दुनिया के तमाम नौकरीपेशा लोगों के लिये सप्ताहांत बहुत दिनों के बाद आता होगा, सुबीर के लिये ये बहुत जल्दी आता था। बाकी दिन तो कट जाते थे, छुट्टी का दिन बिताना उसे कभी भी सरल, सहज नहीं लगा। इस बार बहुत दिन निकलने तक बिस्तर में पड़ा रहा वो, उठा भी तो अनमने ढंग से। नित्यक्रिया से निबटकर नाश्ता बनाया और खा पीकर कपड़े धोने लगा। अकेलेपन का एकमात्र साथी रेडियो अपना फ़र्ज निभा रहा था, शुक्र है कि निर्जीव चीजों के पास दिल नहीं होता। बची रहती हैं वो उम्मीदों से, अपेक्षाओं से। मन किया तो उनका ऑन स्विच दबा दो, मन भर जाये तो ऑफ़ कर दो। कोई गिला, कोई शिकवा नहीं करती ऐसी चीजें कि हमसे फ़ायदा तो उठा लिया और काम निकलने के बाद भूल गये। सुबीर के चेहरे पर ये सोचकर हँसी आ ही गई, वरना आज बहुत बोझिल दिन बीत रहा था। इस सब में दोपहर हो गई और खाने की तैयारी करने ही लगा था कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। देखा तो बाहर शुभ्रा के पिताजी खड़े थे। हैरानी तो हुई ही, परेशानी और ज्यादा लगी उसे। अंकल को प्रणाम किया तो उन्होंने हँसते हुये कहा, “बेटा, आज रात का खाना हमारे यहाँ होगा तुम्हारा, ये आदेश सुनाने आया है ये बूढ़ा।” सुबीर को असुविधा सी महसूस होते देख उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा और समझाने लगे, "शुभ्रा तुम्हारी कुलीग है, बहुत तारीफ़ करती है तुम्हारी। अकेले रहते हो, छुटटी वाले दिन घर आ जाया करो, अच्छा लगेगा हमें भी और शायद तुम्हें भी।" सुबीर ने एक दो बार विनम्रता से डिनर के लिये मना किया भी, लेकिन आदेश और बूढ़ा जैसे शब्द सुनकर रात आठ बजे का समय तय हो गया। उसने कहा भी अंकल से कि अंदर आयें, बैठें लेकिन वो अंदर नहीं आये। उनके जाने के बाद सुबीर फ़िर से बिस्तर में घुस गया, हो गई दोपहर के खाने की छुट्टी। बचपन में कई बार सुना था दोस्तों से कि कहीं दावत का न्यौता हो तो उससे पहले और बाद के भोजन का नागा करने से मेजबान की आतिथ्य भावना का सम्मान होता है। आज बात बेबात चेहरे पर मुस्कान आ रही थी, जरूर होगी कुछ न कुछ उथल पुथल जीवन में। ये ऊपर वाला भी चैन से रहने नहीं देता,अपनी सत्ता का अहसास दिलाने के लिये चाहे जो संयोग बैठाने पड़ें, बंदे को मजबूर कर ही देता है।
समय से तैयार होकर शुभ्रा के घर को चल दिया सुबीर। कुछ था जो खींच रहा था उसे, वरना वो तो बहुत नीरस टाईप का इंसान था। रास्ते से एक गिफ़्ट पैक करवा लिया और सही समय पर शुभ्रा के घर पहुँचा। अंकल से तो एकाध बार सड़क पर मुलाकात हो चुकी थी, आंटी से पहली बार मिला। जब प्रणाम के जवाब में उन्होंने सर पर हाथ फ़ेरा तो आँखें गीली हो गईं सुबीर की, स्नेह खून के रिश्तों का मोहताज नहीं होता। अंकल के बारे में पूछा तो पता चला कि अभी पूजा-पाठ में लगे हैं, आते ही होंगे। आंटी फ़िर से रसोई में चली गईं और उसने ध्यान से शुभ्रा की तरफ़ देखा, हमेशा की तरह चहकती हुई और पिछली रात की तरह महकती हुई लगी। वो सोच रहा था कि क्या इन लड़कियों को ठंड नहीं लगती? खुद तो आज जाने कितने समय के बाद सफ़ेद शर्ट पहनी थी, वो भी स्वैटर के नीचे दब गई, और इन देवीजी को देखो तो कैसे अपने खूबसूरत सूट को नुमाया कर रही हैं?
“आप को सर्दी नहीं लगती? कोई शाल या स्वैटर वगैरह ओढ़ना चाहिये आपको।”
“बुद्धू कहीं के।” शुभ्रा ने कहा, “कोई और होता तो ड्रेस की तारीफ़ करता।”
“तारीफ़ सुनना बहुत अच्छा लगता है आपको भी। कोई और होती तो ये सोचकर खुश होती कि किसी ने उसकी परवाह की है, ड्रेस से ज्यादा।”
शुभ्रा देखती रही उसकी तरफ़, और बोली, “मैं भी खुश हूँ। ऐसा क्यों लगा तुम्हें कि मुझे अच्छा नहीं लगा?”
“बुद्धू की उपाधि से नवाजा न आपने, इसलिये ऐसा लगा। शुभ्राजी, मुझे आजतक किसी ने ऐसे नहीं कहा, न पागल न ईडियट और न बुद्धू, लेकिन तुम्हारा सॉरी आपका ये कहना भी अच्छा ही लगा।”
“ऐ सुनो, तुम जो हमेशा मुझे बड़ी और सीनियर होने की बात सुनाते रहते हो, मैं तुम्हें बहुत सताने वाली हूँ। ये सब तो सुनना ही होगा तुम्हें। और ऐसी कोई बहुत बड़ी भी नहीं हूँ तुमसे, साल छह महीने का फ़र्क क्या मायने रखता है? और ये बात बात में शुभ्राजी, शुभ्राजी कहने की आदत बदल लोगे तो सुखी रहोगे।”
“मेनका जी कहकर बुलाया करूँ फ़िर आपको?”
“न, सिर्फ़ मेनका। और दोबारा कभी आप कहा तो तुम्हें झील के किनारे ले जाकर धक्का दे दूँगी मैं। सच में एक नंबर के पागल हो तुम।” वो खिलखिला कर हँस दी और दूर कहीं इन्द्र को जरूर सुकून सा मिल गया होगा कि उसकी गद्दी को फ़िलहाल किसी विश्वामित्र से कोई खतरा नहीं।
जारी(न चाहते हुये भी)...…
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एक सूचना देनी है आपको। मेरे और आप सब के प्रिय अविनाश(मेरी कलम से …….) का कविता-संग्रह ’अबाबील की छिटकी बूँदें’ संकल्प प्रकाशन, दिल्ली से छप कर आया है। कोई और होता तो पता नहीं कितना उछलता कूदता, और हमारा ये हीरा ऐसा है कि किसी को बताना भी नहीं चाहता। मुझसे अपनी खुशी आपसे बाँटे बिना नहीं रहा गया, सो बिना अविनाश से पूछे बता दिया है। शायद मुझसे नाराज भी हो जाये, लेकिन दे… ……:)) मना लेंगे।
बुद्धू कहीं का !!!
जवाब देंहटाएंकहानी ६०-७० के उन चुहल भरे पलों में जी रही है
बधाइयां... अविनाश के साथ आप को भी.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से, आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - नयी दुनिया - गरीब सांसदों को सस्ता भोजन - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
"कोई और होती तो ये सोचकर खुश होती कि किसी ने उसकी परवाह की है, ड्रेस से ज्यादा" ये सही लाइन है. उपयोगी और प्रभावी. :)
जवाब देंहटाएंकहानी बढि़या चल रही है, गुदगुदाती सी, सहलाती सी.
जवाब देंहटाएं''निर्जीव चीजों के पास दिल नहीं होता। बची रहती हैं वो उम्मीदों से, अपेक्षाओं से।'' पत्थर के देवता और पत्थर के ही सनम.
अविनाश जी बुरा क्यों मानेंगे भला, उन्हें बधाई.
बस निर्जीव चीजें ही बच पाती हैं अपेक्षाओं से , उम्मीदों से ..
जवाब देंहटाएंस्नेह खून के रिश्तों का मोहताज नहीं होता ...
दोनों पंक्तियाँ अपनी ही अभिव्यक्ति लगीं ..
कहानी की रोचकता अगली किश्त का इंतज़ार करने को मजबूर कर रही है ....
अविनाश जी को बहुत बधाई !
बढ़िया कहानी ...अंत तक बांधे रहने में कामयाब..
जवाब देंहटाएंअरे नीरज जी आप भी कहाँ 60-70 के दशक में पहुँच गए। इतने बूढ़े भी नहीं हैं अपने संजय जी। 80-90 में भी बैचलर रेडिओ सुना करते थे संचार क्रांति तब भी नहीं आई थी।
जवाब देंहटाएंसंजय जी 'कहानी' सचमुच बहुत बढ़िया चल रही है, हम भी नहीं चाहते कि ये जल्दी खत्म हो। :)
अविनाश जी को इस उपलब्धि पर बहुत बहुत बधाई। :)
पिछले बार उन्होने एक शंका जाहिर की थी एक शंका मुझे भी है- कहानियों के नायक, नायिका और अन्य पात्र हमेशा बौद्धिक और अर्थपूर्ण बातें कैसे कर लेते हैं? आम जीवन में तो हमने ये नहीं देखा। ये सवाल भी आपसे नहीं बल्कि समस्त कथा जगत से है। वैसे आप भी जवाब दे सकते हैं। :)
प्रेम सुरंगें, न जाने कहाँ निकलना हो।
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जवाब देंहटाएंकहानी अच्छी चल रही है।
जवाब देंहटाएंअन्तिम पक्तिँया कुछ खास लगी
अविनाश जी को बधाई
कहानी के रोमांटिक होने वाले अहसास को ही जीना चाहूँगा ! सिर्फ इतना बता दीजिए कि छुट्टी का वो दिन रक्षा बंधन/भाई दूज का तो नहीं था :)
जवाब देंहटाएंअब अगर ये प्रेम ही हो तो यह गज़ब का संयोग है कि वहां गिरिजेश जी के मनु से उर्मि और यहां मो सम कौन ? के सुबीर से शुभ्रा उम्र में बड़ी है...और ये कमबख्त 'बुद्धू तत्व' तो प्रेम कथाओं की जान हो जैसे :)
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जवाब देंहटाएंacchaa lagaa bhyi yahaan aakar....is post ko padhkar......
जवाब देंहटाएंकहानी बहुत ही अच्छी चल रही है.............. अविनाश जी को उनके नये कहानी संग्रह के लिये हार्दिक शुभकामनाये.
जवाब देंहटाएंडर लग रहा है इस रुमानियत से.. क्योंकि आप जैसे लेखक जब कहानी को यू टर्न देते हैं तो रोमांस धरा का धरा रह जाता है!! लिहाज़ा जब कोई बहुतखुश होता दिखता है तो उसके ठहाकों सए ज़्यादा उसके आँसुओं का इंतज़ार रहता है!
जवाब देंहटाएंजो भी हो, फिलहाल ये दूसरा एपिसोड बहुत ख़ुशगवार रहा. सोमेश जी के प्रश्न पर सिर्फ स्माइली ही दे सकता हूँ, वर्ना मैं मिल चुका हूँ एक शख्स से जो रोमांस के पलों में बौद्धिक और अर्थपूर्ण बातें करता था...
अविनाश जी को बधाई! और गाने ने मुझे मेरे स्वर्गीय पिताजी की याद दिला दी, यह उनका भी पसंदीदा गाना है!!
सोच रहा हूं पूरी कहानी पढने के बाद ही कुछ लिखूं . अभी तो आगे का इन्तज़ार है
जवाब देंहटाएं@बचपन में कई बार सुना था दोस्तों से कि कहीं दावत का न्यौता हो तो उससे पहले और बाद के भोजन का नागा करने से मेजबान की आतिथ्य भावना का सम्मान होता है।
जवाब देंहटाएंदोस्त सभी के अच्छे ही होते हैं, धारण गलत नहीं है। :)
@ “बेटा, आज रात का खाना हमारे यहाँ होगा तुम्हारा, ये आदेश सुनाने आया है ये बूढ़ा।”
सच में बहुत मुश्किलें हो जाया करती हैं ऐसे समय पर। पर अच्छा ये है कि भोजन बनने से पहले बुलावा आया।
@शुक्र है कि निर्जीव चीजों के पास दिल नहीं होता। बची रहती हैं वो उम्मीदों से, अपेक्षाओं से।
कितना कुछ समेटे हुए है ये वाक्य, ऐसा लिखा पढना अच्छा लगता है। :)
वैसे आज का एक और प्रश्न हुआ, सोमेश जी वाला। उत्तर ढूँढना पड़ेगा।
जारी है तो अच्छा है, इन्तजार इतना बुरा भी नहीं होता। हल्की आवाज में रेडियो का बजना अच्छा है।
:)
अब आप से एक शिकायत है, वो जो नीचे का हिस्सा है नीला सा। जी हाँ वही, उस मधुर गीत से ठीक ऊपर का , वो फत्तू साहब की जगह है। कोई और ले ले, ये ठीक नहीं। :)
आप सभी के स्नेह संदेशों का आभार।
P.S. यह बहुत अधिक प्रशंसा हो गई है, मैं इसके जरा भी लायक नहीं। कमबख्त स्नेह! क्या क्या नहीं करवाता :)
२०० टीवी चैनल के ज़माने में रेडियो कौन से ज़माने की कहानी है | अदा जी के सवाल का जवाब हम भी सुनना चाहेंगे |
जवाब देंहटाएंएक बार पाबला जी ने कहा था की वो अब तक जितने भी ब्लोगर से मिले है वो देखने में वैसे नहीं थे जैसा सोचा था :))
पहली टिप्पणी में नाम गलत लिख दिया था पर माडरेशन में एक बार लिख दिया तो फिर सुधारने का मौका नहीं मिलता है यही बड़ी मुश्किल है |
@ नीरज बसलियाल:
जवाब देंहटाएंनीरज, हम तो हैं ही गुजरे जमाने की चीज। मेरा जन्म सत्तर का है. सो गोल्डन टाईम तो उससे पहले का ही हुआ न?:))
@ भारतीय नागरिक:
शुक्रिया सर।
@ शिवम मिश्रा:
आभारी हूँ शिवम जी, आपका।
@ अभिषेक ओझा:
’उपयोगी और प्रभावी. :)’ सही है जीनियस।
@ राहुल सिंह जी:
प्रेम-पत्थर:))
आपने सांत्वना दे ही दी है, अब अविनाश नहीं बिगड़ेंगे मुझपर:))
@ वाणीगीत:
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वाणीजी।
@ सतीश सक्सेना जी:
शुक्रिया बड़े भाई।
@ सोमेश सक्सेना:
हुं, मतलब ये कि संजय जी बूढ़े हैं बस उतने नहीं हैं। आखिर उत्पात शुरू हो ही गया, कोई बात नहीं, देख लेंगे:))
तुम्हारी शंका पर यह कह सकते हैं कि कथा\कहानी तो उन्हीं की कही जाती है जो ऐसा सोचते हैं, बाकी तो हम जैसों की तरह आये, रहे और चले गये - जंगल में मोर नाचा किसने देखा? किसी बड़े प्लेटफ़ार्म पर ये शंका उठाते तो अच्छा विमर्श देखने को मिल सकता था।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
देखिये सर, कहाँ निकलती हैं या कहाँ गुम होती हैं?
@ अदाजी:
@हम भी यही जानना चाहेंगे..:)- हाँ-हाँ, क्यों नहीं? आप क्यों पीछे रहें हमारा जुलूस खींचने में? ये तो नहीं हुआ कि कुछ मदद की होती, जवाबदेही हमारी ही सिद्ध कर दी।
वैसे तो आप हैं वैदेही माता की पार्टी की और हम ठहरे रामजी के चेले,फ़िर भी एक गुजारिश है। एक प्रसंग है रामजी के द्वारा पानी में पत्थर छोड़ने का, अवधिया जी से या किसी और ज्ञानीजन से यह प्रसंग सुन लीजियेगा, किसी को धक्का देने से पहले।
अविनाश के प्रति आपके स्नेह के लिये मेरी तरफ़ से एक्स्ट्रा आभार।
@ दीपक सैनी:
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दीपक।
@ अली साहब:
सप्ताहांत था जी।
नायिका के उम्र में बड़ी होने वाली बात को संयोग भी मान सकते हैं और चूँकि गिरिजेश जी पहले से लिख रहे हैं तो इसे प्लाट की चोरी भी मान सकते हैं, हम ऐतराज नहीं कर सकते। @’बुद्धू-तत्व’ - अली सा, बुद्धू हुये बिना कोई प्रेम कर भी सकता है क्या?:))
@ राजीव थेपड़ा:
शुक्रिया राजीव जी।
@ उपेन्द्र ’उपेन’:
धन्यवाद उपेन्द्र जी। जिसका जिक्र किया है, वह कविता-संग्रह है।
@ मो सम कौन ? जी ,
जवाब देंहटाएंहम इसे प्लाट चोरी तो नहीं मान रहे हैं जी बस एक और संयोग(शक) सा हो रहा है ! कहीं आप और गिरिजेश जी एक ही इंसान तो नहीं जो अलग अलग प्रोफाइल से ... ? :)
प्रेम के बोधि तत्व पर आपसे सहमत :)
जारी (न चाहते हुये भी)
जवाब देंहटाएंक्यों नहीं चाहते जी?
दो बूंदे टपका कर होठों पे प्यास जगा दी
और अब प्याला छीन ले जाते हो
प्रणाम
पोस्ट परसों मोबाईल पर पढ ली थी, लेकिन आपके दर्शन करने दोबारा आया कि फोटो को बडा करके देखना है।
जवाब देंहटाएंअब कितने महिने रह गये जी साक्षात दर्शन दोगे जब, जरा गिनकर बताईयेगा। :)
प्रणाम
e bhaijee .... is kahani ko aaram se ...... kiston
जवाब देंहटाएंme .... der tak .... ane dena ...... agar jaldbazi
kari ...... to such me ...... kisi jheel me ......
dhakke de doonga ............
@वर्ना मैं मिल चुका हूँ एक शख्स से जो रोमांस के पलों में बौद्धिक और अर्थपूर्ण बातें करता था... yse hum kabhi mile to nahi
avinashji ko dhero badhai........
pranam.
@ चला बिहारी....:
जवाब देंहटाएंसलिल भाई, @ .. क्योंकि आप जैसे ...: सच में छवि खराब हो गई है मेरी:) कभी मिलवाईये उस शख्स से जिसका ज़िक्र आपने किया है। आदरणीय बाबूजी को हमारी तरफ़ से नमन।
@ धीरू सिंह जी:
जैसा उचित लगे करियेगा, धीरू भाई।
@ अविनाश चन्द्र:
आज कोई शिकायत नहीं सुनी मानी जायेगी, पार्टी-शार्टी से डरकर सेलिब्रेट भी नहीं करते हो - हम देंगे पार्टी, जस्ट वेट। कम्बखत स्नेह पता नहीं क्या-क्या करवाता है।
@ anshumala ji:
हमें तो मौका मिले तो आज भी रेडियो को टी.वी. पर तरजीह देंगे। ऐसे ही हैं जी हम।
पहली टिप्पणी में नाम देखकर मैं भी चकरा गया था, फ़िर सोचा मैं ही कहाँ सबको जानता हूँ, होंगे कोई सज्जन जरूर। माडरेशन का ये फ़ायदा भी तो है कि गलती हो जाने पर पहले से विस्तृत कमेंट मिल जाता है कभी-कभी:)
@ अली सा:
गलती हम जैसे छोटे ही नहीं करते, आप सरीखे भी कर जाते हैं। कैसा संयोग\शक सोचा आपने, हा हा हा। कहाँ बाऊ और कहाँ हम, सात जन्म में भी उन जैसा नहीं लिख सकते।
@ मो सम कौन ? जी ,
जवाब देंहटाएंबाऊ के लेखन की रेंज से ही तो शक हुआ जी :)
@ अंतर सोहिल:
जवाब देंहटाएंजब हमसे मय. मीना और साकी सब छीन लिया दुनिया ने तो हम किसकी प्यास बुझायेंगे? आग लगाने का, प्यास पढ़ाने का ठेका है जी अब तो म्हारे पास:)
इसी साल हाजिर होता हूँ अमित भाई, दर्शन करने।
राम राम।
@ संजय झा:
जरूर देना जी धक्का। बता देना कब आऊँ चंडीगढ़, नहीं तो मैं ही फ़ोन करता हूँ किसी दिन आपके सक्रियता क्रमाँक पर:))
आने का शुक्रिया, प्रोफ़ाईल देखा है तो लगा कि ब्लॉग लिखते नहीं आप, सिर्फ़ उत्साहवर्धन करते हैं। करिये न शुरू लिखना भी।
@ अली सा:
शक दूर कर लीजिये। वैसे ऐसे शक से मेरा कद ऊंचा होता है, बाऊ कुपित हो गये तो दिक्कत हो जायेगी:)
मेरी ओर से भी अविनाश को पुस्तक प्रकाशन पर ढेरों बधाई.
जवाब देंहटाएंसही,सार्थक,बेहतर रचना।
जवाब देंहटाएंहुकुम !
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो अब कहानी से बड़ा डर सा लग रहा है… मन कहता है जुड़ लूँ इस से लेकिन दिमाग कहता है कि बच्चू अगर जुड़ गये तो सर जी ऐसा घुमा के पटकेंगे कि चारों खाने चित्त। इसलिये अपन तो बस देखते रहेंगे…… और आनंद लेते रहेंगे। :)
अविनाश भाई के लिये बहुत सा स्नेह और शुभकामनायें।
मेरे मन कुछ और है साईं के कुछ और...
जवाब देंहटाएंफिर क्या हुआ?
ाविनाश जी को बधाई। कहानी अच्छी लगी। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएं@ काजल कुमार जी:
जवाब देंहटाएंकाजल भाई, आप जैसों की शुभकामनायें बल देती हैं।
@ दिनेश शर्मा,
धन्यवाद दिनेश जी।
@ रवि शंकर:
अनुज, सर जी? तुम्हारी मर्जी। मेरी तो यारों छवि खराब मान रखी है तुम जैसों ने:)
@ स्मार्ट इंडियन:
देखते हैं सर, क्या होता है।
आशा है भारत का दौरा सुखद रहा होगा। अगली बार छोटों से भी मुलाकात करनी होगी, प्रोविज़न रखियेगा:)
@ निर्मला कपिला:
शुक्रिया मैडम।