ कम नहीं थे, अपनी महीन सी आवाज में दो डायलाग बड़े प्रिय थे उनके,       १. अबे, फ़ेवीकोल लगा ले मूं पे, बता रिया हूँ तुझे।      २.  जबान पर रन्दा फ़िरवाके ही मानेगा तू,  ऐसा लगे है।       और ऐसे अंदाज में कहते बड़े सीरियस होकर कि हँसी छूट ही जाती थी। हमारी ओब्जर्वर निगाहों ने एक दिन उनके थैले पर गौर किया तो उसमें आरी, हथौड़ी, पेचकस, प्लास जैसे औजार दिखे तो उनके डायलाग्स का सबब समझ आ गया, बड़े मियाँ बढ़ई थे।

अब स्टेशन को छोडि़ये, चलते हैं बैंक में। हमारे इंचार्ज  थे निहायत ही दिलेर सिंह। स्वभाव के एकदम मस्त, यारों के यार। ज्यादा  ध्यान  प्रोपर्टी के धंधे पर और पर्सनल रिलेशन बनाने पर, जैसे यहाँ,   जाने दो बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। तो कभी कभी कुछ काम ऐसे कर जाया करते कि उनसे बहुत छोटा और जूनियर होते हुये भी मैं टोक दिया करता, बाबूजी जरा धीरे चलो।  मानते बहुत थे मुझे, हँस देते और हमेशा कहा करते, “छोड़ो यार, कौन सा फ़ाँसी फ़िट  होने वाली है इसमें?” हमेशा ही हर सीरियस बात को यह कहकर हवा में उड़ा देते, “छोड़ यार, कौन सा फ़ाँसी फ़िट होने वाली है?”

एक दिन मैं घर लौटा तो पिताजी किसी बात पर मेरे छोटे भाई पर नाराज हो रहे थे,  और वो सिर झुकाये खड़ा था। बात मालूम की तो भाई से कुछ साधारण सी गलती हुई थी जोकि हमारे पिताजी को बहुत नागवार गुजरी थी। उनका मानना ये है कि छोटी गलती को समय रहते ही न सुधारा जाये तो आगे जाकर वो कभी नहीं सुधरती। अब अपने को भी रौब गांठने का मौका मिल गया, हम भी तो बड़े भाई ठहरे। अपन भी शुरू हो गये, भाषण देने। छोटा बेचारा पहले ही शर्मिंदा हो रहा था, अब दोतरफ़ा आक्रमण से घबराकर रुँआसा सा हो गया। अब हमने दलबदल कर लिया और  पिताजी को शांत होने के लिये कहा। वो अपने कथन पर अड़े रहे और हम छोटे के वकील बन गये। अब बहस पिताजी और मुझमें छिड़ गई। मैं अनजाने में बोल बैठा, “हो गई गलती, समझा दिया। अब क्या इस बात पर फ़ाँसी फ़िट करोगे इसके?” पिताजी एकदम से चुप हो गये,  मैं अपनी जीत समझकर चुप हो गया  और छोटे साहब तो पहले से ही चुप थे। मेरी नजर में मामला खत्म हो गया था। लेकिन पिताजी अब मुझसे बात नहीं कर रहे थे और मैं बात को भूल गया। दो तीन दिन बाद  माँ से बात की, पिताजी कुछ नाराज दिख रहे हैं  तो उन्होंने उस दिन मेरी कही हुई बात    याद दिलाई और हैरान हुईं कि ऐसी बात मुँह से निकली कैसे?  शर्म बहुत आई खुद पर, जाकर पिताजी से भी बात की, कैफ़ियत दी और माफ़ी माँगी। अगले दिन ऑफ़िस में जाकर बॉस को भी बता दी सारी बात और आगे के लिये जबान पर काबू पाने की कोशिश शुरू कर दी।

आज छुट्टी का दिन था। किसी बात पर अपने बड़े UKP  को छोटे वाले का ध्यान रखने के लिये कह रहा था, समझाया उसे कि बड़ा होगा तो जिम्मेदारी संभालनी होगी, अभी से तैयार रहना चाहिये, उसका जवाब था, “अच्छा, ठीक है।” मैंने कहा, “इतनी आसान नहीं है। शायद मुझे देखकर ऐसा कह रहा है कि पापा सुबह आराम से बाईक उठाते हैं और चले गये कुर्सी पर बैठने। शाम को घर आये तो बैठ गये कम्प्यूटर के आगे। इतनी आसान नहीं है जिन्दगी, याद करेगा बचपन के इस टाईम को।” जवाब मिला, “देखी जायेगी।”                            फ़िर टॉपिक चेंज किया, “ध्यान से पढ़ाई कर, सिर्फ़ यही तो काम है तुम्हारा इस समय।”  पूछने लगा, “मार्क्स अच्छे आने चाहियें न?”   मैंने कहा, “हाँ, यही समझ ले। समझना तो जरूरी है ही लेकिन मार्क्स भी अच्छे आने चाहिए।” फ़िर से जवाब मिला, “ठीक है, देखी जायेगी।”

मोती मियाँ दिन भर जिन हथियारों-औजारों के बीच रहते थे, वही फ़ेवीकोल, रन्दा आदि उनकी जबान का हिस्सा  बन   गये थे। मैं और मेरे एक्स-बॉस कई साल तक एक टीम के रूप में काम करते रहे, उनका तकियाकलाम मेरी जबान पर चढ़ गया था। मैं अपनी हर परेशानी में अपनी तरफ़ से पूरा प्रयास करता हूँ,  लेकिन थक हार कर घबरा जाने की बजाय यूँ कह दिया करता कि ’देखी जायेगी’ तो ये मेरे लड़के का भी स्टाईल बनता जा रहा है। सिर्फ़ प्रयास करना काफ़ी नहीं है, शायद अपनी बोली, अपनी भाषा पर और ध्यान देना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि मुँह से निकली इतनी सी बात दूसरों का लाईफ़-स्टाईल ही बन जाये। मेरी करनी पर नजर न डालकर अगर सिर्फ़  कहे पर उसने या किसी ने यकीन बना लिया तो बहुत दिक्कत होने वाली है। क्या कर सकते हैं सिवाय यह कहने के कि,    देखी जायेगी……..:))

:) एक शादी में फ़त्तू को कहीं दूर जाना पड़ा। जाते समय  बस में फ़त्तू आगे वाली सीट पर बैठा था और नींद के झोंके ले रहा था। थोड़ी थोड़ी देर के बाद ड्राईवर उसे जगा देता, पचास किलोमीटर रह गया, अब पैंतालीस किलोमीटर रह गया, अब बयालीस कि,मी रह गया, क्यों सोवे सै? लब्बो-लुबाब सारे रास्ते फ़त्तू को सोने नहीं दिया। विवाहस्थल पर पहुंच कर ड्राईवर साहब खापीकर बस में ही सो गये। थोड़ी देर में फ़त्तू ने आकर समय पूछा, ड्राईवर ने बताया  कि एक बजा है और सो गया। आधे घंटे बाद फ़त्तू फ़िर आया टाईम पूछने, झल्लाते हुये ड्राईवर ने बताया कि डेढ़ बजा है और फ़िर सो गया। अब हर बीस पच्चीस मिनट के गैप पर फ़त्तू उसे उठा दे और टाईम पूछे। तंग आकर ड्राईवर ने टाईम बताया कि सवा तीन बज गये हैं और घड़ी ही उतारकर बाहर फ़ेंक दी, “ले जा इस घड़ी  नै, इबके न आ जाईयो टैम पूछण।”
आधे घंटे बाद फ़त्तू ने फ़िर उठाया, “ड्राईवर साब, इबकी टैम पूछण ताईं न आया सूँ, घड़ी तो सै कोणी तेरे  धोरे। मैं तो  बताण आया सूँ अक पौने चार बज लिये सैं।” 


36 टिप्‍पणियां:

  1. पौने चार बज लिये पर यो विडिओ चाल्ता कोन्नी।

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  2. सॉरी जी, विडिओ चल रहा है - शायद मेरे नेट्वर्क की समस्या थी।

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  3. ओजी, सर जी! पोस्ट ते घनी मजे की बन पड़ी सै। और फ़त्तू भी खासा पंक्चुअल हो रिया सै पर बात घनी चोखी कही सै तन्ने।

    अब जो लिख दिया सर,हरियाणवी ना भी हो तो फ़त्तु का नाम ले के भावनाओं को समझ जाइयेगा। :P

    और गीत के बारे में क्या कहूँ… अनुज मुकेश सा'ब का भक्त और मनोज कुमार जी का फ़ैन-कूलर-एसी जो ठहरा। लम्बे सफ़र से घर लौटने की सारी थकान फ़ुर्रर्र…… :)

    नमन्।

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  4. यो तो से जी....कद कद किसका तकिया कलाम अपना बन जावै कह न सकें हैै..दुनिया हो या अपनी औलाद ..... करनी से ज्यादा स्टाइळ पर ही ध्यान देने लगती है। मुश्किल यो से कि कोई हकीकत को तो देखना ही न चावै हे....इब कह दिया मस्त तो लोग दुखी की भाई काहे को है ये मस्त...तभी बुजुर्ग सिखाते थे बेटा जै खुशी आए तो संयम रखो जै दुख आए ता भी....हमें लगता की हद है यार.....पर ईब समझ में आई कि जाते वक्त ये क्यों कहते हैं कि आते हैं.....खुशी की खबर पर इत्ता क्यों कहते हैं कि अच्छी खबर है....खुश होकर क्यों नहीं कहते कि उछलने कूदने की खबर है.....तो जी बात यही है कि दुनिया मस्त राम को देख कर जलती है. औऱ मौका मिलते ही मस्त राम को जला देती है....ये न देखती कि मस्त राम मस्ती मे इसलिए है कि अपने काम के वक्त मस्ती करता है काम से नहीं.... पर जी लोग देखे कौनी.....वो तो जी बस इस्टाइल ही देखें है जी.....समझे...तो जी जौ मन मै आए वो न बोलो....के पता पुत्तर सीख ले....फिर वही जवाब अपने को दे दे.....आप हम तो कैफियत भी दे देते हैं....वो तो ये भी जरुरी नहीं समझेंगे.......

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  5. हमें तो आपकी पोस्‍ट देखते ही लगने लगता है 'आ गए मोती मियां'

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  6. पोस्ट तो आपकी ये भी अलग ही है ...
    यादों से हम बहुत कुछ सीखते है यादें न हों तो हम अपने आप में भी सुधार नहीं ला सकते...
    ये मनुष्य स्वभाव ही है कि जो बात हमसे छुपाई जाती है वही जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है...
    मैने सुना है कि यदि अर्जुन सवाल न करते तो गीता न बनती...अर्जुन सवाल करते गए और श्रीकॄष्ण समझाते गए...हम भले ही कॄष्ण न हुए पर जिस तरह आपके पिताजी ने बात समझाई वो किसी उपदेश से कम नहीं लगी...आभार...
    हम जिस वातावरण में पलते बढ़्ते हैं उसका असर पड़ता ही है हमारे आचार-विचार पर---(इसी पर कई दोहे कहे गए है)..
    और अन्त मे ---कई वर्षों से बच्चों के बीच काम करने का मौका मिला है...जब भी किसी बच्चे के बोले गए शब्दों को गलत पाती हूँ तो सबसे पहला प्रश्न मेरा यही होता है कि किससे सीखा? उसके बाद--आपके घर में कोई बोलता है? और अन्तिम ---क्या आपको ठीक लगता है ये बोलना?---------(तीसरे प्रश्न का उत्तर ही महत्वपूर्ण होता है)...
    बिलकुल फ़त्तू की तरह हो गए हैं बच्चे--इस हाथ दे,उस हाथ ले...
    टिप्पणी शायद बड़ी हो गई पर....देखी जायेगी...
    गीत-- पसंदीदा..शुक्रिया..

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  7. पैसेंजरी के अपने अनुभव नौकरी के वक्त के तो नहीं पर स्टूडेंट लाइफ के ज़रूर हैं और इन्हें जिंदगी का बेहतरीन हिस्सा मानता हूं !

    मोती मियां के डायलाग दिलचस्प हैं ,उनके जैसे कैरेक्टर प्रभावित कर जायें तो हैरानी कैसी ? स्कूल के दिनों में हमारे , इकोनोमिक्स के मास्साब पढाते वक्त बस यही कहते "समझ लीजिए जो है कि" हमने उनका नाम ही रख दिया 'समझ ...'

    आज आपकी पोस्ट बेहद पसंद आई ! आपके लिए दिल से दुआएं !

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  8. व्यक्ति शब्द तो अपने परिवेश से उठाता है पर व्यक्तित्व तो स्वयं ही निर्माण करता है।

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  9. कभी कभी चिढ़ होती है वैसे ऐसे लोगों से :)
    वैसे मेरे भी कुछ तकिया कलाम हैं लोगों को चिढ़ाने के, अगर कभी कोई दोस्त या भाई समझाता है तो बोलता हूँ , 'यार , बात तो तुम्हारी भी ठीक है |' अगर ज्यादा ही करीबी हो या ज्यादा ही मजाकिया मूड में हूँ , तो ओमकारा वाला स्टाइल , 'सत्बचन भई सत्बचन !'

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  10. संजय भाई आपने कितनी बातें याद दिला दीं। ज्‍यादा नहीं दो साल हमने भी होशंगाबाद-भोपाल के बीच पैसेंजरी की है। और कितने ही पत्‍ता फेंटूं ग्रुप में रहे हैं और देखे हैं। कुछ ऐसे ही अनुभव हमारे भी रहे हैं।
    *

    तकिया कलाम से मुझे अपनी पिताजी की याद आ गई। उनका तकिया कलाम था,' आके तिंगे' । अक्‍सर मां जब नाराज होती हैं तो वे पिताजी को बस यही कहतीं कि तुम तो बस आके तिंगे करते रहो। बहुत‍ दिनों तक हमें इसका कोई अर्थ ही समझ नहीं आया। बाद में पता चला कि पिताजी असल में 'आई थिंक ऐ' बोलते हैं और वह धीरे धीरे आके तिंगें में बदल गया है।

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  11. भाई साहब,
    अब इसे इत्तेफाक कहो या कुछ और, आपके देहाती वाली घटना तो मेरे साथ भी हुई है यमुनानगर स्टेशन पर, जिसमे देहाती मै था।
    मेरे लिए तो मोती मियाँ आपकी पोस्ट और कमंेट ही है।
    हमारे शब्दो का हमारे परिवेश पर असर तो होता ही है, मेरे पिता जी बात बात पर कहते है कि “दो लगेंगे कल्ले पे“, और वही बात आज मेरी जबान पर रहती है।
    फत्तू तो मस्त है ही।

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  12. हम भी पकडन की कोशिश म्है हां जी आपके वाला ट्रैक
    पकड म्है आग्या तो ठीक, वर्ना देखी ज्यागी
    अर इब फत्तू तै पंगे कोये ना ले पावैगा

    प्रणाम

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  13. जबदस्त पोस्ट...एक ही सांस में पढ़ गया...कमाल का लेखन है आपका...और फत्तू...वो तो ग्रेट है...

    नीरज

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  14. हर बार की तरह इस बार भी कुछ नया , भाई मजा आगया, मुझे तो आपका फत्तु बहुत अच्छा लगता है । और मासाअल्लाह, क्या गाना लगाया है, मन खुश हो गया ।

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  15. बचपन में बादाम ना खाने का क्या नुकसान है आज पता चला, पुरानी बाते याद तो रहती है पर इतने कामा फुलस्टॉप के साथ नहीं , इसी लिए बच्ची को खिला रही हु असर अभी से दिख रहा है बोलने में पूरी मेरी कॉपी करती है व्यंग्य करना तिरझा बोलना और चिल्लाना और कॉपी करने के लिए चार साल की उम्र में ही उनका आब्जर्वेशन ऐसा है की बड़े मात खा जाये उन्हें बोलता देख कर मुझे पता चलता है की अच्छा तो मै ऐसा करती हु आज से ही अपनी आदत बदलनी पड़ेगी | उन्हें गलती करने पर सॉरी कहना सिखाया आज की तारीख में वो हमें दिन में एक बार और हम उन्हें दिन में पांच- छ बार सॉरी कहते है क्या करे वो शैतानी से बाज नहीं आएँगी मै चिल्लाने से और वो सॉरी कहलवाने से उनको सिखाते सिखाते खुद मेरी कई ख़राब आदते अब सुधर रही है |

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  16. @ भारतीय नागरिक:
    धन्यवाद जी:)

    @ स्मार्ट इंडियन:
    चाल पड़्या तो फ़ेर ठीक सै जी, न तो करते इसकी ढिबरी टैट सी।

    @ रवि शंकर:
    रवि,लंबी छुट्टी काटी इस बार। आशा है सब सकुशल होगा।

    @ bole to bindas:
    क्यूँ बहकाते हो यार रोहित:) गलत मत करो किसी का, बाकी रहो मस्त। जलने वाले तो जलेंगे ही।

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  17. @ राहुल सिंह जी:
    मंजूर है जी नया नाम:)

    @ अर्चना जी:
    गलत शब्द चयन पर आपका बताया फ़ार्मूला बहुत कारगर लग रहा है। प्रैक्टिकल सोल्यूशन के लिए धन्यवाद।

    @ अली साहब:
    दुआओं के लिये शुक्रगुजार हूँ, अली सा।

    @ प्रवीण पाण्डेय जी:
    सही कथन है सर, आपका।

    @ नीरज बसलियाल:
    "'सत्बचन भई सत्बचन !':))

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  18. हमारे कहावत है बडे बडे सूरमा हारे अपनी औलाद से ही . इसलिये अपन तो चाइल्ड फ़्रेंडली है . सब बच्चे खुश रहते है हर उनकी जायज मांग तुरन्त पूरी होती है . लेकिन उन्हे भी सम्झा दिया है तैते पांव पसारिये जैती लम्बी सौर

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  19. सामाजिक दायित्व में उलझा हूँ... ये तकिया कलाम भी अजीब चीज़ है.. हमतो अपने फिजिक्स के प्रोफेसर साहब की सिम्प्ली गिना करते थे टैली लगाकर और बाद में सारे दोस्त मिलकर चेक करते थे गिनती में गड़बड़ तो नहीं हुई है!!
    जल्दी में हूँ.. फत्तू को सलाम और गाना अगेन मेरा फेव!!

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  20. @ राजेश उत्साही जी:
    राजेश जी, आप से यदि डेली पसेंजरी के अनुभव शेयर करने की कहूँगा तो शायद तोप से मक्खी मारने वाली बात होगी, लेकिन कभी दिमाग भारी हो किसी वजह से, तो आजमाकर देखियेगा इन मामूली लम्हों को कलम से छूने की। आपका दिमाग हल्का होगा और हमारा अनुभव वजनदार। अब देखिये न ’आके तिंगे’ पर हमें भी अपने स्टाफ़ का ’एम.आई.डी.आर.’ और ’क्यू.आई.डी.आर.’ का सहज रूपण याद आ गया। बताता हूँ कभी वो भी। विशेष आभार आपका।

    @ deepak saini:
    इत्तेफ़ाक डियर, इत्तेफ़ाक। तुम्हारा अनुभव यमुनानगर का और अपना यमुनापार का। किसी दिन हमारी नीयत पर शक किया तो, ’दो लगेंगे कल्ले पे’(बड़ा हूँ यार तुमसे):))

    @ अन्तर सोहिल:
    ट्रैक भी थारा और हम भी थारे, देखी के ज्यागी भाई? अर फ़त्तू(यो भी थारा ई सै) तो बाट देखे सै भाई पंगे की:)

    @ नीरज गोस्वामी जी:
    नीरज भा जी, कमाल का तो आपका धीरज है, हम जैसों को हंसकर झेल लेते हो। आपको अपने यहाँ देखकर खुद को ग्रेट तो मान ही लेते हैं हम, शुक्रिया।

    @ मिथिलेश दुबे:
    मिथिलेश, हमारे छोटे हमसे खुश तो हम भी खुश। अच्छा लगा बहुत दिनों के बाद तुम्हें देखकर। खुश रहो दोस्त।

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  21. देर...बहुत देर...उससे भी ज्यादा देर से आने के लिए माफी माँग लूँ? दो दिन से Vicks Action 500 के advertisement के पहले भाग को बार बार दोहरा रहा हूँ। :)
    रास्ते से चुनी ऐसी छोटी-छोटी मीठी बातों में आनंद होता है, जो समय के साथ बढ़ता ही जाता है।
    पर कितने पिरो पाते हैं आपके जैसा?
    तकिया कलाम के कई किस्से रहे हैं, पर "ठीक है, देखी जायेगी।” बहुत जोरदार है।
    फत्तू साहब की तारीफ़ नहीं की जा सकती, उनका मुरीद हुआ जा सकता है चुप-चाप।
    गाना बहुत अच्छा है, हर बार की तरह।
    अपना करते हैं, वो आपकी मर्जी लेकिन छोटे उस्ताद को UKP कहेंगे? घोर विरोध है हमारा। :)
    भूल-चूक माफ़ करेंगे तो ठीक, वरना.. 'देखी जायेगी' :)

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  22. गाना सुनके तो अपुन भी मस्‍त हो गया। अब बधाई ले ही लीजिए, आगे की देखी जाएगी।

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    बोलने वाले पत्‍थर।
    सांपों को दुध पिलाना पुण्‍य का काम है?

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  23. दादा अक्सर ऐसा होता है कि हमारे ग्रुप में किसी का कोई विशेष तकिया कलाम होता है और उसे टोकते टोकते पता ही नहीं चलता कि कब वो हमारा तकिया कलाम बन गया. अक्सर ऐसा भी होता है कि वो तो छोड़ देता है मगर हम अपना लेते हैं.
    फत्तू ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया. मान गए. :)
    देर से आने के लिए क्षमा नहीं मांगूंगा. जरुरी है क्या? :)

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  24. @ Anshumala ji:
    नन्हीं परी का नाम वीरता पुरस्कार के लिये नामित किया जाना चाहिये, आप सम को सॉरी(वो भी बहुवचन में)बुलवा देती है:)
    आपकी बिटिया को बहुत सा आशीष।

    @ धीरू सिंह जी:
    चाईल्ड फ़्रैंडली, सब बच्चे, जायज माँग, सौर मुताबिक पाँव पसारना - बढ़िया है जी, सब बढ़िया।

    @ चला बिहारी....:
    सलिल भाई, निश्चिंत होकर दायित्व निभायें।

    @ अविनाश चन्द्र:
    माफ़ी वाफ़ी का कोई हिसाब नहीं है हमारे यहाँ। वो क्या कहते हैं इंग्रेजी में ’गैट वैल सून।’
    विरोध बहुत अच्छा है, जैसे सर्फ़ एक्सेल की एड।

    @ जाकिर अली ’रजनीश’
    शुक्रिया जाकिर भाई।

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  25. अपुन का तकियाकलाम.......... धकाधक.......... और फत्तू मियां सम्हाल जाओ हर बार शरीफ आदमी नहीं मिलते.

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  26. लो कर लो बात ! हद हो गई..! यही सब तो मैं पोस्ट करने वाला था। एम.एस.टी. होल्डर्स की राम कहानी। “ठीक है, देखी जायेगी।” वाली आदत बहुत खराब है। अब नहीं करनी। इसके आगे फ्लॉप शो साबित हो जानी है। वैसे भी हर पोस्ट में ई फत्तुआ बूस्ट का काम करता है। जैसे नई फिल्म में आयटम सॉंग..! सुपर हिट!

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  27. ऐसी आदत पड़ जाने पर वो दोस्त अच्छे होते हैं जो चिढ़ा के परेशान कर देते हैं और फिर छोड़ना ही पड़ता है.

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  28. गनीमत है आपको कभी गाली देने की आदत नहीं पड़ी :) माँ-बहन की निकल जाता कभी घर पे तो कल्याण ही हो जाता. हमें तो अपने एक होस्टल के दोस्त की याद आई ... हम समझ नहीं पाते थे वो घर जाने पर बात कैसे कर पाता है.

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  29. @ सोमेश सक्सेना:
    सोमेश आने का धन्यवाद नहीं दे रहा तुम्हें, जरूरी है क्या:)

    @ उपेन्द्र जी:
    धकाधक तो मस्ते मस्त है जी, लेकिन फ़त्तू तो डर गया है आपकी चेतावनी से। हमारा फ़त्तू गरीब, चलो, देखी जायेगी...

    @ देवेन्द्र पाण्डेय:
    ये इमोशनल अत्याचार है, देवेन्द्र भाई। आप जैसा हम लिख पाते तो क्या बात होती..। लिखिये बहुत विस्तृत विषय है ये, बल्कि मिला सके तो हम भी ताल से ताल मिलायेंगे। और फ़िट फ़्लॉप की भली कही, हमारी तरफ़ आप भी एक एक का धन्यवाद करते चलना। सुपर हिट हो जायेगी आपकी पोस्ट भी:)

    @ अभिषेक ओझा:
    सब उगलवा कर ही मानोगे। तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मेरी छवि और पातालगामी हो जायेगी। खैर, चल दिये थे इस रास्ते पर भी लेकिन समय रहते सुधर गये। सैल्फ़ डैराईवड फ़ार्मूला अपनाया था, टाईम हो कभी खोटी करने को तो पढियेगा, शायद मजा आये - http://mosamkaun.blogspot.com/2010/07/part-1.html और
    http://mosamkaun.blogspot.com/2010/07/part-2.html

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  30. हमारा फत्ते इस फत्तू का बैकबेंचर हो गया है। देखता हूँ ;)

    @ 'देखी जायेगी'
    देख लेंगे।

    टिप्पणियों में 'हाँ नहीं तो' का न दिखना खल गया।

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  31. @ गिरिजेश राव:
    आचार्य, ऐसा न कहें। फ़्रंटरनर हैं आप और आपके पात्र।
    हमीं फ़त्तू को विदड्रा कर लेते हैं।

    @ टिप्पणी में - काश कि ’देखी जायेगी’ का कहीं न दिखना भी कभी खले किसी को:))

    कभी कभी मेल(mail)भी चैक किया कीजिये, आजकल उल्टे सीधे बहुत संदेश आ जाते हैं।

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  32. 1. लेख का उपसंहार -तकिया क़लाम नहीं ही अपना चाहिये.
    2. फत्तू को नमस्कार. और ल्यौगा पंगा !

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  33. ओह आप का ये जवाब तो अभी देखा जी मेरी बिटिया को आशीष देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद | और वीरता का पुरस्कार उसे नहीं हमें मिलना चाहिए जो दुनिया की सबसे शैतान परी को संभाल रहे है | :)

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  34. @ काजल कुमार जी:
    सही उप संहार है जी - न तकिया न कलम।

    @ prkant:
    :))

    @ anshumala ji:
    आप रख लो जी ईनाम, कैटेगरी बदल देते हैं अवार्ड की। बिटिया को मिलता तो बहादुर बच्चों वाला ईनाम होता, आप को चाहिये तो ’रेड एंड व्हाईट वीरता पुरस्कार।’ बस एक बार बोलना होगा, हम रेड एंड व्हाईट.....:))

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