एक होता है ग्रह और एक होता है पूर्वाग्रह। होने को तो एक दूसरा गॄह भी होता है और उपग्रह भी होते हैं, और भी इस टाईप के शब्द होते होंगे लेकिन आज का बिना राशन का हमारा भाषण पूर्वाग्रह पर केन्द्रित है। बचपन से ही देख रहा हूँ कि लोग पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं, अब तो ऐसा लगता है कि यदि कोई इससे बचा हुआ है तो हमें शक ही होने लगता है कि वो इंसान भी है कि नहीं? तो जी, बचपन से जो प्रचलित पूर्वाग्रह महसूस किये, उनमें लोगों का बड़ों के आगे झुकने और अपने से छोटों को लतियाने का पूर्वाग्रह सबसे टॉप पर दिखा। अब टॉप से मतलब चिट्ठाजगत के टॉप से भी न लेना और स्कर्ट के साथ पहने जाने वाले टॉप से भी नहीं। अब हम भी जब इसी दुनिया में रहते हैं, यहीं सांस लेते हैं तो हम इस मायाजाल से कैसे बच सकते थे? हमने भी सोचा कि चलो हम भी हो लेते हैं ग्रस्त इस से। हो गये जी। जब इत्ते वड्डे वड्डे बंदे अपील करते हैं तो हमने भी सोच लिया कि हम भी अपनी आत्मा फ़ात्मा की आवाज़ को दबा देंगे।
जितने भी प्रेरणा देने वाले महापुरुष या स्त्रियां हुईं हों, सभी ने जोर दिया इस बात पर कि ’थिंक बिग’। किंग खान बेचारा पीठ दर्द से परेशान होते हुये भी लोगों को ’डोंट बी संतुष्ट’ का उपदेश देता रहा, चेहरे पर दर्द देखिये कभी उस समय। ये कम त्याग की बात नहीं है जी। हे भगवान, हम तो चालीस साल तक अपराध ही करते रहे। लगा कि गलत थे हम जो ’स्माल इज़ बिग’ का फ़ार्मूला पकड़े बैठे थे और जकड़े बैठे थे। मानव जीवन पता नहीं कितनी योनियों के बाद मिला है, और हमने अपना बचपन, अपनी जवानी मिट्टी कर दी इस संतुष्ट रहने की आदत से।
बड़े बनने के चक्कर में हमने अपनी सुकून वाली जिन्दगी में जैसे आग लगा दी, खुद अपने ही हाथों। जब छोटे थे तो ये सोचते थे कि यार किसी का दिल न दुख जाये कहीं अपने किसी काम से, अब कोई भी काम करने लगें तो पहले दिमाग में आता है कि इस काम में मेरा फ़ायदा कैसे होगा और क्या होगा? पहले सोचते थे कि जो भी होगा, साथी लोगों के साथ मिलजुलकर बाँट लेंगे और अब सोचते हैं कि अपना घर भरना चाहिये और बाकी जायें भाड़ में। पहले लगता था कि दूसरे की इज्जत अपनी इज्जत से बढ़कर है और अब कोशिश रहती है कि दूसरे की बेइज्जती कर सकें तभी अपनी इज्जत में चार चाँद लगेंगे। ये इस दुनिया के दस्तूर अपने से नहीं निभाये जाते जी। रह रहकर ’तीसरी कसम’ के हीरामन की याद भी आती है और ’जब जब फ़ूल खिले’ के राजा शिकारे वाले की भी। यहाँ बड़ों की दुनिया के ऐसे ऐसे दस्तूर पता चलते हैं कि एक दूसरे के नाम के कुत्ते तक पाले जाते हैं। ताव ताव में मैंने भी अपने एक दोस्त को कह दिया कि अगर ऐसा न हो तो मेरे नाम का कुत्ता पाल लियो, मुँह पर तो उसने कुछ नहीं कहा कि लेकिन मन में तो हँसा ही होगा कि खुद को क्या समझ रहा हूँ। मन से तो मैं चाहता रहा कि ऐसा न हो और इस शर्त में मैं हार जाऊँ। सोच रहा हूँ कि भौं-भौं हिन्दी में ठीक रहेगी या पंजाबी में?
आज की बातें ज्यादा बहकी-बहकी लगें तो जी हमारा कसूर कम और हालात का ज्यादा मानना। मुझे भी अभी ही समझ आई है कहानी। आज सुबह से ही मन जाने कैसा कैसा हो रहा था, सारा दिन ऑफ़िस में भी एकदम बुझा बुझा सा रहा। जबकि आज का दिन तो बहुत खास दिन था, यूँ भी त्यौहार का दिन और दिल की ऐसी कैफ़ियत? लेकिन जैसी नीयत होती है वैसी ही नियति होती है। आज ऑफ़िस में ही सात बज गये और फ़िर भी काम बीच में ही छोड़कर आना पड़ा। दोपहर दो बजे तक कनैक्टिविटी न रहने के कारण बिल्कुल खाली बैठना पड़ा और उस के बाद जो काम करना शुरू किया तो इस कामी की भी बस हो गई।
लौटते समय रास्ते में एक ही सीन दो अलग अलग जगह देखा, सड़क के बीच में हाथापाई करते और लड़ते-भिड़ते दो गुट। रास्ता जाम हो रहा है तो हो, पर बड़ा कौन की जिद में सड़क पर तमाशा करते बड़े लोग। दिमाग में सचमुच बहुत कन्फ़यूज़न होने लगे थे। क्या यारों, त्यौहार के दिन भी। रास्ता तो जाम था ही, बाईक साईड में लगाकर आराम से देखने लगा इधर उधर। दिल जैसे डूबा जा रहा था। फ़िर बचपन में पढ़ा रक्षा-बंधन का निबंध याद आया, श्रावण पूर्णिमा…..। अनायास ही ध्यान ऊपर आसमान की ओर चला गया, पूनम का चाँद। और याद आने लगी अपनी ही एक बेमतलब सी पोस्ट। और याद आने लगा कि बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि पूरे चांद का अपराधियों, आध्यात्मिक और मानसिक रूप से संवेदनशील लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। घर आकर खाये छप्पन भोग और नेट खंगाला। कई स्टडीज़ पर नज़र पड़ी। एक पोस्ट के अनुसार प्रत्यक्ष असर देखना हो तो कुछ घंटों तक चांद को निहारें, असर खुद ही दिखने लगेगा।
तो जी खटौला बिछाया हमने बाहर और एकटक निहारा किये चमकते चांद को बहुत देर तक। सच में अजब मंजर दिखा - कभी चमकता चांद तो कभी टूटा तारा, आलाप भरते गुलाम अली, आगाज़ और अंज़ाम की बातें, आबादी और बर्बादी की सूरतें….। बच्चे भी अजीब नजरों से देख रहे थे, हा हा हा। सुला दिया है बच्चों को प्यार से समझाकर। अब कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा रात भर। और लगा अच्छा ही हुआ कि तीन दिन पहले भीगकर मोबाईल भी खराब हो गया, अपनी मर्जी से कभी नंबर या नाम दिखा देता है कभी नहीं। रख दिया है इसे भी परमानैंट साईलेंस मोड पर। लगता है इसके सिम पर भी चांद की कलाओं का असर पड़ता है, बढ़िया है, कितने सामान कर लिये थे पैदा। अपन तो ठीक नहीं करवाने वाले इसे, जब नहीं था तब भी तो चल ही रही थी जिन्दगी, नहीं रहेगा तब भी चलेगी। निर्भरता कम कर लेनी है जी अब तकनीकी चीजों पर। अपन पहले जैसे छोटे ही भले और भला अपना शिकारा।
तो जी, लब्बो लुआब ये है कि सच में चांद का मन पर बहुत असर पड़ता है, खासतौर पर अपने जैसे हिलेले, सरकेले लोगों पर। चाँद अलबत्ता वैसा ही निर्दोष और निष्कलुष है, और यही उसका थोड़ा सा दोष है, अगर है तो। ज्यादा दोषी है तो अपना मन। अगर चाँद भी कभी कभी सूरज की तरह तेज दिखा पाता तो होती क्या अपनी हिम्मत इतनी बात कहने की, सुनाने की? तो बड़े लोगों, तुम्हारी बड़ी-बड़ी बातें तुम्हें मुबारक, अपन अपनी फ़ाकामस्ती में मस्त हैं। जब तक मन चाहेगा, जैसा मन चाहेगा, लिखेंगे। बस ये चाँद चमकता दमकता दिखता रहे, बहुत है अपने लिये। महीने में एक बार ही सही, निहारेंगे जरूर। सिम तो अपनी भी सेंसिटिव ही है।
आज तक तो सीरियसली नहीं सोचा था, लेकिन आज रिटायरमेंट के बाद की लाईफ़ के बारे में कुछ प्लानिंग कर ली है। कोई सीनियर सिटीजन टाऊनशिप या हाऊसिंग सोसायटी नहीं, तलाश शुरू करते हैं किसी human behaviour institute(हिंदी में बोले तो मंटो के टोबा टेक सिंह) की, जहाँ रहने खाने की सुविधा हो, एडवांस बुकिंग करने पर कोई छूट वगैरह हो तो बेहतर है नहीं तो देखी जायेगी। आपको ऐसे किसी संस्थान की जानकारी हो तो कृपया बताईयेगा जरूर, बतायेंगे न?
:) फ़त्तू सबको एक आंख से ही देखता था सो उसके ब्याह में अड़चन आ रही थी। एक जगह जुगाड़ भिड़ाकर फ़ेरों के समय लाईट गायब करवा दी ताकि कोई उसकी कमी न पकड़ ले। पंडित जी ने फ़ेरों के लिये आवाज लगाई कि कन्या को भेजा जाये। उधर से जवाब आया कि कन्या तो सो गई है। तुरंत ही उपाय निकाला गया कि उसके मामा उसे उठाये उठाये फ़ेरे लगवा देंगे और ऐसा ही किया गया। फ़ेरे पूरे होते ही फ़त्तू के पक्ष से औरतों ने मंगल गीत गाने शुरू किये, “ब्याह लियो रै म्हारो काणियो”
कन्या पक्ष से फ़ौरब जवाब आया, “म्हारी चाल पड़े जब जाणियो।”
इब दोनूं मिलकर ’मेरी दोस्ती मेरा प्यार’ गावैं सैं।(with 50% ph)
सबक: फ़त्तू जैसों के भी फ़ूफ़ा इस दुनिया में हैं।
गाना सुनो-देखो जी हमारी पसंद का और chill मारो, हमारी देखी जायेगी।
गाना सुनो-देखो जी हमारी पसंद का और chill मारो, हमारी देखी जायेगी।
चाल पड़े जब जाणियो।
जवाब देंहटाएंसेर को सवा सेर?
फिर जबरदस्त.. फत्तूबाज़ी भी मस्त.. बस आज चाल उलटी पड़ गई.. :) शुभ राखी//
जवाब देंहटाएंरक्षा बंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!!!
जवाब देंहटाएं".....पहले लगता था कि दूसरे की इज्जत अपनी इज्जत से बढ़कर है और अब कोशिश रहती है कि दूसरे की बेइज्जती कर सकें तभी अपनी इज्जत में चार चाँद लगेंगे।"
Sahee likha hai aap ne.
Sahee me aap sam aur koee ho hee kaise sakta hai ?
जवाब देंहटाएंFattu kee chal ulti pad gaee is bar.
Shubh Rakhee.
कोई और चाहे ना चाहे पर अपनी दुआयें कि आप चांद बने रहे ! कम से कम कुछ अदद सिम और सरक जायेंगे इस उम्मीद पर जा टिके हैं !
जवाब देंहटाएंरक्षाबंधन की शुभकामनायें !
ये चाँद भी ना ...!
जवाब देंहटाएंहा हा! बहुत गज़ब! ये फत्तु का क्या कहें.
जवाब देंहटाएं@ Smart Indian ji:
जवाब देंहटाएंहोता है सरजी, कल्ला सवा सेर नहीं ढाई सेर भी मिल जाते हैं, कभी कभी।
@ दीपक:
कोई बात नहीं प्यारे, देखी जायेगी। वैसे भी जो लास्ट में लाफ़्ता है वही बैस्ट लाफ़्ता है न?
शुभ राखी, दोस्त।
@ डॉ. हरदीप संधु जी:
ਸਤ ਸ਼੍ਰੀ ਅਕਾਲੁ,ਡਾਕ੍ਟਰ ਸਾਹਿਬਾ,
ਆਪ ਜੀ ਦਾ ਬ੍ਲਗ ਬਹੁਤਾ ਚਂਗਾ ਹੈ|
ਕਮੇਂਟ ਕਰਨ ਲਈ ਸ਼ੁਕਰ੍ਗੁਜ਼ਾਰ ਹਾਂ ਤ੍ਵਾਡਾ|
@ Mrs. Asha Joglekar ji:
thank a lot, madam.
@ अली साहब:
यारों के तो पत्थर भी फ़ूल लगते हैं मुझे(मैं कोई सरमद तो नहीं जो यारों के फ़ूल को पत्थर मान लूं), फ़िर आप तो दुआ दे रहे हैं, धन्यवाद।
आज आपकी पोस्ट मुझे बहुत अलग लगी है...
जवाब देंहटाएंलेकिन कलम की गति...हमेशा की तरह..लाजवाब...
गाना तो आपने बहुत ही पसंदीदा लगाया है...
आपका शुक्रिया..
कहां से ढुंढ लाते है इतने अच्छे गानें भईया जवाब नहीं आपका, जय हो फत्तु की ।
जवाब देंहटाएंमेरा आपसे आ-ग्रह है कि आप अपनी सभी पोस्टों का सं-ग्रह करके मुझे प्रेषित करें. मेरे विचारों का वि-ग्रह (बिखराव) आपकी भाँति संग्रहित नहीं हो पाता सो आपके ब्लॉग-ग्रह के चक्कर काट-काट कर उप-ग्रह बनकर खुश हो लेता है.
जवाब देंहटाएंआज मिला फत्तू का फूफा
जवाब देंहटाएंहा-हा-हा
प्रणाम स्वीकार करें
वाह फत्तू वाह।
जवाब देंहटाएंबहुत मज़ा आया! इस पोस्ट मे.
जवाब देंहटाएंफत्तू की गाड़ी कैसी चल रही है, बताते रहियेगा!
"निर्भरता कम कर लेनी है जी अब तकनीकी चीजों पर।"
जवाब देंहटाएंलिखा तो जो है सो है ही, उस पर हर बार एक ही कमेन्ट रहने वाला है :)
लेकिन आपने खुद के लिए कहा, ये वाकई बहुत अच्छा लगा....वरना सन्देश देने में हम लोग फिर से वही "बड़े" आदमी बन जाते हैं.
और फत्तू साहब के लिए तो ''हाई फाइव" है :)
चाँद का असर तो लग रहा है कि आप पर हो गया है | फत्तू को तो सवा शेरनी मिल गई जी |
जवाब देंहटाएं"पता है चांद का मेरे लिये जमीन पर उतरना असंभव है, अपन तो इस लिये जोर जोर से भौंक रहे थे कि कहीं ये चांद किसी और के लिये नीचे न उतर आये।"
जवाब देंहटाएंइसी टीस ने तो ज्यादातर हिन्दुस्तानी *** विरादरी
के दिलों पर राज कर रखा है ! :)
@ वाणी गीत जी:
जवाब देंहटाएंवाणी जी, आप भी ना...। लिखा तो है कि चांद का कोई कसूर नहीं है।
@ समीर साहब:
धन्यवाद सर पधारने का। फ़त्तू को तो कुछ भी कह दो जी, की फ़र्क पैंदा है..।
@ अदा जी:
अदा जी, कलम तो वही Reynolds की ही है जी। कन्फ़्यूज़ मत होईयेगा। गाना पसंदीदा है, शुक्रिया आपका।
@ मिथिलेश दुबे:
वहीं तुम-नलिका से लाते हैं छोटे भाई, और तुम्हारी भी जय-जय।
@ प्रतुल जी:
कविवर, अपरि-ग्रह का सिद्धांत भी कुछ होता है, और यदि इसमें विश्वास न हो तो अधि-ग्रह-ण कर लो फ़त्तू का।
@ अन्तर सोहिल:
जवाब देंहटाएंप्रिय अमित, यार ये प्रणाम कुछ ज्यादा ही भारी लगता है, रामराम ठीक है।
@ नीरज:
फ़त्तू तो तुम्हारा फ़ैन है नीरज प्यारे।
@ सम्वेदना के स्वर:
बहुत आभारी हूँ जी आपका, नहीं तो बहुत बार तो मुर्गा जान से जाता है और मजा भी नहीं आता, वसूल हो गया सर, हा हा हा।
फ़त्तू पर रेगुलर अपडेट मिलते रहेंगे जी., निश्चिंत रहिये।
@ अविनाश:
शुक्रिया अविनाश, याद रखना कल को मैं सबको बताऊंगा कि ये अविनाश कभी मुझे तारीफ़ के कमेंट करते थे।
@ anshumala ji:
सही पकड़ा जी आपने, उस लिंक वाली पोस्ट में भी तो यही बताया गया है कि अस्थिर दिमाग वालों पर चांद का ज्यादा असर पड़ता है, असर तो हुआ है जी।
आज त हमको भी गाँव का लकड़ी वाला सीढी याद आ गया... जिसमें ऊपर चढने के लिए नीचे वाला पायदान को गोड़ से दबाना पड़ता है अऊर ऊपर वाले को हाथ से पकड़ना पड़ता है...बस एही है दुनिया का दस्तूर, ऊपर वाले के पिक का उगालदान बनकर, नीचे वाले के मुँहम्में थूकते चलो...मजा आगया पढने के बाद..
जवाब देंहटाएंरहा बात जगह मिलने का आफ्टर रिटायरमेंट, ऊ भी टोबा टेकसिंह जईसा..तनी डौट्फुल बुझाता है.. ऐसा जगह मिलता त न मंटो को अदालत का चक्कर काटना पड़ता. न टोबाटेक सिंह को पागल जईसा जान देना पड़ता..
फत्तु का फूफा … हिलाकर रख दिया...अऊर गाना बेजोड़..
वाह प्यारे फ़त्तू...शेर को भी सवा शेर मिल ही ज्यावैं सैं.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
काले आखर पड़ते पड़ते जब लाल पडन लेट तो जिब मुंह से लिक्ला .........वाह जी वाह ... फत्तू फंस गया.........
जवाब देंहटाएं@ गोदियाल जी:
जवाब देंहटाएं:)
@ सलिल जी:
एकदम सटीक तुलना की है आपने। मैं स्पष्ट नहीं कर पाता हूँ, आपने धार दे दे है मेरी भावनाओं को।
बेहद आभारी।
@ ताऊ:
ताऊ, सबकै बाबू सैं इस जगत में, गलत तो नहीं कह गया मैं?
राम राम।
@ दीपक जी:
फ़त्तू के फ़ंसण पर घणै राजी हो जी? कोई न, फ़त्तू लिकड़ जायेगा।
शन्यवाद सर।
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
Very interesting post. Beautifully written.
जवाब देंहटाएंछोटे छोटे अवलोकनों की गहन व्याख्या।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह रोचक तरीके से अपने बता दिया की कोई ना छोटा होता है और ना बड़ा बस वक्त वक्त की बात होती है. हर शेर को सवा शेर मिल ही जाता है बिलकुल आपने फत्तू की तरह. बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएं@ शिवम मिश्रा जी:
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी, नजरें इनायत करते हैं आप।
@ दिव्या जी:
शुक्रिया डॉ. दिव्या।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
हम तो सर मध्यमवर्गीय लोगों की मध्यमवर्गीय बातें ही कहते हैं।
@ दीप:
तुम्हारा इंतज़ार था बन्धु, धन्यवाद।
अरे क्या बात है सर.......... कोई नाराज़गी है क्या? फ़ोन ही नहीं उठा रहे हैं....
जवाब देंहटाएं@ महफ़ूज़ अली:
जवाब देंहटाएंअरे महफ़ूज़ भाई, इतनी मज़ाल?
लिखा तो यार ऊपर कि बारिश में भीगकर नखरे दिखा रहा था फ़ोन, अपने को मौका मिल गया निर्भरता कम करने का।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंऊँचाई पर सहज उड़ता राजहंस। न गति में लोचा न मति में। बस लोच ही लोच। धन्य हुए भाई!
जवाब देंहटाएंपिछली वाली में शब्दों का लोचा हो गया और फिर लोचा और लोच का अंतर दिख गया, सो दुबारा। पुरानी वाली मिटा रहा हूँ।