पुरानी कहावत है कि इंसान को खाना वो चाहिये जो मनभाता हो, पहनना वो चाहिये जो जगभाता हो। सही कह गये थे जी पुराने लोग अपने टाईम के हिसाब से, लेकिन इसमें हमारा क्या योगदान है? कई रातों की नींद इस सवाल के कारण उड़ी रही(ऐसा लिखने से बात का वजन बढ़ गया न?) और फ़िर भी अपनी समस्या का हल नहीं निकल रहा था। नहीं निकलता तो न निकले, हम कौन सा नोबल के लिये मरे जा रहे हैं। जब देना होगा तो अपने आप दे देंगे नोबल कमेटी वाले ढूंढ ढांढ कर। शंका का समाधान तो नहीं निकला लेकिन अपनी एक पोस्ट का मैटीरियल जरूर निकल आया। हमारा प्रश्न बनता है जी ’अगर खाया मनभाता जाये, पहना जगभाता जाये तो लिखा क्या जाये?’
हम नये नये आये थे इस ब्लॉगजगत में, और चारों तरफ़ छपा ही छपा देखकर ऐसे कूद रहे थे, ऐसे ऊल रहे थे जैसे कि नया नया तैराक स्वीमिंग पूल में छपाछप –छपाछप कर रहा हो या फ़िर ..जाने दो । कहां तो जब से पंजाब में आये हैं, हिन्दी पढ़ने को तरस गये थे और अब कुछ भी लिखकर ब्लॉगपास्ट.काम लिखो और सर्च करो और कुछ न कुछ निकल ही आता था। शुरू के कई दिन तो हिन्दी प्रेम को बांहों में लेकर झूमते और ब्लॉग ब्लॉग घूमते ही निकल गये। फ़िर जब थोड़ा बहुत पढ़ना शुरू किया तो आनन्द में और वृद्धि होने लगी। जल्दी ही दिख गया कि ये तो अपनी ही दुनिया है, बिल्कुल अपनी। वही टांग खिंचाई, घिसटा घिसटी, तेरा ब्लॉग मेरे ब्लॉग से ज्यादा पॉपुलर क्यों, तेरे को मिलने वाले कमेंट्स मेरे को मिलने वाले कमेंट्स से ज्यादा कैसे, हमारा धर्म ज्यादा महान। कोई टंकी पर चढ़ रहा है, कोई चढ़ने की धमकी दे रहा है। बस्स जी, हमने तो मान लिया कि पहले कभी रहा होगा कश्मीर धरती का स्वर्ग, अब तो जो है यहीं हैं, यही है और सिर्फ़ यहीं है।
अब तक लिखने के वायरस ने कब्जा कर लिया था हमारे दिलो दिमाग पर। दूसरों का लिखा देखते थे तो वो कौन सा तो काम्पलेक्स होता है, बी-काम्प्लेक्स नहीं यार आई काम्प्लेक्स, हाँ इन्फ़ीरियरिटी काम्प्लेक्स। ब्लॉग सुधार से लेकर,गली, मुहल्ला, शहर से ascending order में ऊपर ऊपर चढ़ते हुये विश्व सुधार तक के आह्वान, आलोचना, वेदना, प्रार्थना भरे लेख पढ़कर हम descending mode में आ गये थे।अब हमने सोचना शुरू किया कि क्या लिखें? अपने को तो इन सब बातों का ज्ञान है ही नहीं, जो ज्ञान हमें है वो तो सबके पास आलरेडी बहुतायत में है। चढ़ती जवानी में एक बार कहीं पढ़ा था, ’when I drink, I think, and when I think, I drink.’ बड़ी फ़ैंतेसी करी थीं जी हमने भी इस बारे में। लेकिन मेरी बात रही मेरे मन में, मैं पी न सका उलझन में। अब चढ़ते बुढ़ापे में ये थिंकने के लिये ड्रिंकना और ड्रिंकने के लिये थिंकना तो वैसे भी नहीं होना है। जो हमारे मन में है, कैसे कहें और जो नहीं कहा उसे कोई कैसे समझे? वैसे तो कहे को भी कौन समझता है, पर ऐसा कह दें तो यार लोग गुस्सा हो जायेंगे, इसलिये नहीं कहते। तो ए दिले नादान, सार्थक चिंतन और लेखन भी हमीं कर देंगे तो फ़िर ऐसा लिखने वालों की कदर कौन करेगा? अपन तो बेवज़ूल से आदमी हैं, फ़िलहाल तो ऐसा ही लिखेंगे।वैसे भी जिसका काम उसी को साजे, हम तो बीरबल ने जो चतुराई दिखाई थी बिना काटे लाईन को छोटी करने की, उसी चतुराई का मुकाबला करेंगे दूसरों की खींची लाईन को बड़ी सिद्ध करके। क्या करें, अपना तो स्वभाव ही ऐसा भुरभुरा सा है। भुरभुरा स्वभाव तो जानते ही होंगे सब? कूद पड़े हम भी इस मैदान में।
ऐसे में कहीं पढ़ने को मिला कि ’बोल्डनेस आने ही वाली है।’ ये तो सोने पर सुहागा हो गया जी, ’ चुपड़ी और वो भी दो-दो।’ हम तो खुद बोर हो गये थे अब तक जी, जी लिख बोल कर। कित्ता मजा आयेगा जब देवनागरी में अपनी असली पंजाबी भाषा में लिखकर पोस्ट डालेंगे और भारी भारी कमेंट करेंगे। ’ओये, भैन देया यारा, कित्थों ल्या के ऐनी वदिया पोस्ट लिख दित्ती है तू’ या किसी के कमेंट के जवाब में हम भी उसकी मां बहन को याद करेंगे। पर इत्ती भारी पोस्ट ये ब्लॉगर संभाल भी लेगा? अभी तो ये सुविधा फ़्री में मिली हुई है, लेकिन हमें इन कंपनियों की हकीकत पता है। पहले तो फ़्री की चाय पिला पिला कर आदत डाल देते हैं और फ़िर अपनी मनमर्जी करते हैं। अब हमें पता है कि महीने का सात सौ रुपये का ये इंटरनेट का नया खर्चा पास करवाने में कितनी दिक्कत आई थी। इतनी परेशानी तो वित्तमंत्री को बजट पास करवाने में भी नहीं आती। और ये अस्थाई सहायता कोई धारा 370 या आरक्षण विधेयक नहीं है जो ड्यूराप्लाई से ज्यादा स्थाई हो। हमें मिलने वाली ये वित्तीय सहायता अमेरिकी अनुदान की तरह है, जिसके दम पर पाकिस्तान की तरह अपने हालात थोड़े समय के लिये भुलाये जरूर जा सकते हैं लेकिन इसके बदले में हमें कैसे अपना जमीर(जो भी है थोड़ा बहुत) गिरवी रखना पड़ता है। तो हम तो जी खुदी को बुलंद करके पलकें बिछाये हुये किशोर कुमार की नकल करते हुये ’हुगली डू हुगली डू हुगली डू, मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू, चली आ, चली आ’ करते घूम रहे हैं पर ये साली बोल्डनेस दिखी नहीं अभी तक।
खैर, जब आने की खबर महक चुकी है तो बोल्डनेस को आना तो है ही, बेशक 5-7 साल और लग जायें। हमारी तो इतनी ही इल्तिज़ा है कि हमारे सामने ही आ जाये तो अच्छा है, वैसे भी ज्यादा टाईम है किसके पास? एक बार जी भर के देख तो लेते उसको। फ़िर दिमाग दूसरी तरफ़ चलने लगता है कि सारी उम्र शराफ़त अली बनके बितादी, अब आखिरी उम्र में ऐसा पंगा क्यों लें जी? जो हैं, जैसे हैं उसी आधार पर बिकें तो ठीक है वरना दीन से भी जायेंगे और दुनिया से भी। तो जी ’जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिये’ पर भरोसा रखते हुये लगभग आधा सफ़र तो तय हो गया, जब तक शिशुपाल के १०० अपराध पूरे नहीं होंगे तब तक का अभयदान तो है ही। फ़िर जो होगा, देखा जायेगा।
:) फ़त्तू को सफ़र में कहीं रात हो गई तो रात काटने के लिये उसने गांव के बाहरी किनारे पर बने एक घर का किवाड़ खटखटाया। मालकिन आई और रात काटने के इजाजत भी मिल गई। गृह्स्वामिनी ने बातों बातों में बता दिया कि वह अकेली अपने बच्चों के साथ रहती है। जब फ़त्तू खाना खाने के लिये बैठा तो उसने गौर किया कि घर में कम से कम बारह-चौदह बच्चे चिल्ल-पौं मचाये हुये हैं। ऐसा लगता था कि हर साल का मेक और मॉडल वहाँ मौजूद है। हैरान होते हुये उसने पूछा, “यो इतने सारे बच्चे थारे ही सैं?”
जवाब आया, ’बात यूं सै जी, म्हारा घर सै गांव के बाहर जी.टी.रोड से सटा हुआ, रात बेरात थारे जैसा कोई न कोई आ ही जावे है रात काटने की इजाजत मांगने। और म्हारा सै भुरभुरा सुभाव, हमसे मना करा ही नहीं जाता।”
तो जी हमारा सवाल अभी भी मुंह बाये खड़ा है हमारे आगे कि लिखा क्या जाये? बाकी तो हमारा स्वभाव भी आप जान ही गये होंगे, भुरभुरा ही है। अगर कहीं से जवाब मिल जायेगा तो उसका भला और न मिलेगा जवाब तो उसका भी भला।
bahut khoob likha aapne
जवाब देंहटाएंबाऊ जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
नौटी एट फोर्टी कहूं आपको? फ़िर सोचता हूँ, यही कोई पंद्रह साल बाद मैं भी आपके जैसा ही हो जाऊँगा.....
बहुत थिंका है, पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया....
और सलाह दूं आपको, ये भी कैसे संभव है!! आयु, पेशे और ब्लोगिरी, तीनों में आप मेरे अग्रज हैं!
वही कहता हूँ जो करता हूँ: एकदम वाहियात लिखो!!!
और हाँ, क्या फत्तू ने साल भर बाद फ़िर से घेड़ा मारा? भुरभुरे सुभाव का नतीजा.......!!??
Aalekh ne bada khushnuma mood bana diya!
जवाब देंहटाएंGeet to mera bahut pasandeeda hai!
दिल खुश कर दित्ता आज . अब आप अपने को पक्का ब्लागर मान सकते है . यह ही ब्लाग बैराग्य है . यह वह समय है जब सिद्धार्थ बुद्ध बनने की प्रक्रिया में होता है .
जवाब देंहटाएंलगे रहो एक दिन नोबल वाले जरुर खोज लेंगे
और हा फ़त्तू सही जगह पहुचा पहली बार
जवाब देंहटाएंओ संजय भाई..... मुंह में पिपरमेंट रख एक्सपेरिमेंट कर ही डालो.....बिना जी लगाए सीधे पंजाबी स्टाइल में कमेंट करो....फिर वेखो कौण कौण मैदाणं विच कल्ला रैंदा ए :)
जवाब देंहटाएंये आखिरी लाइनें
तो जी हमारा सवाल अभी भी मुंह बाये खड़ा है हमारे आगे कि लिखा क्या जाये? बाकी तो हमारा स्वभाव भी आप जान ही गये होंगे.......
पढ़ते हुए लगा कि परेश रावल सीधे लक्ष्मीनारायण बन कर वन टू का फोर फिल्म से ब्लॉगजगत में उतर आया है यह कहते कि ओ जी...आप तो मेरा नेचर जानते हो :)
बहुत मस्त पोस्ट।
साहब आपसे कौन कहकर गया था कि बोल्डनेस आने वाली है. अरे ये तो चिट्ठाजगत में अभी अभी अवतरित हुई है. सबसे ऊपर तो विडिओ लगे हुए हैं साक्षात् बोल्डनेस के और शीर्षक भी शानदार हैं.
जवाब देंहटाएंखाओ मन भाता.
जवाब देंहटाएंपहनो जग भाता.
लिखो जो है आता.
कोई भी वही लिखेगा जो उसके जीवनानुभव होंगे. मेरे अनुभव या शून्य जी के विचारों को आप हू-ब-हू नहीं लिख सकते. clear है न.
जहाँ तक बोल्डनेस दिखने की बात है. वह हमारी शकल की तरह है जी. उसे मुकुर* की ज़रुरत है जी. जैसे मुखड़े को देखने के लिए मुकुर चाहिए, वैसे ही वाचिक मुखरता को मापने के लिए एक दिवसीय मौन चाहिए. कायिक मुखरता [स्त्रियों की बोल्डनेस] मापने के लिए पौन** चाहिए.
*मुकुर — शीशा.
** पौन — हवा.
जब तक शिशुपाल के १०० अपराध पूरे नहीं होंगे तब तक का अभयदान तो है ही। फ़िर जो होगा, देखा जायेगा।
@ बस गिनती का ध्यान रखना, ९९ होते ही मौन धारण करियेगा. फिर दूसरी पाली का इंतज़ार.
"... और म्हारा सै भुरभुरा सुभाव, हमसे मना करा ही नहीं जाता."
@ भुरभुरे स्वभाव को लेकर चले तो फत्तू डिजाइन के मोडलों में साल-दर-साल इजाफ़ा देखने को मिलेगा. हमारे संविधान में 'समानता का अधिकार' दिया गया है शायद तब पशु और मानव वृतियों में काफी समानता आ जायेगी. 'समानता' लाने के लिए यह एक अच्छा प्रयोग होगा. काबिले-तारीफ़ भुरभुरा स्वभाव.
तो ये भुरभुरे स्वभाव की ही माया है कि हम भी आज 100 करोड़ से ऊपर हुए जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएं@ सुधीर जी:
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद सर आपका|
@आशीष:
प्यारे अनुज, फत्तू तो एक बार जहां से होकर आ गया, फिर गेड़ा नहीं मारता वहां का| मैं जरूर आ रहा हूँ फिल्लौर एक दिन,वो परांठों की इतनी तारीफ कर रखी है यार तुमने, अभी भी मिलते हैं क्या मखन मार के?
@क्षमा जी:
आपका बहुत आभारी हूँ|
@धीरू सिंह जी:
हूँ तो पक्का मैं, जानता हूँ ये तो| बस अपना उद्देश्य अब बनना नहीं बिगड़ना है जी| दुआ करना|
और आप जैसे भाईयों का प्यार मिलता है बहुत है, वो तो कुछ लिखने के लिए लिख देते हैं ईनाम शिनाम की बातें जी, बस ऐंवे ही|
@सतीश पंचम जी:
भाई जी, बहुत मस्त कमेन्ट| बहुत चढ़ा देते हो वैसे आप, कल को उतार भी दोगे ना?
@विचारशून्य:
देख लो बंधू, ऐसे ही हमारे आईडिया चुरा लेते हैं लोग| बाकी ये हजरत तो सीधे ही चौथे गियर में पहुँच गए| हमने तो बधाई सन्देश भी भेज दिया है चिठाजगत वालों को|
@प्रतुल जी:
जहां न पहुंचे रवि, वहां पे पहुंचे कवी| अबके सही पकड़ लिया कविवर हमें, कालिदास वाली पोस्ट पर चूक गए थे आप| निन्यानवे के फेर वाला विचार एकदम चौकस है न? सौंवा अपराध करेंगे ही नहीं, कल्लो जिसे जो करना है|
@काजल कुमार जी:
चाहे आबादी बढाने की बात हो(फत्तू स्टाईल) या आबादी कम करने की बात हो(कसाब, अफजल वगैरह वगैरह स्टाईल), ये हमारे भुरभुरे स्वभाव की माया ही है जी| धन्यवाद आपका|
हा हा हा ...
जवाब देंहटाएंअब भला आपको कौन रोक सकता है..आपके पास वो है जो शायद किसी के पास नहीं...
कमाल की सोच और कलम के धनी...अब आप कृपा करके यह कहना बंद कीजिये कि आप एक स्थापित ब्लोग्गर नहीं हैं...
आप बोल्ड हैं, अपने मन की लिखते हैं और आज एक और खुलासा हुआ आप भुरभुरे स्वाभाव के हैं...
बहुत आभारी हैं...आपकी रचनाएँ, कल्पनाएँ, सपने सभी हमलोगों को गुदगुदा जाते हैं
शब्दों की अल्पना मुखर हो जाती है...गज़ब लिखते हैं आप..
हाँ नहीं तो..!!
अभी फिर आता ... हूँ.......
जवाब देंहटाएंबच्चे हो जायें तो बीबी की प्राथमिकतायें और कहावतें बदल जाया करती हैं अब खाना वो पड़ता है जो 'बच्च भाता' हो अलबत्ता पहन सकते हैं 'मन भाता' !
जवाब देंहटाएंआपके आब्जर्वेशंस तगड़े हैं ! जी टी रोड पर ठिकाना हो तो बंदे हाथ छुलाते ही चलते हैं ,गाँव गली मिलने कौन जाता है आजकल !
ज्यादा आवाजाही से भुरभुरेपन की गुंजायश बढ़ ही जाती पर आशंका ये कि उसपर टिक कर टिप्पणी देना कितना कठिन होता है :)
गजब लिखते हो जी..आनन्द आ जाता है...या दिल की सुनो..यही सही है.
जवाब देंहटाएंयह गाना मुझे बहुत भाता है।
जवाब देंहटाएंअन्ततः वही किया जाये जो स्वयं को भाये और स्वयं को वही भाये जो दूसरे को अखरे नहीं। सामाजिक और व्यक्तिगत जीवनों में थोड़ा द्वन्द दिख सकता है पर दोनों को ही साथ रखना होगा।
काश, पहले से मालूम होता कि इस स्वभाव को भुरभुरा कहते हैं तो ....हा हा!
जवाब देंहटाएंएक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
"हम तो बीरबल ने जो चतुराई दिखाई थी बिना काटे लाईन को छोटी करने की, उसी चतुराई का मुकाबला करेंगे दूसरों की खींची लाईन को बड़ी सिद्ध करके।"
जवाब देंहटाएंसंजय जी, ऐसे पोस्ट लिखकर तो आप किसी भी बड़ी लाइन को छोटी नहीं बना सकते। हाँ यह अवश्य हो सकता है कि आपकी लाइन और छोटी हो जाये।
गौरे का घर
जवाब देंहटाएंअर भुरभुरा सुबाह, नाटाये ना जाता
राम-राम
आज बस मुस्कराहट है आपकी पोस्ट के लिए और फत्तू साहब के लिए भी :)
जवाब देंहटाएंऔर हाँ, आपकी कंजूसी कायम रहे...शब्द सिर्फ सही जगह ही गिरने चाहियें.. कमेन्ट गिनना और लिखना अलहदा मसले हैं, मैं दोनों में कच्चा हूँ, पहले में जरा ज्यादा ही :)
"’when I drink, I think, and when I think, I drink.’"
जवाब देंहटाएंसर , अपुन तो उपासक ही इसी मन्त्र के है !
वैसे आजकल ट्रेंड थोड़ा चेंज हो गया है इस देश के रसूकदारों का,
वे कहते है ... खाओ वो, जो भरे करदाता, पहनो वो जो बदन पे न आता ....
@ अदा जी:
जवाब देंहटाएंआप गज़ब मज़ाक करती हैं जी| और आपके इस 'हाँ नहीं तो' ने किसी दिन मेरा हैप्पी बड्डे कर देना है, बताए दे रहा हूँ|
@ महफूज़ अली:
इंतज़ार कर रहा हूँ, महफूज़ भाई|
@ अली साहब:
अली साहब, ज्यादा आवाजाही से घबराते हैं तो रिस्क मत लीजिये न, अपनी तो देखी जायेगी:)
@ समीर सर:
सर जी, वाक्य तो पूरा कर देते, तो...|
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
प्रवीण जी, सही मायने में तो आपकी 'मेरे कुम्हार' पोस्ट ने एकबारगी तो मैदान छोड़ने की जमीन तैयार कर दी थी मेरे लिए| खुद पर शर्मिंदगी लग रही थी, कि क्या सार्थक लिख रहा हूँ मैं? इस पोस्ट का श्रेय आपको है सर|
@ शिवम् मिश्रा जी:
आपका धन्यवाद जी|
@ जी.के. अवधिया जी:
अवधिया जी, आपके पधारने का शुक्रिया| अपनी लाइन तो छोटी ही रखनी है, साहब| पुनः धन्यवाद|
@ अंतर सोहिल:
अमित जी, सही तो यही है जो आपने कहा है, मुझे थोड़ी हेरफेर करनी ही पड़ती है|
राम राम, इब ठीक सै|
@ अविनाश चन्द्र:
छोटे भाई, तुम मुस्कुरा दिए तो अपनी मेहनत वसूल हो गयी|
दूसरी और तीसरी पंक्ति पर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा हूँ, वैसे ऐसे ही निर्लेप बने रह सको तो उस से बेहतर कुछ नहीं है|
@ पी.सी. गोदियाल जी:
गोदियाल साहब, ड्रिंक एंड थिंक पर आपका कमेन्ट न आता तो कमी सी रहती|
एक लम्बे ब्रेक के बाद आपको देखना बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद|
"हम नये नये आये थे इस ब्लॉगजगत में, और चारों तरफ़ छपा ही छपा देखकर ऐसे कूद रहे थे, ऐसे ऊल रहे थे जैसे कि नया नया तैराक स्वीमिंग पूल में छपाछप –छपाछप कर रहा हो"
जवाब देंहटाएं"जल्दी ही दिख गया कि ये तो अपनी ही दुनिया है, बिल्कुल अपनी। वही टांग खिंचाई, घिसटा घिसटी, तेरा ब्लॉग मेरे ब्लॉग से ज्यादा पॉपुलर क्यों, तेरे को मिलने वाले कमेंट्स मेरे को मिलने वाले कमेंट्स से ज्यादा कैसे, हमारा धर्म ज्यादा महान। कोई टंकी पर चढ़ रहा है, कोई चढ़ने की धमकी दे रहा है। बस्स जी, हमने तो मान लिया कि पहले कभी रहा होगा कश्मीर धरती का स्वर्ग, अब तो जो है यहीं हैं, यही है और सिर्फ़ यहीं है।"
aap ne to bilkul hamara hal likha diya .jab likhane ke lie koii vishay nahi hai to itana achcha likha jab vishay hoga to kya post hogi bahut majedar
बहुत ही लाजवाब लेखन. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम
भाई जी, इत्ते महीनों से आपको पढ रहे हैं, ये बात अलग है कि पिछले कुछ दिनों से इधर आना नहीं हो पाया...सो आपके पुराने रैग्यूलर ग्राहक होने के चलते इत्ते समय में आपके बारे में जो मन में एक धारणा निर्मित हुई थी...उसे तो आपकी आज की इस पोस्ट नें एक ही झटके में पूरी तरह से खंडित कर डाला :)हा हा हा....
जवाब देंहटाएंऎ गल्ल कोई चंगी नई जे बाऊ जी :)
खाओ मनभाता, पहनो जगभाता और लिखो....रातभर करके जगराता :)
जवाब देंहटाएं..अब तो जो है यहीं हैं, यही है और सिर्फ़ यहीं है।..
जवाब देंहटाएंआपकी लिखने की शैली मनोहारी है. अब देखिए न पूरा पढ़ गया
और देर तक सोंचता रहा कि क्या था जो पूरा पढ़ गया..! मुझे किसी ने कहा था कि लिखते रहना जरूरी है. अच्छा है या बुरा यह तो पाठक तय करेंगे. लगातार लिखते रहना बड़ी बात है.
..भुरभुरा स्वभाव चुरमुरा मजा दे गया.