कुछ दिन पहले हमारे आदरणीय अनुराग शर्मा जी ने किसी पोस्ट पर या कमेंट में एक बात उठाई थी कि किसी लेखक को अपने आसपास के परिवेश से किसी पात्र को अपने लेखन में शामिल करना चाहिये या नहीं? हमें तो जी पुरानी आदत है ही हर बात में टांग फ़ंसा देते हैं। सोचने लगे बड़ी गंभीरता से, कर लेते हैं कभी कभी ये दिमाग वाला काम भी। तभी तो ऐसे हो गये हैं, न तो अपना भी माईंड बैलेंस इंटैक्ट होता अब तक। जब हमेशा की तरह किसी फ़ैसले पर नहीं पहुंचे, तो फ़िर अपना वही सिक्का निकाला और उछाल दिया, जिसके दोनों तरफ़ लिखा है, देखी जायेगी।
अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं। ऊपर वाले के फ़ज़ल से काम-धंधे से भी लगे हैं, दीन-दुनिया के टंटों-झमेलों में भी उलझे रहते हैं, कौम के गम में अपने शरीर का जुगराफ़िया भी खराब नहीं करते। दाढ़ी भी बढ़ी हुई नहीं, खद्दर का कुर्ता भी एक था और वो फ़ेंक चुके बहुत पहले ही और सबसे बड़ी बात कि हमारी बात औरों को समझ में भी आ जाती है। कहने का मतलब ये है जी कि हमने क्लीनचिट दे दी खुद को ही कि हमारे वड्डे उस्ताद जी ने जो कहा था उसका लेखकों से लेना देना है, अपन उस परिक्षेत्र से बाहर आते हैं। और फ़िर अपने आसपास के लोगों को पिक्चर से हटा दें तो हम लिखेंगे क्या? क्या होगा हमारे हिन्दी सेवा के व्रत का? ये कल्पना वगैरह वैसे भी हमें घास नहीं डालती, बिना देखे समझे लोगों पर हम कुछ लिख दें? हमारी खोपड़ी इतनी उर्वर होती तो ये बाल ही न बचे रहते इस पर? ये भी साथ छोड़ गये हैं धीरे धीरे। वैसे भी हमने किसी से वादा किया था कि उस पर कुछ लिखेंगे जरूर। अत: बड़ों से छूट देने का आग्रह करते हुये आज आपसे परिचय करवाते हैं एक ऐसे पात्र का जिसपर पूरी किताब लिखी जा सकती है, माई फ़्रैंड ’भोला’।
वो हमारा सबोर्डिनेट स्टाफ़ था, निपट अकेला। नाम तो कागजों में कुछ और था लेकिन अपन उसे भोला कहते थे और वो बुलाता मुझे ’संजय बाऊ।’ माँ-बाप स्वर्ग सिधार चुके थे, भाई बहन कोई थे नहीं, बीवी के साथ मुकदमा चल रहा था। अब चूँकि हमारे समाज में चलन है जिसकी गाड़ी उलट जाये, वो बेवकूफ़ कहलाता है, भले ही वो कितना ही समझदार क्यों न रहा हो। उसकी गाड़ी उलट चुकी थी और अपनी अभी तक नहीं उलटी थी तो कभी कभी हम उसको भाषण पिलाया करते। एक बार उसे गृहस्थ जीवन के बारे में कुछ टिप्स देने की कोशिश करी तो बड़े ध्यान से सुनता रहा लैक्चर। अपने को भी बहुत दिनों के बाद मिला था कोई झेलक, तो पूरे मनोयोग से लगे हुये थे ज्ञान बाँटने पर। तकरीबन डेढ घंटे का लैक्चर दे दिया तो सोचा कि कुछ आगे के लिये भी बचा लिया जाये। खोल दिया कुर्सी से उसे, तो आप क्या समझे थे कि वो स्वेच्छा से सुन रहा था? इत्ते भले लोग आजकल कहाँ रह रहे हैं जी। सौ रुपये उधार मांगे थे उसने, हमने शर्त रख दी कि थोड़ा सा लैक्चर झेलना पड़ेगा। बंदा हमारा भी उस्ताद था, मान गया लेकिन एक शर्त पर कि पैसे एडवांस में लेगा और भाषण सुनने के लिये उसे कुर्सी पर बाँधना पड़ेगा, सौ रुपये का रिस्क नहीं ले सकता वो। देख लो जी ऐसे ऐसे कदरदान रहे हैं हमारे। बँधकर बैठना मंजूर. लेकिन भाषण पूरा सुनेंगे। और मजे की बात, ऑफ़िस के दूसरे लोग भी हँस हँस कर इस ’rendezvous with Simi Grewal’ के देसी संस्करण को,जो चल रहा था शनिवार को ऑफ़िस समय के बाद और गाड़ी आने के पहले, पूरा एंजॉय कर रहे थे। तो जी, जब ये सब खत्म हुआ तो एक तमाशबीन स्टाफ़ ने आवाज लगाई, “हाँ भाई, हो गया सब? क्या समझा?” भोले ने खड़े होते हुये अँगड़ाई ली, अकड़े शरीर को ठीक करता हुआ बोला, “गीत गाया पत्थरों ने।” तेरी तो…। यही किसी बाबाजी के यहाँ जाते तो लोग माथा भी टेकते, चढ़ावा भी चढ़ाते और हम फ़्री में सुना रहे हैं तो हमें ही पत्थर बताते हैं लोग।
वैसे ये हमारे भोले का इज्जत करने का स्टाईल था। इज्जत बहुत करता था मेरी। कभी किसी झंझट में फ़ंसता और मदद की गुहार पर मैं अपनी समझ से उसे कोई रास्ता बताता तो सुनकर कहता था, “बाऊ, हरिद्वार जाने का रास्ता सब बता देते हैं, किराया कोई नहीं देता।” मतलब ये कि किराया दे दो रास्ता बेशक मत बताओ। या फ़िर कभी अपने से खफ़ा हो जाता(ये खफ़ागिरी सिर्फ़ तभी होती जब मैं उसे उधार देने से मना कर देता) तो गाकर कहता कि, “तेरे सामने बैठ के रोना ते दिल दा दुखड़ा नहीं बोलना।“ मैं कहता यार ये क्या बात हुई, रोयेगा भी और बतायेगा भी नहीं और फ़िर मेरे क्या फ़र्क पड़ेगा तेरे रोने से। वो कहता, “कभी आई न ऐसी नौबत तो फ़िर बताइयो फ़र्क पड़ता है कि नहीं।” मैं हँस देता।
मुझे उस ब्रांच से ट्रांसफ़र हुये दो साल से ज्यादा हो गये हैं, उसके फ़ोन आते रहते हैं मेरे पास, अब बात तमीज से करता है थोड़ी “कब वापिस आओगे?” दूरी शायद और चीजों के साथ तहजीब भी सिखा देती है। अभी कल फ़ोन आया तो मैंने पूछा, “घरवाली के साथ कुछ समझौता हुआ क्या?” हँसने लगा और बोला, “कश्मीर की समस्या तो हो सकती है हल हो जाये, मेरी समस्या जगमोहन सिंह भी नहीं हल कर सकता।” उसे क्या पता कि उसका जगमोहन सिंह बेचारा कामनवैल्थ और विकास दर में ही इतना उलझा है कि फ़ुर्सत नहीं है उसके पास। इससे काम करवाना होता था तो मेरे बड़े अधिकारी, जिनके साथ पूरे सम्मान के रिश्ते के बावजूद अपनी अनवरत कशमकश चलती रही, उसे कोई काम न कहकर मुझे बुलाकर उससे काम करवाने के लिये कहा करते। और मेरे वजह पूछने पर कहते थे कि ऐसा जटिल चरित्र, जब तुम्हारा कहना मान ही लेता है तो तुम्हीं करवाओ इससे यह काम। और मेरा मान रखता वो। बदले में क्या लेता था, सिर्फ़ आश्वासन कि वो अकेला नहीं है किसी मुसीबत में।
दो बार मेरे साथ हरिद्वार जाकर आया वो, बहुत मजेदार एक्स्पीरियंस रहे। उस समय मालूम होता कि कभी ब्लॉग लिखेंगे तो फ़ोटो शोटो लगाकर दो तीन पोस्ट लिखता उस अनूठे अनुभव पर। अब भी लिखूंगा और इस बहाने याद करूंगा अपने दोस्त को। पढ़ोगे न बन्धुओ?
:) फ़त्तू अपनी रिश्तेदारी में कहीं गया। उसे देखते ही मेजबान दंपत्ति के होश उड़ गये, यो तो टिक्कड़ ही घणै पाड़ै सै। दूसरे कमरे में जाकर उन्होंने सलाह की और मर्द ने झूठमूठ ही पीटने की और औरत ने जोर जोर से रोने की एक्टिंग शुरू की। आधे घंटे तक ड्रामा करके वो बैठक में आये तो देखा बैठक खाली। बहुत खुश हुये दोनों और अपनी समझदारी जताने लगे।
पति बोला - “मन्नै के सच में मारया तेरे एक भी? अपने हाथ पे ही दूसरा हाथ मारता रया।”
पत्नी बोली - “और मैं के सच में रोऊँ थी?, न्यूँए किल्की मारूँ थीं।”
पलंग के नीचे से फ़त्तू बोल्या, “और बावलो, मैं के सच में गया? आड़े ई सूँ। पकाओ रोटी, भूख लाग री सै।”
वैसे ये हमारे भोले का इज्जत करने का स्टाईल था। इज्जत बहुत करता था मेरी। कभी किसी झंझट में फ़ंसता और मदद की गुहार पर मैं अपनी समझ से उसे कोई रास्ता बताता तो सुनकर कहता था, “बाऊ, हरिद्वार जाने का रास्ता सब बता देते हैं, किराया कोई नहीं देता।” मतलब ये कि किराया दे दो रास्ता बेशक मत बताओ। या फ़िर कभी अपने से खफ़ा हो जाता(ये खफ़ागिरी सिर्फ़ तभी होती जब मैं उसे उधार देने से मना कर देता) तो गाकर कहता कि, “तेरे सामने बैठ के रोना ते दिल दा दुखड़ा नहीं बोलना।“ मैं कहता यार ये क्या बात हुई, रोयेगा भी और बतायेगा भी नहीं और फ़िर मेरे क्या फ़र्क पड़ेगा तेरे रोने से। वो कहता, “कभी आई न ऐसी नौबत तो फ़िर बताइयो फ़र्क पड़ता है कि नहीं।” मैं हँस देता।
जवाब देंहटाएंMaza aa gaya padhte,padhte!
अपने आसपास के लोगों को पिक्चर से हटा दें तो हम लिखेंगे क्या? क्या होगा हमारे हिन्दी सेवा के व्रत का? हा हा!!
जवाब देंहटाएंहरिद्वार का किराया देने की बात सौ टका सच है भई..और जहाँ तक हरिद्वारा की यात्रा वृतांत लिखने का सवाल है, वो हम पढ़ने से मना भी कर दें तो आप लिखे बिना तो अब मानने से रहे, सो लिख ही डालो..पढ़ लेंगे किसी तरह खेंच खांच के. :)
फत्तु आईटम है भई..रोटी खिलाई दो उसको.
पहले तो इस मनोहर गीत का शुक्रिया. इस गीत को सुने हुए अरसा हो गया भई! हमारे स्टेशन पर खूब बजा करता था. भोला की सही कही, मिल गया था एक दिन, काफी बातें बता रहा था फिर किराया माँगने लगा. हम भी नमस्ते कर के ऐसे निकले कि फिर सीधे हीथ्रो पर पर ही पहला ब्रेक लिया.
जवाब देंहटाएंतुम्हारी बात सही है, कहानी, किस्से तो हमारे परिवेश से ही आयेंगे बस पात्रों की प्राइवेसी का आदर रहना चाहिए ताकि कथा लेखन और खोजी पत्रकारिता का अंतर बरकरार रहे.
शुभमस्तु!
स्मार्ट इंडियन जी से सहमत ...
जवाब देंहटाएंफत्तू तो पक्का ढीठ निकला ...!
चुपचाप बैठे सोच रहा हूँ - पहले दो पैरे। क्या मैं ऐसा लिख सकता हूँ?
जवाब देंहटाएंयह गीत मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। सम्भवत: निदा फाज़ली ने इसे रचा। जब भी सुनता हूँ किसी और दुनिया में पहुँच जाता है। बी एस एन एल मोबाइल की रुक रुक आवाज़ के बावजूद सुन रहा हूँ। धन्यवाद।
@ Kshama ji:
जवाब देंहटाएंआप का विशेष आभारी हूँ, प्रोत्साहन देती रहती हैं।
@ समीर साहब:
फ़तू के मानेगा सरजी बिना पढ़वाये?
@ अनुराग सर:
बहुत लिबर्टी ले रहा हूँ आपसे, कभी गलत लगे तो टोक दीजियेगा।
@ वाणी गीत जी:
एकदम ढीठ है जी फ़त्तू।
@ गिरिजेश राव जी:
जब शाहजहाँ आगरे किले में नजरबन्द था, प्यास लगने पर खुद ही कुँये से पानी खींचने लगा और अभ्यास न होने के कारण उसका सर चर्खी से टकराया। खुदा का शुक्र करते हुये कहने लगा, "मुझ नाचीज को कुँये से पानी तक नहीं निकालना आता और मेरे मौला, तूने मुझसे इतने सालों तक बादशाहत करवा दी।"
राव साहब, आप बादशाहत करिये, पानी खींचने के लिये हम जैसे हैं।
आपने जो और जैसा लिखा है, हम जैसे कई मिलकर सात जन्म में नहीं लिख सकते।
बहुत भारी कमेंट है आपका आज का:)
मैं आभारी हूँ।
"अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं।"
जवाब देंहटाएंमेरा विरोध दर्ज करें मैं श्रीमानजी को ईमानदार समझाता था ..... :-)
सरे आम बेवकूफ क्यों बना रहे हो ???
परिवेश से बाहर लिखने का ख्याल 'ना कुछ' पर 'कुछ' लिखने सा है ! यकीनन ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल होता होगा ! वे जो ऐसा कर पायें उनके लिए नमन...पर इंसान को अपनी हदों से बाहर जाना ही क्यों ?
जवाब देंहटाएंआज आप हमेशा की तरह बेहतरीन कहे जाने के हक़दार हैं चीजों को असेस करने और दुहराने का आपका अपना स्टायल है जिसे कोई दूसरा छू भी नहीं सकता ! गिरिजेश जी और आपकी यूनिकनेस आपस में टकराती कहां हैं ? साधु...साधु...साधु !
भाई मैं तो सतीश सक्सेना जी से कतई सहमत हूँ..........
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह आपका लेख शानदार. गिरिजेश राव जी की टिप्पणी सोने पर सुहागा और उस पर आपका जवाब लाजवाब..... लेख ही नहीं टिप्पणिया और प्रति टिप्पणिया भी बढ़िया....गुरु जी बल्ले बल्ले...
जवाब देंहटाएंलिख सकते उनके बारें में मगर बस उतना,
जवाब देंहटाएंजितना की 'मजाल' वो है तुझमे !
समीर लाल जी ने समस्या का समाधान कर दिया ।
जवाब देंहटाएंवाह फ़त्तू वाह, ताऊ का नाम रोशन कर दिया प्यारे.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
"शनिवार को ऑफ़िस समय के बाद और गाड़ी आने के पहले, पूरा एन्ज~य कर रहे थे। तो जी, जब ये सब खत्म हुआ तो एक तमाशबीन स्टाफ़ ने आवाज लगाई, “हाँ भाई, हो गया सब? क्या समझा?” भोले ने खड़े होते हुये अँगड़ाई ली, अकड़े शरीर को ठीक करता हुआ बोला, “गीत गाया पत्थरों ने।” तेरी तो…।"
जवाब देंहटाएंha-ha sahee kaha ji .एक शेर था न वो कि
शराब खाने से निकलने वाला हर व्यक्ति शराबी नहीं होता ज्यों बुद्धा गार्डन से निकलने वाला................!
उलट जाये, वो बेवकूफ़ कहलाता है, भले ही वो कितना ही समझदार क्यों न रहा हो।
जवाब देंहटाएं- गुरु आप साथियों से ही जीवन दर्शन सीखने को मिलता है. बाकि रही फत्तु की बात .... हरियाणा - राजस्थान की मिश्रित बोली में बदिया लगा. ..........
@अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंजो लेखक वाले गुण नहीं थे तो ये लिख मारा है जब होते तो हे भगवान क्या गजब करते | मै तो चाहूंगी की मुझमे भी आप की तरह "अलेखक" वाले गुण आ जाये |
@यही किसी बाबाजी के यहाँ जाते तो लोग माथा भी टेकते, चढ़ावा भी चढ़ाते और हम फ़्री में सुना रहे हैं तो हमें ही पत्थर बताते हैं लोग।
संजय जी लोग पत्थर को ही भगवान समझ पूजते है |
बेवकूफ है जी वो लोग जो फत्तू को बेवकूफ समझाते है
समाज में ऐसे भोले बहुत हैं हमारे चारों ओर बस शायद हम ग़ैरलेखक लोग ध्यान ही नहीं देते.
जवाब देंहटाएंसोच रहे हैं कि एक आनलाईन इन्स्टीच्यूट खोल लिया जाए...जिसमें "अलेखकों" को "लेखक" बनने की ट्रेनिंग दी जा सके.....घणा चोखा धंधा है, एक तो भविष्य के हिन्दी व्रतियों की नई पौध तैयार हो जाएगी और ऊपर से कमाई अलग से...:)
जवाब देंहटाएंवैसे क्लियर कर दें कि पढाएंगें तो मास्टर जी ही, हम नहीं..हम तो खुद आप ही के जैसे अलेखक कैटेगिरी से हैं :)
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जवाब देंहटाएं@--अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं।
आजकल न तो गुणों की कद्र है , न ही गुणवान की । जिसको देखो वही leg pulling करता रहता है। इसलिए बेहतर है की गुणों को तिलांजलि देकर " Do as Romans do in Rome "
@ सतीश सक्सेना जी:
जवाब देंहटाएंसक्सेना साहब, आप भी चढ़ा दो टंकी पर मुझे, पड़ौस का ही हूँ आपके, आप भी विरोध करेंगे?
@ अली साहब:
कमेंट की शुरू की तीन लाईन काफ़ी थीं साहब, शुक्रिया।
@ दीप:
बन्धु, तुम भी?
@ majaal:
मज़ाल साहब, स्वागत है। उत्सुकता से देखता रहा हूँ आपके कमेंट्स, चुटीले से। शुक्रिया।
@ मिथिलेश:
ठीक है प्यारे, तुम भी तगड़ों से ही सहमत हो जाओ, हमारी तो देखी जायेगी:)
@ ताऊ रामपुरिया:
जवाब देंहटाएंताऊ, तारीफ़ गेल छोरे के कदे कदे कान भी खैंच देने चाहियें, काबू में रहेगा। आशीर्वाद बनाये राखियो।
रामराम।
@ गोदियाल जी:
हा हा हा, गोदियाल जी, आप भी भूले नहीं बुद्धा गार्डन को। धन्यवाद।
@ दीपक जी:
हम सब एक दूसरे से सीख रहे हैं दीपक जी, दोहरा धन्यवाद।
@ Anshumala ji:
आपके कमेंट्स हम जैसों की पोस्ट पर भारी होते हैं, सीरियसली। आभारी हूँ आपका।
@
अच्छा लेख है ....
जवाब देंहटाएंएक बार इसे भी पढ़े , शायद पसंद आये --
(क्या इंसान सिर्फ भविष्य के लिए जी रहा है ?????)
http://oshotheone.blogspot.com
आपके दोस्तों को पढ़ना बड़ा ही रोचक रहता है।
जवाब देंहटाएं@ काजल कुमार जी:
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं सर, हम लोग देखते भी हैं इनको, काम निकालते हैं और फ़िर अनदेखा कर देते हैं।
@ वत्स साहब:
पंडत जी, वदिया प्लानिंग है। लॉन टेनिस\टेनिस विच जदों नॉन-प्लेयर कैप्टेन बन सकदे हैं ते असीं क्यों नहीं इंस्टीच्यूट दे कर्ता धर्ता हो सकदे? बनाओ जी ड्राफ़्ट, पत्री वत्री देखके चंगी तरह।
@ अदा जी:
आप बहुत शुरू से ही मुझे प्रोत्साहित करती रही हैं, मैं मन से आपका बहुत आभार मानता हूँ, प्रेरणा पाता रहा हूँ आपसे।
@ दिव्या जी:
बहुमूल्य कमेंट के लिये धन्यवाद, बाकी हम तो जी लैग पुलवाने को तैयार रहते हैं। एक थ्योरी पढ़ी थी कभी ’ज़ीरो एक्स्पैक्टेशन थ्योरी’, अपने को अच्छी लगी थी, माफ़िक बैठती है। शुक्रिया आपका।
@ ओशो रजनीश:
धन्यवाद, आपका बताया लेख जरूर पढूंगा जी।
भोला के बारे में जानकर तो अच्छा लगा ही, फत्तू भी ज़बरदस्त निकला..... ;-)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभाई साहब! हमपेशा होने के कारण जिस प्राणी का ज़िक्र आपने किया है वह नाम का भोला अवश्य होगा किंतु स्वनामधन्य अगर वो हो तो उसकी एक फोटू भेजियेगा, हमारी संस्था से लुप्तप्राय हो चुकी इस प्रतिभा का हम सम्मान करना चाहते हैं. वैसे एक्के दुक्के दिख जाते हैं कहीं, पर दिल्ली दरबार में तो ऐसे नवरत्न, ना भाई ना...ख़ैर आपने पुराने दिनों की याद दिला दी…
जवाब देंहटाएंफत्तू के फॉर्म में लौट आने पर मज़ा आ गया!!!
अपने परिवेश से नहीं लायेगा तो कहाँ से लायेगा.जानकर या अनजाने में चरित्र तो परिवेश के ही होते हैं.
जवाब देंहटाएंबिछड़े सभी बारी बारी है....
जवाब देंहटाएंयाद आती बाते सारी है....
चाहे भोला हो या हो फत्तू...
या वो जो जिंदगी में शामिल है ...
@ Shah Nawaz:
जवाब देंहटाएंखुशामदीद शाहनवाज़ भाई।
@ सम्वेदना के स्वर:
फ़ोटू नहीं जी मुज़रिम खुद हाजिर हो जायेंगे। हमपेशा हैं, एक आध बार हमनिवाला होने का फ़ख्र भी तो दीजिये।
@ पंकज जी:
आप भी सही कह रहे हैं जी, अनुराग जी ने भी सही कहा है - प्राईवेसी और सम्मान का आदर ध्यान में रखना ही चाहिये।
@ अर्चना जी:
बना दिया इसका भी गाना, महान हो जी आप। धन्यवाद।
दूसरा अनुच्छेद!!!!
जवाब देंहटाएंशनिवार को बस यही पढ़ के छोड़ दिया था...अच्छी चीजें जल्दी ख़त्म करने का मन नहीं होता...:)
"अब चूँकि हमारे समाज में चलन है जिसकी गाड़ी उलट जाये, वो बेवकूफ़ कहलाता है"
चौकों छक्कों के बीच में ये सच्चे सिंगल्स लगा देते हैं आप..:)
मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा.....“बाऊ, हरिद्वार जाने का रास्ता सब बता देते हैं, किराया कोई नहीं देता।” ... पंच है, और किसी नाक से खून वाकई रिस रहा है.
जय भोले महाराज की...:) संजय भैया आप ऐसा माल ब्लॉग पर उतारने के बाद भी कहते हैं कि लिख नहीं पाता.. ये सब देख मेरा दिल कहता है कि, ''चल बेटा तू तो अब संन्यास ले ले.. जब इतने बड़े लिखाड़े खुद को कुछ नहीं समझते तो लोग तुझे क्या समझ्वे करेंगे???? ''
जवाब देंहटाएंसच्ची-मुच्ची
aur ye gana to hum sunte hee rahte hain.. haan blog par pahlee baar suna.. :D
@ अविनाश:
जवाब देंहटाएंजिस नाक से खून रिसा था, अपनी ही थी। पर हर बार पंच खाकर और ऊँची होती रही है दोस्त।
@ दीपक:
भैया बोला है तो कान पकड़वाने के लिये भी तैयार रहना। पहली बार है, इसलिये बख्श दिया छोटे भाई, दोबारा मज़ाक में भी सन्यास वन्यास लेने की बात मत करना। हम हैं जुगनू की तरह एक बार दिपदिप करने वाले, तुम मशाल। बहुत आगे जाना है तुम्हें, और अपने बड़ों का नाम रोशन करना है। चांस देखो, मेरे परिचितों में जिन युवाओं में सबसे ज्यादा संभावना मैं देख पा रहा हूँ, दोनों के कमेंट आगे पीछे हैं।
@ अविनाश एवं दीपक:
अगर इस कमेंट को पढ़ो तो एक दूसरे के ब्लॉग्स जरूर देखना, अगर पहले से नहीं देखे हों।
क्या-क्या किस्से हैं आपके पास, संजय जी? जितना पढ़ता जाता हूँ उतना ही लगता है कि कितने अनुभव हैं आपके पास. और यह बात तो सही है. अपने आस-पास वालों के बारे में न लिखें तो वे याद कैसे आयेंगे?
जवाब देंहटाएंभोला जी के बारे में पढ़कर उत्सुकता अगली पोस्ट पढने की..
वो तो "थी" न, अभी तो जो पढ़े उसकी नाक (अगर ऊँची नहीं है..) से खून रिस रहा है...थोडा हमने भी लिया अपने हिस्से का :)
जवाब देंहटाएंऔर हाँ...पढ़ा है दीपक भाई को, बहुत अच्छा लिखते हैं.
@ अपना वही सिक्का निकाला और उछाल दिया, जिसके दोनों तरफ़ लिखा है, देखी जायेगी।
जवाब देंहटाएंवाह, इसे कहते हैं जिंदादिली। एकदम राप्चिक पोस्ट।
mai bahar gayee huee thee ab shuruaat kee hai Bhola aur bhattu jaise jeevant kirdaro se milkar mazaa aaya....
जवाब देंहटाएंaapkee lekhan shailee ...........dhansoo hai .
aaj hee baaki char aur post padne ka besabree se intzaar hai......
वाह - फत्तू जी की जय हो , भोला जी की भी, और संजय जी - आपकी भी जय जय । :)
जवाब देंहटाएंवैसे छोटी टिप लिखनी हमें आती नहीं - सीखने के प्रयास चल रहे हैं ...
अपने को ज्यादा टेंशन इसलिये नहीं हुई कि अपन में लेखक वाले कोई गुण नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंऔर अपने को टैंशन इसलिए नहीं हुई कि पाठक वाले कोई गुण नहीं हैं... ;)