अपनी जवानी के दिनों में महबूबा का इतना इंतज़ार नहीं रहता था जितना बचपन में गरमी की छुट्टियों का। लोग पता नहीं क्यों गरमियों को कोसते थे, हमारा बस चलता तो अपना बचपन कांगो में या जायरे में गुजारते, जहाँ भारत की तरह नहीं कि सिर्फ़ दो महीने की गरमी की छुट्टियां हों बल्कि सारा साल ही गरमी के कारण स्कूल से निज़ात मिल जाती। एन.आर.आई. कहलाते सो अलग से। हम तो बचपन में कई बार सोचा करते थे कि स्कूल वालों को सिर्फ़ गरमी के महीनों की फ़ीस लेनी चाहिये, जब छुट्टी होती हैं। लेकिन हम इतने बड़े हो गये, आज तक किसी ने नहीं मानी, तब उस समय कौन मानता हमारी जब हम सचमुच के मासूम थे?
वैसे हमें स्कूल से कोई नफ़रत नहीं थी, अच्छा ही लगता था। बस ये टीचर नहीं होने चाहिये थे स्कूल में। लेकिन ये टीचर भी न होते तो हमारा ललित कलाओं में रुझान नहीं हो सकता था। पढ़ाई-वढ़ाई तो खींचखांच कर कर लेते थे, लेकिन ये जो नैतिक शिक्षा और संस्कार-वंस्कार का ड्रामा था, हमसे झिलता नहीं था। ये तो गनीमत थी कि आठवीं क्लास पार करते ही हमारी संगति कुछ ढंग के लड़कों से हो गई, अगर कहीं और दो तीन साल अपने टीचर्स की तानाशाही झेलनी पड़ती तो तय है कि हम इतने संस्कारी हो जाते कि आज हाईकमान को भी ममता दीदी कहकर बुला रहे होते। लेकिन नहीं, हम समय रहते जग गये। आजकल धन्यवाद प्रस्तावों का सीज़न चल रहा है, चाहिये तो हमें भी यही था कि अपने दोस्तों को धन्यवाद दे देते। पर नहीं देंगे, कल्लो जिसे जो करना है।
तो जी बात कर रहे थे हम ललित कलाओं की तरफ़ हमारे रुझान की, अपने नैतिक शिक्षा वाले गुरूजी के हम तहेदिल से आभारी हैं जिनकी सख्तियों के चलते हमने स्थापित परंपराओं को तोड़ना शुरू किया। अब गीता के श्लोक और रामचरित मानस की चौपाईयां याद करने तक तो ठीक था, लिखवा कर देख लेते, लेकिन नहीं जी, स्टेज पर खड़े करवाकर उसका सस्वर पाठ करवाने के आदेश को मानना हमारे कोमल मन को नहीं भाया। उसपर हमारे नये बने मित्र धनंजय का साथ, स्कूल का इतिहास बदल कर रख दिया हमने। उस शानदार शेर की ऐसी तैसी नहीं फ़ेरनी हमें यहां पर ’अकेला जानिब-ए-मंज़िल, कारवां’ वाले की,’ नहीं तो यहाँ फ़िट बैठता है वो शेर एकदम से।
स्कूल से भागकर पहली फ़िल्म देखी, ’जीत’। टांगेवाले तो नहीं थे लेकिन तभी इरादा कर लिया था कि और कहीं जाय न जायें, प्रेमनगर जरूर जायेंगे। हफ़्ते में एक फ़िल्म पक्की , गीत-संगीत-अभिनय जैसी ललित कलायें हमने स्कूल से भागकर फ़िल्मों से ही पसंद करनी शुरू की थी। और एकाध बार और जरूर निकला करते स्कूल से और दिल्ली भ्रमण किया करते। घुमक्कड़ी का शौक वहीं से पैदा हुआ हमें। राजधानी का भूगोल और इतिहास वहीं से जानना शुरू किया। सभी ऐतिहासिक स्थल उस समय ही देखे। बुद्धा गार्डन, लोधी गार्डन, पुराना किला और सफ़दरजंग का मकबरा जैसे स्थान हमें बहुत प्रिय हो गये थे और ये अनुभव आगे बहुत काम आये।
इतना सब होने के बावजूद गरमियों की छुट्टियों का बहुत इंतज़ार रहता था। स्कूल जाने वाले दिनों में हमेशा झकझोर कर उठाया जाता था हमें और छुट्टियां होते ही हम पौ फ़टने से पहले ही उठ जाया करते। छत पर सोते थे और पैर में रस्सी बांधकर ग्रिल से नीचे लटका देते थे, जैसे जहांगीरी न्याय वाली कहानी में फ़रियादी आते थे और शाही घंटा बजाकर अपनी फ़रियाद पेश करते थे, हमारे मित्रगण नीचे से आकर रस्सी खींचते और हम अपने घरवालों की नींद खराब किये बिना उठकर अपने मिशन पर चल देते। वैसा ही मंजर होता था जैसे वानर-दल किसी अभियान पर निकला हो या लालू पासवान की रैली में कोई जत्था नारे लगाता जा रहा हो, चलो दिल्ली। बस हमारा नारा होता था, चलो पार्क। इत्ते हैल्थ कांशियस थे जी हम सब बचपन से ही।
दूर के रिश्ते में हमारा एक चाचा था ’बिट्टू’ हमउम्र ही था तो हम तो नाम से ही बुलाया करते थे, बस जब कुछ खास बात हो तभी चाचा कहा करते। और संयोग देखिये, एकदम लपूझन्ना वाले लफ़त्तू की फ़ोटोकॉपी। कसम से, कोई वैज्ञानिक अगर इस विषय पर खोज करे कि ’ये ल तो ल बोलने वाले तिस मित्ती ते बने होते हैं’ तो एकाध इनाम तो हमारे शिव भैया दिलवा ही देंगे अपने हलकान विद्रोही से। अलग अलग स्कूल में होने के बावजूद छठी क्लास तक हम कदम से कदम मिला कर चलते रहे। उसके बाद हम तो थे चूंकि चंचल स्वभाव के, कहीं एक जगह ज्यादा टिकते नहीं थे, वो निकला चरित्र का धनी और पौराणिक पात्र अंगद से प्रेरणा लेकर पांव जमा दिया शेर ने छठी क्लास में। हम पहुंच गये दसवीं में, वो सूरमा नहीं हिला अपनी जगह से। पंचवर्षीय योजना भी पूरी कर दी उसने, पर अड़ गया तो अड़ गया। आखिर में स्कूल के प्रिंसीपल साहब ने घर आकर अपनी टोपी उतारकर रहम की भीख मांगी तो उसके घरवालों ने शरणागत का मान रखते हुये हमारे चाचा को स्कूल से बाहर करना मंजूर कर लिया। वैसे बंदा बहुत बढ़िया था, यारों का यार। लोग तो किताबी पढ़ाई किया करते हैं, उसने ’आराम करो आराम करो’ वाली कविता को जीवन में उतारा था। कभी कोई हड़बड़ी नहीं, कोई जल्दी नहीं। सब काम बड़े सुकून से किया करता। अपने साथ खूब जमा करती उसकी।
ऐसी ही गरमी की छुट्टियां चल रही थीं और उसकी मां ने एक दिन मुझे घेर लिया। बहुत प्यार से उन्होंने मुझसे मिन्नत करी कि सुबह पार्क जाते समय उसे भी ले जाया करूं। ऐसा पता नहीं क्या था कि मुझपर भरोसा सब कर लेते थे, उनको भी यही आशा थी कि मैं साथ लेकर जाऊंगा तो उनके लाल की तरफ़ से वो निश्चिंत रह सकेंगी। हमने कौन सा कंधे पर बैठाकर ले जाना था, हां भर दी और वैसे भी नाटते तो हम थे ही नहीं किसी काम को। दे दिया अल्टीमेटम उसे कि सुबह टाईम खराब नहीं करना है और दूसरी से तीसरी आवाज लगानी पड़ी तो खाट ऊपर होगी और वो नीचे। हमारी तो खैर बात मानता ही था चाचा मेरा, धमक गया और हां भर दी। अगले दिन जाते ही उसकी खाट उलट दी। और जबतक वो हड़बड़ा कर खड़ा हो, पहले से ही चढ़ गये उसपर राशनपानी लेकर कि कल ही कह दिया था दो आवाज लगानी है बस, कल से पहली आवाज के बाद ही ये अंजाम होगा। थोड़ा बहुत झूठ कई बार अच्छा रहता है जी, अगले दिन से बिट्टू का बि.. ही मुंह से निकलता था और वो फ़ट से उठ खड़ा होता।
पिक्चर अभी बाकी है दोस्त......
:) फ़त्तू के एक ऐसे परिचित की मौत हो गई थे, जिसके परिवार या मित्रों में से कोई फ़त्तू को नहीं पहचानता था। जब फ़त्तू को उस मौत की जानकारी मिली तो वो भी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिये गया। अर्थी को कंधा देने के लिये फ़त्तू ने भी खुद को प्रस्तुत किया। हम हिन्दुस्तानी तो वैसे भी मुंह माथा देखकर प्रतिक्रिया देने में यकीन रखते हैं, बाकी तीनों जगहों पर अदला बदली चलती रही और फ़त्तू को चूंकि कोई नहीं जानता था वो बेचारा लगातार अपनी ड्यूटी में लगा रहा। देख जरूर रहा था कि उसका कोना कोई रिप्लेस नहीं कर रहा। आखिर सब्र का बांध टूट गया। उसने अपने बढ़ते कदम रोके, हाथ उठाया हवा में और बोला, "डटट जाओ रै सारे," कहकर अर्थी को नीचे रखने लगा। बैलेंस बनाने के लिये बाकियों ने भी अर्थी को नीचे रखा और गुस्से में फ़त्तू से पूछबे लगे, "के बात हो गई रै, ईसा उल्टा काम क्यूंकर कर दिया तन्नै?" फ़त्तू और भी ज्यादा गुस्से में बोल्या, "मेरे साल्यो, मैं थम से पूछूं सूं कि इस छोरी** को मारण वाला मैं सूँ के थारी नजर में, जो सारा वजन मुझ ऐकले पर डालो सो?"
गाना सुनो यारो तुम, हमारी तो देखी जायेगी। अपने को इसमें किशोर कुमार वाला हिस्सा बहुत पसंद है। पसंद अपनी अपनी, ख्याल अपना अपना।
फत्तू गज़ब है ...
जवाब देंहटाएंडैश बोर्ड पर आपकी पोस्ट नजर नहीं आ रही ...क्क्क्यूँ ...?
तनेजा साहब आपने बचपन की याद दिला दी. मेरे भी तीर्थस्थल पुराना किला, उसके साथ लगा वो तालाब जिस पर "हम और हमारे दो" वाला परिवार नियोजन का विज्ञापन बना था (अरे वो दूरदर्शन का विज्ञापन जिसमे एक स्त्री पुरुष पैडल वाली नाव खेते नजर आते थे), हुमायूँ का मकबरा, लोधी गार्डेन, और अपना हरा भरा बोंटा (दिल्ली विश्वविद्यालय से सटा कमला नेहरु पार्क) ही रहे हैं. बस कभी आगे जाकर इनका खुद के लिए उपयोग नहीं कर पाया क्योंकि उपरवाले ने दिमाग ही कुछ अजीब सा बनाया था. पर आपकी पोस्ट पढ़कर वो दिन याद आ गए.
जवाब देंहटाएंमासूम तो खैर आज भी हो..बचपन में तो रहे ही होगे. :)
जवाब देंहटाएंबाकी की पिक्चर भी दिखाये बिना तो छोड़ोगे नहीं दोस्त..सो इन्तजार किये लिए लेते हैं.
फत्तू बेचारा!!!
# बस ये टीचर नहीं होने चाहिये थे स्कूल में।
जवाब देंहटाएं@ लगता है आपने प्रकृति की गोद में बैठकर टीचा [सीखा] है, ........ बालक मन का दर्द सिमटा है इस वाक्य में.
# पढ़ाई-वढ़ाई तो खींचखांच कर कर लेते थे, लेकिन ये जो नैतिक शिक्षा और संस्कार-वंस्कार का ड्रामा था, हमसे झिलता नहीं था।
@ अगर यह शिक्षा और यह ड्रामा केवल कथनों में ही सिमटा दिखे तो बच्चा किसी भी तरह इन्हें स्वीकारने वाला नहीं. ............ बस वह इतना जानता है कि पढाई-लिखाई से तो वह आने वाली परीक्षा पास करेगा, लेकिन नैतिकता और संस्कारों (के ड्रामे) की उसे कोई परीक्षा पास नहीं करनी.
# ’ये ल तो ल बोलने वाले तिस मित्ती ते बने होते हैं’
@ शायद इसे यूँ होना चाहिए "ये त को त बोलने वाले तिस मित्ती ते बने होते हैं." क्योंकि यहाँ 'क' न बोले जाने से प्रोब्लम है.
यहाँ 'क-वर्ग' वाले व्यंजन जिसे बोलने में असुविधा होती है वह उसे 'त-वर्ग' से रिप्लेस कर लेता है. इसका कारण जिह्वा का पूरा न उठ पाना है. ऐसे लोग
'क' को 'त',
'ख' को 'थ'
'ग' को 'द'
'घ' को 'ध' .......... बोलते हैं.
उदाहरण :
१] 'क' का प्रयोग — आप तिस मित्ती ते बने हो. [यहाँ 'ट' भी बोला जाना मुश्किल है, क्योंकि यह भी 'कंठ्य' की भाँति ही 'मूर्धन्य' स्थान वाला है]
२] 'ख' का प्रयोग — आप ज़रा बात थोलकर बताओ.
३] 'ग' का प्रयोग — आप दाली-दलौज वाली भाषा नहीं बोलना.
४] 'घ' का प्रयोग — आप तभी मेरे धर आओ. थाने में त्या-त्या थाओगे. बताओदे नहीं.
# हाँ भर दी और वैसे भी नाटते तो हम थे ही नहीं किसी काम को।
@ मित्र, आज की बात करो, अपने वाक्-कौशल से किन-किन बातों से नाट जाते हो. हम तो वर्तमान से भूत का अंदाजा लगाते हैं.
— फत्तू-प्रकरण ने फिर से कमाल दिखाया.
— सलामे-इश्क गाने में किशोर कुमार की आवाज़ में आपको एक्टिंग करता महसूस कर रहा था.
हाँ तो जनाब मैं बता रहा था की आपका लेख पढ़कर बचपन की याद आ गयी. गर्मी की छुट्टियों में मैं तो पढ़ाई लिखाई से इतना दूर चला जाता था की दुबारा स्कूल जाने पर लिखते कैसे हैं ये भी कभी कभी याद नहीं रहता था.गर्मी की छुट्टियाँ और मदर डेयरी की दूध की लाइन पर सबसे पहले नम्बर लगाने के लिए सुबह ३-४ बजे उठाना और फिर ६ बजे दूध का बूथ खुलने तक बूथ के आस पास की कालोनी में शैतानिय करना उन सब बातों का दुबारा से स्मरण हो आया. तब दो महीने की छुट्टिय वास्तव में दो महीनों की ही होती थी. अब तो बेचारे बच्चे इन तथाकथित पब्लिक स्कूलों की पैसा बटोरने की नई नहीं तरकीबों की वजह से ४० ४५ दिन ही चैन से घर पर बैठ पाते हैं.
जवाब देंहटाएंगर्मियों की छुट्टियों का इंताजर तो हमें बचपन में था ही अब भी होने लगा है कि बच्चो कि छुट्टिया हो और रोज सुबह कि भागम भाग से छुटकारा मिले और हम देर तक सोते रहे पर कोई फायदा नहीं जब छुटिया होती है उस दिन नीद भी छुट्टी पर चली जाती है और आंख अपने समय पर खुल जाती है उसके बाद सोने कि सारी कोशिशे बेकार हो जाती है बचपन में भी यही होता था | आपकी पुरानी यादो ने तो हमारे यादो का पिटारा खोल दिया |
जवाब देंहटाएंफेर इन्ट्रवल आग्या!!!
जवाब देंहटाएंप्रणाम
जब गर्मियों की छुट्टियां फकत दो माह के लिये तो ललित कलाओं से इतनी मुहब्बत और अगर गर्मियां सारे साल में फैल जातीं तो क्या होता :)
जवाब देंहटाएंतब यकीनन फत्तू ललित कलाओं का बोझ अकेला ढोता :)
Ha,ha! Khatiya khadi kar dee! Badmaashi to mai bhi bahut karti thi! Koyi kursi pe baithne lagta to dheere se kursi khiska deti aur baithne wala neeche!
जवाब देंहटाएंक्या बात है जी, एकदम धांसू पोस्ट है। और ये फत्तू तो दिन ब दिन बिगड़ैल होते जा रहा है कम्बख्त मरे हुओं को भी नहीं बख्श रहा :)
जवाब देंहटाएं"वो निकला चरित्र का धनी और पौराणिक पात्र अंगद से प्रेरणा लेकर पांव जमा दिया शेर ने छठी क्लास में"
जवाब देंहटाएंऐसे जीवट मित्रों ने हमें भी बहुत रक्त स्वच्छ करने वाले शब्द पिलवाये हैं अपनी माताओं से...
और सुबह सुबह लोगों को हाँकना..अपना भी ख़ास शगल था. हमारे महारथी मित्र उठते नहीं थे ये अलग बात है.
बाकी बाद में... रिपीट मोड में देखने के बावजूद, पिक्चर बाकी है सर जी...
लेकिन पता है, ये ऋषिकेश मुखर्जी साहब की पिक्चरों जैसी है..लपेटती फँसाती नहीं है...जहाँ रुकती है वहीँ मुस्कुराती है...
और फत्तू साहब पर तो..."No Comments" कुछ कह सकने की हैसियत नहीं अपनी...:) :)
"बुद्धा गार्डन, लोधी गार्डन, पुराना किला और सफ़दरजंग का मकबरा जैसे स्थान हमें बहुत प्रिय हो गये थे और ये अनुभव आगे बहुत काम आये।"
जवाब देंहटाएंगुरूजी , आप तो ऐसे न थे, छुपे रुस्तम निकले :)
ललित कला से हमें भी बडा लगाव था मगर अध्यापिका श्रीमती कलावती को कभी भी हमसे लगाव नहीं रहा लिहाज़ा वे क्लास में घुसते ही हमें क्लास से बाहर कर देती थीं। कला प्रतियोगिता में जहाँ सबने कुत्ते बिल्ली, उगता सूरज आदि बनाये वहीं हमने मानव का पाचन तंत्र बनाया क्योंकि विज्ञान के गुरूजी ने कभी कक्षा से निकाला नहीं था।
जवाब देंहटाएंगर्मियों की छुट्टियों के दौरान:
सुबह की जॉगिंग के प्लान भी हमारे थे ।
मगर बरेली के कुत्तों ने दौडा कर मारे थे।।
पहले भाग में पार्क.........दूसरे में पेट दर्द.........तीसरे में पुलिस............दो इंटरवल है क्या ???
जवाब देंहटाएंबुद्धा गार्डन, लोधी गार्डन, पुराना किला और सफ़दरजंग का मकबरा जैसे स्थान हमें बहुत प्रिय हो गये थे और ये अनुभव आगे बहुत काम आये
जवाब देंहटाएंअच्छा !!
तभी सोचूँ... आपको पहले भी कहीं देखा है....हा हा हा हा ..
आपकी इतनी सारी बदमाशियों के बावजूद भी आपके लिए मुंह से तारीफें हीं निकलती हैं...अब क्या करें हमारा दिल ही ऐसा है.....हा हा हा ..
सुपर्ब ...
वाह छा गये भाई, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
@ वाणी जी:
जवाब देंहटाएंमेरे डैशबोर्ड पर तो आती है जी नज़र।
@ दीप एवं प्रतुल जी:
बंधुओं,
बस आभार व्यक्त कर सकता हूँ। आठ दस महीनों की बात है जी, दिल्ली आने पर आप लोगों से जरूर मिलते रहना है,टाईम खोटी करने के लिये कमर कसे रहना आप लोग।
@ समीर सर:
सरजी, अब तो आपने सर्टीफ़िकेट दे दिया है मासूमियत का, अपनी मार्केट वैल्यू और बढ़ जायेगी। आप उत्साह बढ़ाते रहते हैं,धन्यवाद।
@ अन्शुमाला जी एवं शमां जी:
मुझे तो लगता है कि बचपन का जीवन ही असली जीवन था। आभार आपका।
@ अन्तर सोहिल एवं अर्चना जी:
शुक्र मनाना चाहिये जी हमारा, ओवरडोज़ नहीं होने देते। टुकड़ों में बोर करते हैं कि बंदा बुरा ही न मान जाये कहीं।
@ अली साहब:
बड़े भाई, आज चूक गये आप भी। हमारी ललित कला अकादमी दस महीने चलती थी जिन दिनों में स्कूल खुले होते थे। बाकी दो महीने तो हमें मरने की भी फ़ुर्सत नहीं होती थी जी।
@ सतीश पंचम जी:
भाई जी, सच में बेशऊर है ये फ़त्तू। देख लो आपकी पिछली पोस्ट पर कमेंट तक नहीं करने दिया। आभार आपका।
@ अविनाश:
कविवर, मिलाओ हाथ। कम से कम बचपन की कुछ बातें मिलती हैं अपनी। थैक्यू, अविनाश। तुम जैसे शब्दों के जादूगर से तारीफ़ सुनकर अजीब हाल हो जाता है। छोटे भाई, खूब तरक्की करो।
@ गोदियाल जी:
रांग नंबर लग गया दीखे है जी, किसी गुरूजी को कमेंट किया है आपने और पोस्ट यहाँ हो गया है। शर्मिन्दा मत किया करें, गोदियाल जी, प्लीज़।
@ अनुराग सर:
वड्डे उस्तादजी,
हमारी तरह हाथ में संटी लेकर जाते,
फ़िर भला कहां से कुत्ते नजर भी आते।
@ अदा जी:
हे भगवान, तो क्या आप भी.?
@अब क्या करें हमारा दिल ही ऐसा है.....हा हा हा ..सुपर्ब ...
ऐसे हम और ऐसे ही हमारे सगे, हमारा स्वभाव भुरभुरा सा और जिनके हम प्रशंसक बने, उनका दिल सुपर्ब। लो जी, और ज्यादा आभारी हो जाते हैं आपके, हां नहीं तो....।
@ ताऊ जी:
आभारी हूँ ताऊजी,
राम राम।
सूप पिला कर भूख बढ़ा गये, अब प्रतीक्षा?
जवाब देंहटाएंहम तो ऐसे खोए (खोए की मिठाई वाले नहीं लॉस्ट इन योर पोस्ट वाले) कि भूल गए टिप्पणी देना. खै सुबह पढने के बाद भूले थे अभी याद आया तो भूला थोड़े ही न कहाएगा... एकदम जबर्दस्त पोस्ट है... मगर जिन जगहों का ज़िक्र है और जिस समय का वर्णनह्है उसको देखकर तो मुझे लगता है कि समीर बाबू अपना स्र्टिफिकेट खारिज कर देंगे.. चलिए, अब तो भेद आगे ही खुलेगा!! तब तक हम भी इंतज़ार करते हैं... फत्तू का स्वाल बड़ा जेनुइन है... जा तन लागे सो तन जाने!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ संजय जी ..
जवाब देंहटाएंआप भी का माने ?
ऊ तो मेरा बचवन लोग कह रहा था ...ई अंकल कुछ जाने पहचाने लग रहे हैं....
हाँ नहीं तो...!
देर से आया लेकिन संतोष है कि एक लाजवाब पोस्ट को पढ़ने से वंचित नहीं हुआ.. पिछली पोस्ट पर समय नराधम ने नहीं आने दिया.. लेकिन सब एक साथ पढूंगा किसी दिन लम्बी छुट्टी में.. याद करने और स्नेह के लिए क्या कहूं?? शुक्रिया तो कहूँगा नहीं.. :)
जवाब देंहटाएंमैं भी पहले पहरे से एकदम सहमत हूं. गर्मियों की छुट्टियों में जून की भरी दोपहरियों में छत पर नंगे पांव पतंग उड़ाते थे हम, एक पैर के बल खड़े होकर (दूसरा पैर बारी बारी से नीचे रखने में तब काम आता था जब पहला पैर जलने की पराकाष्ठा पार करने लगता था). नंगे पैर छत से आवाज़ नीचे नहीं जाती थी, जहां मां वर्ना चिल्लाने को हमेशा तैयार बैठी मिलती थी :) आज AC-AC करते नहीं अघाते, गिरगिट हैं शायद हम लोग.
जवाब देंहटाएं@ प्रवीण पाण्डेय जी:
जवाब देंहटाएंइस प्रतीक्षा का फ़ल शायद इतना मीठा न लगे, झेल लीजियेगा सर:)
@ सम्वेदना के स्वर:
हमें तो आशा है जी कि और बड़ा सट्टीफ़िकेट मिलेगा, काजल की कोठरी से बेदाग निकलने का। हम बहुत आशावादी हैं जी।
@ अदा जी:
बिगड़ती काहे हैं जी? हम तो ई कह रहे थे कि आप भी हमारी बात पर यकीन कर लेती हैं क्या? बुरा लगा तो जी माफ़ी मांग लेते हैं, हम कोई छोटे नहीं हो जायेंगे आपके आगे अपनी गलती मानने से। वैसे भी मंगते बहुत इस्टाईलिश हैं हम।
@ दीपक:
शुक्रिया कहना भी नहीं दोस्त, हमारे भाव तुम तक पहुंचे, बहुत हैं।
@ काजल कुमार जी:
भाई साहब, आपसे इतने शब्दों की टिप्पणी पा लेना ही बहुत बड़ा ईनाम है। धन्यवाद आपका।
:)
जवाब देंहटाएंमतलब श्रीमान जी बचपन से ही ऐसे ही थे..... :-)
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा दिए गए लिंक के माध्यम से एक नहीं अनेक गीत सुने.आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंsunder rachanaa...
जवाब देंहटाएंbadhaayi.......
जवाब देंहटाएंफत्तू से मिलना है
जवाब देंहटाएं